सज़ा का उद्देश्य यह होता है कि अपराधी महसूस करे कि उसने अपराध किया है। पश्चाताप की आग उसे हमेशा के लिए पवित्र कर दे। परन्तु आज की जेल व्यवस्था सज़ा के इन दोनों उद्देश्यों को पूरा नहीं कर पाती। अपराधिक न्यायिक प्रक्रिया का ध्यान अपराधी को सज़ा देने पर नहीं अपितु पीड़ितों की पीड़ा समाप्त करने पर होना चाहिए।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की राज्य संचालन कला में न्याय की अवधारणा पूर्ण प्राकृतिक रूप तथा मानवतावादी दृष्टिकोण से भरपूर थी। वे अक्सर याचिकाकर्ता से यह जानने का प्रयास करते थे कि निर्णय के किस रूप से उसे पूर्ण संतोष प्राप्त होगा। उनकी न्यायिक अवधारणा दोषी को दण्डित करने में इतनी रुचि नहीं रखती थी अपितु उनके न्याय का मुख्य उद्देश्य पीड़ित की पीड़ा को समाप्त करना होता था। इसी कारण उनके राज्य को आज के युग में जब रामराज्य कहा जाता है तो उससे अभिप्राय पूर्ण न्याय, संतोष एवं वाद-विवाद से पूर्ण मुक्ति होता है।
आज के कानून निर्माताओं और कानून के पालक न्यायाधीशों, अधिवक्ताओं, पुलिस बल तथा समूचे शासन तन्त्र में रामराज्य की उस न्यायिक अवधारणा का लेशमात्र भी ज्ञान दिखाई नहीं देता। मैंने लगभग 25 वर्ष पूर्व एक अंग्रेजी उपन्यास पढ़ा था जिसकी कथा एक ऐसे व्यक्ति पर केन्द्रित थी जो अपराध पीड़ितों को मुआवज़े दिलाने के लिए अभियान चलाता है। मुआवज़ों के लिए एक तरफ वह सरकार तथा अदालतों से लड़ता है तो दूसरी तरफ अपराध पीड़ितों को इस बात के लिए भी प्रेरित करता है कि मुआवज़ा मिलने के उपरान्त वे अपराधी को क्षमा करने की भावना पैदा करे। इस प्रकार अपने अभियान में वह अपराधी तथा अपराध पीड़ित दो विपरीत धाराओं के कल्याण का कार्य करता चला जाता है।
1970 के दशक में भारतीय फिल्म उद्योग के एक निर्माता निर्देशक का ध्यान भी अपराध पीड़ित के साथ न्याय की अवधारणा पर गया। उन्होंने एक फिल्म ‘दुश्मन’ का निर्माण किया। इस फिल्म के प्रारम्भिक शब्दों के अनुसार व्यक्ति सदैव एक नई दुनिया की कल्पना करता रहा है और उसे साकार भी करता रहा है। इस फिल्म में नायक राजेश खन्ना ट्रक ड्राईवर की भूमिका में थे। शराब पीकर लापरवाही से ट्रक चलाते हुए एक गरीब किसान की मृत्यु हो गई। न्यायाधीश की भूमिका में श्री रहमान थे। उन्होंने ट्रायल के बाद राजेश खन्ना को दोषी ठहराया, परन्तु सज़ा के नाम पर वे एक गम्भीर चिन्तन में डूब गये कि इस अभियुक्त को कुछ वर्ष जेल की सज़ा देने से उस गरीब मृतक किसान की विधवा, उसके बच्चों और उसके माता-पिता के साथ किसी प्रकार की न्यायिक सहानुभूति नाममात्र की भी दिखाई नहीं देगी। न्यायाधीश का चिन्तन केवल इस उद्देश्य से प्रेरित हो रहा था कि न्याय व्यवस्था अपराध पीड़ित परिवार का क्या भला कर सकती है।
कानूनी प्रावधानों के दायरे में एक टेपरिकार्ड की तरह कार्य करते-करते न्यायाधीशों की बुद्धि में से मानवतावाद और सहानुभूति लगभग समाप्त ही हो जाती है। वे एक प्रकार से शब्दों के गुलाम मात्र बनकर रह जाते हैं। विडम्बना है कि हमारे देश में कानून निर्माता बहुतायत वे राजनीतिज्ञ हैं जिनके जीवन का मुख्य ध्येय धन और सत्ता के भोग के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। ये राजनीतिज्ञ न्याय और मानवतावाद को तो छूते भी नहीं। कानून वास्तव में एक अन्धी व्यवस्था है जो जज़्बात की परवाह नहीं करता। उसे हर निर्णय के लिए सबूत चाहिए। सबूत मिलने के बाद भी कानून के प्रावधान केवल सज़ा ही दे सकते हैं। परन्तु सज़ा का उद्देश्य क्या है? सज़ा का उद्देश्य यह होता है कि अपराधी महसूस करे कि उसने अपराध किया है। पश्चाताप की आग उसे हमेशा के लिए पवित्र कर दे। परन्तु आज की जेल व्यवस्था सज़ा के इन दोनों उद्देश्यों को पूरा नहीं कर पाती।
ऐसे समाज में इस फिल्म के न्यायाधीश ने वास्तव में एक नायक का कार्य किया। उन्होंने देखा कि प्रावधानों के अन्तर्गत मैं अपराधी को जेल दण्ड के अतिरिक्त कोई और दण्ड नहीं दे सकता। दूसरी तरफ जेल दण्ड से अपराध पीड़ित का कोई भला नहीं होने वाला है। इस विद्वान फिल्मी न्यायाधीश ने भारतीय समाज के लकीर पर लकीर पीटते न्यायाधीशों को एक नई दिशा देने का प्रयास किया। इस फिल्मी न्यायाधीश ने उच्च न्यायालय के समक्ष अपनी विचित्र योजना प्रस्तुत करते हुए कानूनी प्रावधानों से अलग मानवतावादी दण्ड व्यवस्था पर आधारित निर्णय देने की स्वीकृति प्राप्त करने के लिए निवेदन किया। उच्च न्यायालय के 5 न्यायाधीशों की पीठ ने ट्रायल न्यायाधीश के प्रस्ताव पर यह प्रश्न किया कि क्या भारतीय दण्ड संहिता गलत है। इसके उत्तर में ट्रायल न्यायाधीश ने स्पष्ट किया कि कानून की किताबें इन्सान ने लिखी है। इन्सान को दिन-प्रतिदिन नई मंजिलें और नये रास्ते तय करने पड़ते हैं। इसलिए कानून के शब्दों को जीवन का आखरी शब्द नहीं समझा जाना चाहिए। इस प्रकार उच्च न्यायालय ने इस न्यायाधीश की अलौकिक न्याय योजना को स्वीकृति प्रदान कर दी। इस प्रकार ‘दुश्मन’ फिल्म की एक विचित्र कहानी प्रारम्भ हुई जिसमें नायक राजेश खन्ना को दो वर्ष की सज़ा दी गई, परन्तु उसे यह सज़ा जेल में नहीं बितानी थी। क्योंकि जेल की सज़ा से अपराध पीड़ित व्यक्ति या परिवार की पीड़ा कम करने का उद्देश्य पूरा नहीं होता बल्कि जेल की सज़ा के बाद हर छोटा अपराधी एक बड़ा अपराधी बन जाता है। इसलिए इस फिल्मी न्यायाधीश के निर्णय के अनुसार उसे यह सज़ा अपराध पीड़ित उस गरीब मृतक के परिवार के साथ रहकर, उनकी खेती-बाड़ी का सारा कार्य करके, उन्हें भरण-पोषण की चिन्ता से मुक्त करते हुए बितानी थी। फिल्म में भारतीय फिल्मों की तरह प्रेम और लड़ाई-झगड़े आदि के सभी मसाले भी डाले गये, परन्तु इस फिल्म ने भारत के कानून निर्माताओं और कानून पालकों को एक नया संदेश दिया कि अपराधिक न्यायिक प्रक्रिया का ध्यान अपराधी को सज़ा देने पर नहीं अपितु पीड़ितों की पीड़ा समाप्त करने पर होना चाहिए।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा-357 में अपराध पीड़ित को मुआवज़ा देने का प्रावधान है। धारा-358 में ऐसे व्यक्तियों को भी मुआवज़ा देने का प्रावधान है जिन्हें पुलिस बिना किसी पर्याप्त आधार के गिरफ्तार करके मुकदमा चलाती है।
वर्ष 2008 में दण्ड प्रक्रिया संहिता के इन प्रावधानों में कुछ परिवर्तन करके सरकार ने अब अपराध पीड़ितों को मुआवज़े की व्यवस्था दुरुस्त करने का कुछ प्रयास प्रारम्भ किया, परन्तु क्रियान्वयन के नाम पर अभी भी भारतीय न्याय व्यवस्था के दृष्टिकोण में कोई बदलाव नहीं आया। धारा-357ए के प्रथम प्रावधान के अनुसार प्रत्येक राज्य सरकार का यह दायित्व है कि केन्द्र सरकार के साथ समन्वय करते हुए अपराध पीड़ितों तथा उनके आश्रित परिजनों की किसी अपराध के कारण हुई हानि आदि का मुआवज़ा देने के लिए एक विशेष वित्त कोष का प्रबन्ध करे। अदालत जब भी किसी मुकदमें की परिस्थितियों के दृष्टिगत अपराध पीड़ित परिवार को मुआवज़ा दिये जाने की सिफारिश करेगी तो उस जिले या राज्य की कानूनी सेवा समिति उस मुआवज़े की राशि का निर्धारण करेगी। धारा-357ए के अन्तर्गत अदालत उन परिस्थितियों में इस वित्त कोष से अपराध पीड़ितों को मुआवज़े की सिफारिश करेगी जब धारा-357 के अन्तर्गत अपराधी से वसूल की गई जुर्माना राशि से अपराध पीड़ित का पूरा कल्याण सम्भव न हो रहा हो। धारा-357ए के अन्तर्गत तो ऐसे अपराध पीड़ित व्यक्ति भी जिला या राज्य कानूनी सेवा समिति के समक्ष मुआवजे़ की प्रार्थना कर सकते हैं जिनके प्रति घटित अपराध की छानबीन में अपराधी पकड़ा ही न गया हो। कानूनी सेवा समिति का यह दायित्व है कि अदालत की सिफारिश पर या सीधे प्रार्थना पत्र के आधार पर दो महीने के अन्दर मुआवज़ा राशि का निर्धारण करे। इस प्रावधान के अन्तर्गत कानूनी सेवा समिति को तो यह विशेषाधिकार भी दिया गया है कि वे किसी अपराध पीड़ित को तत्काल परिस्थितियों के दृष्टिगत निःशुल्क चिकित्सा सुविधा या सहायता या अन्य कोई अन्तरिम सहायता प्रदान करे।
विडम्बना है कि धारा-357ए के इन महत्त्वपूर्ण प्रावधानों के बावजूद सम्भवतः किसी भी कानूनी सहायता समिति ने आज तक इन विशेष अधिकारों का कोई विशेष प्रयोग नहीं किया। इसका मूल कारण यह है कि राज्य सरकारों ने अपराध पीड़ितों को दिये जाने वाले मुआवज़े के लिए कोई वित्त कोष ही नहीं बनाये। राज्य सरकारें किस प्रकार यह कार्य करती क्योंकि केन्द्र सरकार ने उन्हें इस कार्य के लिए न तो कभी प्रेरित किया और न ही इस निमित्त कोई विशेष फण्ड जारी किये।
सर्वोच्च न्यायालय ने भी कई बार इस विषय पर चिन्ता जताई है कि हमारी न्याय व्यवस्था में इन नये प्रावधानों के बावजूद भी अपराध पीड़ितों को मुआवज़े की व्यवस्था लागू नहीं की जा रही। इसके लिए न्यायाधीश तथा सरकारें बराबर के दोषी हैं। दोनों ही तरफ संवेदनशीलता और मानवतावाद का अभाव नज़र आ रहा है।
विमल वधावन योगाचार्य