हमारे देश की न्याय व्यवस्था पर मुकदमों का बोझ कम होने के स्थान पर लगातार बढ़ता जा रहा है। जब भी अदालतों में बढ़ते मुकदमों या एक-एक मुकदमें के निर्णय में अनेकों वर्ष व्यतीत होने पर चिन्तन होता है तो सारी समस्याओं का कारण एक ही बात के रूप में व्यक्त कर दिया जाता है कि अदालतों में न्यायाधीशों की संख्या कम है। मेरा चिन्तन यह कहता है कि यदि किसी न्यायाधीश के पास बहुत थोड़े से मुकदमें हों परन्तु यदि वह न्यायाधीश प्रक्रिया और कानूनों में सक्षमता और भावनात्मक दृष्टिकोण से काम नहीं करता तो कम मुकदमों के बावजूद भी वह अनेकों वर्ष तक अच्छे निर्णय नहीं दे पायेगा। इसलिए मैंने केन्द्र सरकार के कानून और न्याय मंत्रालय के समक्ष कुछ क्रियात्मक सुझाव प्रस्तुत किये हैं। इन सुझावों को लागू करने के लिए किसी प्रकार के नये कानूनों की आवश्यकता नहीं बल्कि यह सुझाव केवल न्यायाधीशों के प्रशिक्षण और न्याय प्रक्रिया में कुछ छोटे-बड़े संशोधनों के साथ लागू किये जा सकते हैं।
दिवानी मुकदमों की एक बहुत बड़ी संख्या सरकार के साथ मुकदमेंबाजी के रूप में देखी जाती है। इस सम्बन्ध में दीवानी प्रक्रिया कानून की धारा-80 के अन्तर्गत एक विशेष प्रावधान है कि जब भी किसी नागरिक को सरकार के किसी कार्य से असंतोष हो और उसके असंतोष का बाकायदा कोई कानूनी आधार भी हो तो उसे सम्बन्धित सरकारी विभाग पर मुकदमा करने से पूर्व सम्बद्ध सरकारी अधिकारी को अपने असंतोष के तथ्यों और कानूनों सहित एक नोटिस देना होता है। यदि सम्बन्धित सरकारी अधिकारी दो माह तक इस नोटिस का संतोषजनक उत्तर नहीं देता तो उसके बाद वह नागरिक अदालत में मुकदमा प्रस्तुत कर सकता है। सरकारों और अदालतों को केवल यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसे प्रत्येक नोटिस का संतोषजनक उत्तर अवश्य दिया जाये। किसी भी नागरिक के असंतोष का उत्तर देते समय बाकायदा कानूनी विशेषज्ञों के परामर्श से ही कार्य किया जाना चाहिए। परन्तु अक्सर देखा जाता है कि सरकारी अधिकारी ऐसे नोटिस को गम्भीरता से नहीं लेते। परिणामस्वरूप नागरिक अदालतों का द्वार खटखटाने के लिए विवश हो जाते हैं। कई वर्षों की लड़ाई के बाद उन्हें न्यायालय से संतोषजनक समाधान मिलता है। परन्तु सरकारी अधिकारी एक न्यायालय के निर्णय के बावजूद आगे-आगे उच्च न्यायालयों में अपील करने में नागरिकों का समय भी खराब करते हैं और सरकारी धन का भी अपव्यय होता है। जब न्यायालयों द्वारा बार-बार नागरिकों के हित में निर्णय दिया जाता है तो ऐसे मामलों में सम्बन्धित सरकारी अधिकारियों पर भारी जुर्माना लगाने के साथ-साथ अनुशासनात्मक कार्यवाही का प्रावधान भी किया जाना चाहिए, क्योंकि उनकी नासमझी और अहंकारी प्रवृत्ति के कारण नागरिकों के कई वर्ष कानूनी लड़ाई में लगते हंै। यदि इस प्रकार की कार्यवाही सरकारी अधिकारियों के विरुद्ध प्रारम्भ कर दी जाये तो भविष्य में सभी सरकारी अधिकारी कानून की पूरी समझ के साथ और यहाँ तक कि कानूनी विशेषज्ञों के परामर्श से ही निर्णय लेना प्रारम्भ कर देंगे। इस प्रवृत्ति के प्रारम्भ होते ही अदालतों में प्रस्तुत होने वाले मुकदमों की बहुत बड़ी संख्या में कमी आ पायेगी। मैंने राज्यसभा सदस्य के नाते इस आशय का एक संशोधन बिल भी लोकसभा में प्रस्तुत किया था। मुझे आशा है कि अब श्री नरेन्द्र मोदी जी की संवेदनात्मक पहल पर इस प्रकार के प्रक्रियात्मक संशोधन निकट भविष्य में अवश्य ही लागू होंगे।
इसी प्रकार अपराधिक मुकदमों में यह देखा गया है कि पुलिस थानों में बहुत सी झूठी और मनगढ़त शिकायतें प्रस्तुत कर दी जाती हैं। भारतीय दण्ड संहिता की धारा-182 में झूठी शिकायत के आधार पर अपराधिक मुकदमेंबाजी प्रारम्भ करने वाले व्यक्तियों के विरुद्ध भी 6 माह तक की सजा का प्रावधान है। परन्तु सारे देश के पुलिस स्टेशनों और मजिस्टेªट अदालतों ने इस प्रावधान का प्रयोग यदा-कदा ही किया होगा। यदि इस प्रावधान का उचित मामलों में प्रयोग किया जाये तो झूठी मुकदमेंबाजी पर पूरी लगाम लगाई जा सकती है।
अपराधिक मुकदमों में जब कोई व्यक्ति जमानत के अभाव में जेल से ही मुकदमा लड़ता है तो उसे हर 14 दिन बाद अदालत में पेश किया जाता है। इस कार्य के लिए देशभर में प्रतिदिन लाखों बसों पर कैदियों को जेल से मजिस्ट्रेट अदालत लाने-ले जाने के लिए अपार धनराशि खर्च की जा रही हैं। यह पूरी तरह से एक निरर्थक प्रक्रिया है जिसका सरल समाधान यह हो सकता है कि एक मजिस्ट्रेट प्रत्येक जेल के लिए निर्धारित कर दिया जाये जिसकी अदालत जेल में ही लगे और वहीं पर वह अपराधियों की रिमाॅड अवधि बढ़ाता रहे।
अक्सर सभी मुकदमों में सबसे ज्यादा लम्बा समय गवाहों के बुलाने और अदालत में उनकी गवाही दर्ज कराने में खर्च होता है। अपराधिक मुकदमों में तो एक ही सुनवाई तिथि के लिए 8-10 गवाहों को सम्मन भेज दिये जाते हैं, जबकि ट्रायल अदालत के कार्यभार को देखते हुए मुश्किल से एक या दो व्यक्तियों की ही गवाही लिखना सम्भव हो पाता है। इस प्रक्रिया के चलते अदालतों के साथ-साथ गवाहों पर भी निरर्थक बोझ पड़ता है जिन्हें गवाही देने के लिए कई-कई बार कोर्टों के चक्कर काटने पड़ते हैं। ऐसे में कई गवाह तो थक-हार कर गवाही देने से ही बचने का प्रयास करते हैं। एक तरफ मुकदमेंबाजी लम्बी होती है तो दूसरी तरफ गुण-दोष के आधार पर मुकदमें के पीड़ित पक्ष को भी हानि होती है। इसका सरल उपाय केवल व्यवस्थागत परिवर्तन से सम्भव हो सकता है। प्रत्येक पक्ष अदालत की अनुमति से केवल उतने ही गवाहों को बुलाये जिनकी गवाही लिखना उस दिन सम्भव हो। यदि पक्ष अपने गवाह को समय पर उपस्थित नहीं कर पाता तो उसके लिए उस पक्ष पर भारी जुर्माना लगाया जाये जिसका एक हिस्सा विरोधी पक्ष को और दूसरा हिस्सा जिला कानूनी सहायता समिति को दिया जाये।
दीवानी और आपराधिक सभी मुकदमों में ट्रायल न्यायाधीश को प्रतिमाह किये गये निर्णयों के बदले कुछ यूनिट उनकी नौकरी की फाइल में जोड़े जाते हैं। प्रत्येक न्यायाधीश के लिए प्रतिमाह कुछ न्यूनतम यूनिट एकत्र करना आवश्यक होता है। यदि एक न्यायाधीश को गुण-दोष के आधार पर घोषित एक निर्णय के लिए पांच यूनिट मिलते हैं तो समझौता प्रक्रिया के माध्यम से यथाशीघ्र निपटाये गये मुकदमों के बदले उसे सात या आठ यूनिट दिये जाने चाहिए। यदि केन्द्र और राज्य सरकारें इस छोटे से व्यवस्थात्मक बदलाव को लागू कर सकें तो देश के सभी न्यायाधीश गुण-दोष पर निर्णय करने में अनेक वर्ष बिताने के स्थान पर समझौता प्रक्रिया के माध्यम से मुकदमों को निपटाने में जुड़ जायेंगे। गुण-दोष पर आधारित निर्णय किसी एक पक्ष का समर्थन करता है तो दूसरे का विरोध। जिसके विरुद्ध निर्णय होता है वह व्यक्ति आगे-आगे बड़ी अदालतों में अपीले करता फिरता है। जबकि समझौता प्रक्रिया से निपटने पर दोनों पक्ष संतोष महसूस करते हैं। आगे की अपील अदालतों के सामने मुकदमों का बोझ भी कम हो जाता है।
यह सभी सुझाव केवल व्यवस्थागत सुधारों से सम्बन्धित हैं। मुझे आशा है कि केन्द्र सरकार का कानून मंत्रालय शीघ्र ही इन सुझावों पर कुछ ठोस कदम उठायेगा। केवल न्यायाधीशों की कम संख्या का बहाना बनाकर बढ़ती मुकदमेंबाजी से छुटकारा नहीं मिल सकता। अब इन सुझावों के आधार पर व्यवस्था को सुधारना अत्यन्त आवश्यक हो गया है।
अविनाश राय खन्ना, उपसभापति, भारतीय रेड क्रास सोसाईटी