-विमल वधावन
एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट
हमारे देश के राजनेताओं को एक अच्छा राजनेता, एक अच्छा प्रशासनिक अधिकारी या एक अच्छा मुख्यमंत्री, केन्द्रीय मंत्री या प्रधानमंत्री बनने के लिए हमारे पास कोई भी प्रशिक्षण केन्द्र नहीं है जो राजनीति में प्रवेश करने वाले सभी इच्छुक नागरिकों को कोई ऐसी शिक्षा-दीक्षा दे सके जिसमें राष्ट्रहित तथा लोकतंत्र के तीन स्तम्भों न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका का सुचारू संचालन समझाया जा सके।
देश की न्यायपालिका निःसंदेह लोकतंत्र का एक महत्त्वपूर्ण प्रहरी है। इस प्रहरी का प्राथमिक कार्य नागरिकों के बीच विवादों का न्यायसम्मत निपटारा करना है। इसी प्रकार किसी कार्य को बिलकुल न करने या ठीक से न करने के प्रश्न पर यदि कोई नागरिक सरकार के विरुद्ध मुकदमा करता है तो अदालत उस विवाद का भी न्यायसम्मत निपटारा करती है। इन विशुद्ध न्यायिक कार्यों के अतिरिक्त न्यायालयों पर यह जिम्मेदारी भी होती है कि सरकार द्वारा बनाये गये कानूनों को संविधान की दृष्टि से परखकर अपना निर्णय दे। यदि सरकार गलती से असंवैधानिक या भेदभाव पर आधारित किसी कानून का निर्माण करती है तो उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय उन कानूनों को रद्द कर सकते हैं।
लेकिन आज हमारे देश के कुछ राजनेता और राजनीतिक दल इतने अपरिपक्व, लापरवाह और अदूरदर्शी हो चुके हैं कि उन्हें अपने प्रशासनिक और कानूनी दायित्वों के बारे में चिन्तन करने और निष्पक्ष उपाय ढूंढ़ने का अवकाश नहीं मिलता। गत माह सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री तीरथ सिंह ठाकुर तथा उनके साथ दो अन्य न्यायाधीशों की पीठ ने दिल्ली में प्रवेश करने वाले डीजल संचालित वाणिज्यिक वाहनों के प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगाने का निर्देश दिया। अदालत को इस निर्देश के साथ ही यह भी निर्धारित करना पड़ा कि राजधानी से होकर गुजरने वाले वाहनों को किस-किस मार्ग से दूसरे राज्यों में जाने की सुविधा प्रदान की जाये। यदि दिल्ली सरकार परिपक्वता और दूरदर्शिता के साथ इन्हीं कार्यों का निपटारा स्वयं अपने प्रशासनिक कार्यालयों में बैठकर करें तो इन नीति निर्धारण से सम्बन्धित कार्यों के लिए अदालतों का समय व्यर्थ न हो। परन्तु जब तक पर्यावरण और ट्रैफिक जाम का हाहाकार जनता में मचता रहा तब तक दिल्ली सरकार भी सोई रही। आज जब राष्ट्रीय हरित आयोग ने पर्यावरण समस्या को लेकर सरकार की खिंचाई की तो दिल्ली सरकार ने अपने किसी प्रशासनिक कला कौशल का फिर भी प्रयोग न करते हुए सारी जिम्मेदारी जनता पर सम-विषम संख्या योजना के माध्यम से डाल दी। यह केवल जिम्मेदारी नहीं अपितु जनता के लिए एक बहुत भारी समस्या है। एक वकील जिसे एक दिन में कई अदालतों में हाजिर होना पड़ता है वह मुकदमों की फाइलें उठाकर कैसे बिना कार के न्यायिक प्रक्रिया में सहयोग दे पायेगा। डाॅक्टरों के लिए यह समस्या और भी अधिक कष्टकारी होगी परन्तु उनकी यह समस्या सीधा रोगियों की समस्या बन जायेगी जब अस्पतालों से डाॅक्टर अनुपस्थित होंगे या सार्वजनिक वाहनों से देर से पहुंचेंगे। किसी आकस्मिक रोगी के लिए तो यह योजना जी का जंजाल बन सकती है। वैसे दिल्ली सरकार ने इस योजना पर 15 दिन के बाद पुनर्विचार की बात कही है, परन्तु यह निश्चित है कि यदि यह योजना और आगे चली तो निश्चय ही सर्वोच्च न्यायालय या दिल्ली उच्च न्यायालय के सामने अनेकों जनहित याचिकाएँ न्यायिक समय की बर्बादी करती हुई नजर आयेंगी।
प्रत्येक राज्य सरकार की यह जिम्मेदारी होती है कि अपने-अपने राज्य का लोकायुक्त नियुक्त करे। परन्तु बार-बार निर्देश के बावजूद जब उत्तर प्रदेश सरकार ने कोई लोकायुक्त ही नियुक्त नहीं किया तो सर्वोच्च न्यायालय को अपना न्यायिक समय उत्तर प्रदेश सरकार के इस प्रशासनिक कार्य के लिए भी लगाना पड़ा। ऐसा पहली बार हुआ कि सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारी प्रशासनिक कार्य अपने हाथ में लेते हुए न्यायमूर्ति श्री वीरेन्द्र कुमार को उत्तर प्रदेश का लोकायुक्त नियुक्त कर दिया। इस घटनाक्रम के पीछे भी उत्तर प्रदेश के संचालक नेताओं की अपरिपक्वता और लापरवाही नजर आ रही है।
राजनीतिक रस्सा-कसी के परिणामस्वरूप राजनेता एक-दूसरे पर हर प्रकार के आरोप लगाते हुए देखे जाते हैं। लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नामक मूल अधिकार जैसे सिद्धान्तों पर चिन्तन किया जाये तो इन आरोपों और प्रत्यारोपों को एक सामान्य प्रक्रिया के रूप में समझा जाना चाहिए। परन्तु हमारे देश में इन स्वतंत्रताओं का घोर दुरुपयोग किया जाता है। राहुल गाँधी और सोनिया गाँधी पर यदि नेशनल हेराॅल्ड घोटाले का मुकदमा किसी ने अदालत में प्रस्तुत किया है तो यह आपराधिक प्रक्रिया के अन्तर्गत एक सामान्य सी बात है कि आरोपी अदालत के समक्ष पेश होकर अपने ऊपर लगे आरोपों का खण्डन करें और न्यायिक प्रक्रिया में सहयोग करें परन्तु सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी कांग्रेस पार्टी के प्रमुख नेता हैं इसलिए उनके समर्थन में इस मुकदमें का विरोध करते हुए संसद की प्रक्रिया को ही रोक कर रख दिया जाता है। दलील यह दी जाती है कि भाजपा की केन्द्रीय मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज तथा भाजपा शासित राज्यों के दो मुख्यमंत्रियों बसुन्धरा राजे सिंधिया और शिवराज सिंह चैहान को भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण हटाया क्यों नहीं गया? वैसे तो कांग्रेस ने इस मांग को लेकर भी लगातार कई महीनों से संसद की प्रक्रिया को ठप्प रखा है। परन्तु यदि इसकी तुलना नेशनल हेराॅल्ड मुकदमें से की जाये तो कांग्रेस नेताओं को यह समझना चाहिए कि यदि उनके पास भाजपा मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों के विरुद्ध यदि कोई निश्चित प्रमाण थे तो उनके विरुद्ध कांग्रेस नेताओं ने अदालतों में मुकदमें क्यों नहीं किये? यदि ऐसे मुकदमें अदालतों के समक्ष प्रस्तुत किये जाते तो संसद ठप्प करने की आवश्यकता ही न पड़ती और इन नेताओं को अपने आप ही अपने पद छोड़ने पड़ते। यह सारी घटनाएँ भी राजनीतिक अपरिपक्वता और अदूरदर्शिता का लक्षण दर्शाती हैं।
दिल्ली सरकार के एक उच्चाधिकारी के कार्यालय पर सी.बी.आई. ने छापे मारे और पूछताछ प्रारम्भ की तो अब दिल्ली सरकार के मुख्यमंत्री बौखला उठे। अपने को ईमानदार कहने वाले यह मुख्यमंत्री ही क्या सारा दिल्ली प्रशासन जानता है कि कौन से उच्चाधिकारी ईमानदार हैं और कौन भ्रष्टाचारी। एक परिपक्व मुख्यमंत्री को किसी सी.बी.आई. प्रक्रिया के विरुद्ध इतना प्रखर होकर सामने नहीं आना चाहिए। परन्तु दिल्ली के मुख्यमंत्री की अपरिपक्वता दो कदम और आगे बढ़ गई जब एक अधिकारी का बचाव करते-करते वह अचानक केन्द्रीय मंत्री श्री अरुण जेटली के विरुद्ध 5 से 10 वर्ष पूर्व के कुछ कार्यों का पिटारा खोलकर बैठ गये और उन्हें भ्रष्टाचारी कहते हुए उनके त्यागपत्र की माँग प्रारम्भ कर दी। क्या एक राजनेता के कहने पर किसी अन्य राजनेता को भ्रष्टाचारी घोषित किया जा सकता है? परन्तु अपरिपक्वता कुछ भी कर सकती है। ‘आम आदमी पार्टी’ के जो राजनेता आज अचानक 10 वर्ष पुराने भ्रष्टाचार के आरोपों की बौछार श्री जेटली पर कर रहे हैं इसके बदले उन्हें काफी पहले श्री जेटली पर आपराधिक मुकदमा करना चाहिए था। यदि श्री जेटली के विरुद्ध पर्याप्त प्रमाण अदालत के समक्ष प्रस्तुत किये जाते तो स्वाभाविक रूप से श्री जेटली को अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ता। इस अपरिपक्व आरोप-प्रत्यारोप के वातावरण के कारण श्री जेटली को इन नेताओं पर मानहानि का मुकदमा करना पड़ा। जिस व्यक्ति के पास दूसरे पर आरोप लगाने के लिए या अपनी ईमानदारी सिद्ध करने के लिए पर्याप्त आधार होता है वह सार्वजनिक बयानबाजी के साथ-साथ अदालतों में मुकदमा अवश्य ही प्रस्तुत करता है। परन्तु हमारे अपरिपक्व राजनेता निरर्थक बयानबाजियों और संसदीय कार्यों में बाधा बनने के ही विशेषज्ञ सिद्ध हो रहे हैं। एक तरफ संसदीय कार्य ठप्प होते हैं तो दूसरी तरफ अपने प्रशासनिक और कानूनी दायित्वों का भली प्रकार निर्वहन न करने के कारण अदालतों का न्यायिक समय जनहित याचिकाओं के निपटारे में निरर्थक व्यतीत होता रहता है। अब जबकि दिल्ली सरकार की अपनी जांच समिति ने श्री अरुण जेटली की संलिप्तता का कहीं उल्लेख तक नहीं किया तो इन अपरिपक्व आरोपकर्ताओं के पास एक ही विकल्प बचता है कि वे अदालत में श्री अरुण जेटली से क्षमा याचना की पहल करें। इससे पूर्व भी श्री अरविन्द केजरीवाल तथा केन्द्रीय मंत्री श्री नीतिन गडकरी के बीच ऐसा ही आरोप युद्ध छिड़ा था, परन्तु श्री केजरीवाल को वहां भी समझौता प्रक्रिया का सहारा लेना पड़ा था। अन्ततः बिगड़ेगा किसी का कुछ नहीं परन्तु इस राजनीतिक खेल तमाशे में अदालतों का अच्छा खासा समय व्यर्थ हो जाता है।
यह सारा खेल एक ऐसे सिद्धान्त पर आकर केन्द्रित होता है जहाँ हम यह महसूस कर सकते हैं कि हमारा देश विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा केवल इस बात पर नहीं कर सकता कि यहाँ समय पर निर्वाचन होते हैं और पाकिस्तान की तरह आये दिन सैन्य शासन की मार नहीं झेलनी पड़ती। बल्कि हमारा लोकतंत्र विश्व का सबसे अपरिपक्व और लापरवाह लोकतंत्र सिद्ध हो रहा है क्योंकि हमारे देश के राजनेताओं को एक अच्छा राजनेता, एक अच्छा प्रशासनिक अधिकारी या एक अच्छा मुख्यमंत्री, केन्द्रीय मंत्री या प्रधानमंत्री बनने के लिए हमारे पास कोई भी प्रशिक्षण केन्द्र नहीं है जो राजनीति में प्रवेश करने वाले सभी इच्छुक नागरिकों को कोई ऐसी शिक्षा-दीक्षा दे सके जिसमें राष्ट्रहित तथा लोकतंत्र के तीन स्तम्भों न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका का सुचारू संचालन समझाया जा सके।