सरकारी कर्मचारियों से लेकर न्यायाधीशों और वकीलों तक को लगातार ऐसे प्रशिक्षण की आवश्यकता है जिससे वे न्याय की मूल अवधारणा को समझ सकें कि न्याय का असली ध्यान अन्याय करने वाले लोगों को सज़ा दिलाने के साथ-साथ अन्याय से पीड़ित व्यक्तियों को न्याय दिलाने पर भी लगातार बना रहना चाहिए। राज्यों के उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय को सभी सरकारों तथा भारत की न्यायव्यवस्था के नाम कड़े रिट् आदेश जारी करने चाहिए जिससे आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा-357ए का क्रियान्वयन सुनिश्चित कराने के लिए लक्ष्यबद्ध शुरूआत की जाये।
भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली प्राचीन काल में अपराध पीड़ितों पर केन्द्रित रहती थी। शाहजहाँ की पत्नी ने आखेट करते हुए राज्य के किसी नागरिक की हत्या कर दी। मृतक की पत्नी शाहजहाँ के दरबार में न्याय के लिए पहुँची। प्राचीन काल में राजा इस बात को समझते थे कि न्याय वही होता है जिससे पीड़ित को पूर्ण सन्तोष प्राप्त हो। राजा ने पीड़िता के तथ्य सुनने के बाद अपनी पत्नी को आरोपी मानते हुए यह निर्णय दिया कि जिस प्रकार इसने (राजा की पत्नी ने) तुम्हें विधवा कर दिया है, तुम भी इसे विधवा कर दो। इस निर्णय का सीधा अभिप्राय था कि न्याय की रक्षा के लिए और पीड़िता को संतुष्टि प्रदान करने के लिए राजा ने स्वयं को मृत्यु देने का अधिकार उस पीड़ित महिला के हाथ में दे दिया। यह बात अलग है कि उस पीड़ित महिला ने निर्णय स्वरूप मिले इस अधिकार का प्रयोग नहीं किया और मुआवज़े से संतोष कर लिया।
इसके विपरीत भारत में वर्तमान आपराधिक न्याय प्रणाली पीड़ित से अधिक अभियुक्त पर केन्द्रित है। अभियुक्त को पकड़ने से लेकर मुकदमा चलाने, सज़ा दिलाने और जेल की व्यवस्था तक करोड़ों, अरबों रुपये तक का खर्च कहीं भी अपराध पीड़ितों के लिए कोई सहारा उपलब्ध नहीं करवाता। इतना ही नहीं बल्कि आपराधिक न्याय प्रणाली के नाम पर यह विशाल बजट भ्रष्टाचार का भी मुख्य केन्द्र बना हुआ है। पुलिस, अदालतों और जेलों का भ्रष्टाचार किसी से भी छिपा नहीं।
दूसरी तरफ संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रस्ताव 40/34 अपराध पीड़ितों के साथ न्याय करने पर केन्द्रित है। अपराध पीड़ितों को न्याय प्रक्रिया में भागीदार बनाना, उनके साथ अच्छा व्यवहार, सामाजिक रूप से उन्हें पुनस्र्थापित करने तथा मुआवज़े के द्वारा पूर्ण सन्तुष्टि प्रदान करने जैसे विचार इस प्रस्ताव में व्यक्त किये गये हैं। सम्भवतः भारत में ही नहीं अपितु उन समस्त देशों में जहाँ भ्रष्टाचार बेकाबू है, आपराधिक न्याय प्रणाली केवल अभियुक्त पर ही केन्द्रित नजर आती है। इसका कारण स्वाभाविक है। अभियुक्त के माध्यम से ही भ्रष्टाचार को पनपने का मार्ग मिलता है। इसीलिए संयुक्त राष्ट्र संघ को अभियुक्त पीड़ितों के समर्थन में विधिवत प्रस्ताव पारित करके विश्व के सभी देशों को यह संदेश देना पड़ा कि अपराध पीड़ितों को वास्तविक न्याय प्रदान करने के लिए मुआवज़ा प्रणाली का विकास किया जाये। भारतीय संसद ने वर्ष 2008 में आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा-357 के साथ एक नया प्रावधान 357ए जोड़कर एक मजबूत मुआवज़ा प्रणाली को लागू कर दिया है।
इस नये कानून के अनुसार भारत का प्रत्येक राज्य केन्द्र सरकार के साथ समन्वय करके अपराध पीड़ितों को मुआवज़ा देने के लिए एक विशेष कोष की योजना बनायेगा। आपराधिक अदालतें प्रत्येक मुकदमें अपराध पीड़ितों को मुआवज़ा देने के लिए जिला कानूनी सहायता अथाॅर्टी को सिफारिश करेंगी। इस सिफारिश के आधार पर जिला कानूनी सहायता कार्यालय मुआवज़े की राशि का निर्धारण करेगा। यहाँ तक कि जब किसी मुकदमें में अभियुक्त को अपराध मुक्त घोषित कर दिया जाये, ऐसे मामलों में भी मुआवज़े की सिफारिश भी की जा सकती है। इतना ही नहीं जब अपराध की घटना होने के बाद अपराधी पकड़ा ही न जाये और कोई मुकदमा भी न चले तब भी अपराध पीड़ित परिवार सीधा ही जिला कानूनी सहायता कार्यालय में मुआवज़ा दिये जाने की याचिका प्रस्तुत कर सकते हैं। जिला कानूनी सहायता कार्यालय आपराधिक अदालतों की सिफारिशों पर या सीधे प्राप्त मुआवज़ा याचिकाओं पर छानबीन करके दो माह में मुआवज़े का आदेश करेंगी। जिला कानूनी सहायता कार्यालय अपराध पीड़ितों की सहायता के लिए कई प्रकार के अन्तरिम आदेश भी कर सकता है जैसे – पीड़ितों को प्राथमिक चिकित्सा या अन्य सुविधाएँ उपलब्ध कराना। यह अन्तरिम आदेश स्थानीय पुलिस स्टेशन के एस.एच.ओ. के नाम जारी होगा।
आन्ध प्रदेश, तेलंगाना, मध्य प्रदेश, मेघालय, नागालैण्ड, पंजाब, तमिलनाडू, अण्डमान तथा दिल्ली की सरकारों के अतिरिक्त देश के अन्य सभी राज्यों द्वारा धारा-357ए के अन्तर्गत अपराध पीड़ितों को मुआवजा देने के लिए केन्द्र सरकार के समन्वय से अपने-अपने कोष स्थापित करने की योजनाएँ हमें प्राप्त हो चुकी हैं। इन योजनाओं में अपराध पीड़ितों के लिए अलग-अलग राशि के मुआवजे की सूची घोषित की गई है। अपराध पीड़ितों को मुख्यतः जिन श्रेणियों में बांटा गया है वे हैं – मृत्यु, बलात्कार, एसिड हमला, शरीर का कोई अंग खोना, अपंगता, मानसिक वेदना, बच्चों के विरुद्ध अपराध आदि। इन योजनाओं में सबसे बड़ी कमी यह है कि सभी राज्यों द्वारा केन्द्र सरकार से समन्वय करके इस योजना की घोषणा करने के बावजूद मुआवजों की राशि में भारी भिन्नता पाई गई है जैसे – बिहार और छत्तीसगढ़ में मृत्यु होने पर 1 लाख रुपये तथा बलात्कार होने पर 25 हजार रुपये की राशि निर्धारित की गई है।
अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, नागालैण्ड और गोवा में मृत्यु होने पर 2 लाख रुपये तथा बलात्कार होने पर 50 हजार रुपये की राशि निर्धारित की गई है। आसाम में मृत्यु होने पर 2 लाख रुपये तथा बलात्कार होने पर 75 हजार रुपये की राशि निर्धारित की गई है। गुजरात में मृत्यु होने पर 1.5 लाख रुपये तथा बलात्कार होने पर 1 लाख रुपये की राशि निर्धारित की गई है। हरियाणा में मृत्यु होने पर 3 लाख रुपये तथा बलात्कार होने पर 3 लाख रुपये की राशि निर्धारित की गई है। हिमाचल प्रदेश, त्रिपुरा, मिजोरम और जम्मू कश्मीर में मृत्यु होने पर 1 लाख रुपये तथा बलात्कार होने पर 50 हजार रुपये की राशि निर्धारित की गई है। झारखण्ड, पश्चिम बंगाल में मृत्यु होने पर 2 लाख रुपये तथा बलात्कार होने पर 20 हजार रुपये की राशि निर्धारित की गई है। कर्नाटक में मृत्यु होने पर 3 लाख रुपये तथा बलात्कार होने पर 1.5 लाख रुपये की राशि निर्धारित की गई है। केरल, चण्डीगढ़, दादर नागर हवेली, दमनद्वीव, लक्षद्वीप में मृत्यु होने पर 5 लाख रुपये तथा बलात्कार होने पर 3 लाख रुपये की राशि निर्धारित की गई है। महाराष्ट्र में मृत्यु होने पर 2 लाख रुपये की राशि निर्धारित की गई है। मणिपुर में मृत्यु होने पर 1 लाख रुपये तथा बलात्कार होने पर 20 लाख रुपये की राशि निर्धारित की गई है। उड़ीसा में मृत्यु होने पर 1.5 लाख रुपये तथा बलात्कार होने पर 25 हजार रुपये की राशि निर्धारित की गई है। राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, में मृत्यु होने पर 2 लाख रुपये तथा बलात्कार होने पर 2 लाख रुपये की राशि निर्धारित की गई है।
राज्य स्तरों पर घोषित इन अपराध पीड़ित मुआवजा योजनाओं में इतनी व्यापक भिन्नता को किस दृष्टि से भारतीय संविधान में प्रदत्त समानता के मूल अधिकार की अनुपालना कहा जा सकता है। भारत का एक नागरिक यदि केरल जैसे में कत्ल किया जाता है तो उसके परिजनों के लिए 5 लाख का मुआवज़ा और यदि उसी नागरिक का कत्ल हिमाचल प्रदेश जैसे राज्य में हो तो उसकी मृत्यु का मुआवज़ा एक लाख। इन परिस्थितियों में यह मुआवज़ा व्यवस्था स्वयं अन्याय से परिपूर्ण लगती है।
परन्तु फिर भी आज तक भारतीय मानचित्र पर इस प्रणाली के लागू होने के दृष्टाान्त शायद यदा-कदा ही देखने-सुनने को मिले हों। इसमें सबसे बड़ी बाधा ईमानदारी पूर्वक सरकारी कोष जुटाने से सम्बन्धित ही है। जहाँ एक तरफ सरकारें आपराधिक न्याय प्रणाली के नाम पर पुलिस, जेलों और अदालतों की व्यवस्था जुटाने में करोड़ों, अरबों रुपये का कोष जुटाती हैं वहीं दूसरी तरफ अपराध पीड़ितों के लिए कोष जुटाना सरकारों के लिए एक दुष्कर कार्य लग रहा होगा क्योंकि इस कार्य में भ्रष्टाचार की सम्भावना कम है। इस मुआवज़ा प्रणाली को लागू न कर पाने के पीछे दूसरा कारण यह भी हो सकता हो कि भारत में अदालतें अपने रोजमर्रा के कामों को ही समय पर नहीं निपटा पाती तो उनके लिए यह नया बोझ किस प्रकार से स्वीकार्य हो। इसलिए भारत की हर समस्या का इलाज एक ही है – नैतिक उत्थान का अभियान। सरकारी कर्मचारियों से लेकर न्यायाधीशों और वकीलों तक को लगातार ऐसे प्रशिक्षण की आवश्यकता है जिससे वे न्याय की मूल अवधारणा को समझ सकें कि न्याय का असली ध्यान अन्याय करने वाले लोगों को सज़ा दिलाने के साथ-साथ अन्याय से पीड़ित व्यक्तियों को न्याय दिलाने पर भी लगातार बना रहना चाहिए। राज्यों के उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय को सभी सरकारों तथा भारत की न्यायव्यवस्था के नाम कड़े रिट् आदेश जारी करने चाहिए जिससे आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा-357ए का क्रियान्वयन सुनिश्चित कराने के लिए लक्ष्यबद्ध शुरूआत की जाये।
-विमल वधावन