’’ उत्तराखंड हाईकोर्ट ने अपनी एकल पीठ द्वारा पारित एक आदेश को रद्द कर दिया है। इस आदेश में एकल पीठ ने उस प्रावधान को असंवैधानिक करार दिया था, जिसके तहत महिला सरकारी कर्मचारियों को दो या अधिक जीवित बच्चे होने के बाद मातृत्व अवकाश से वंचित कर दिया जाता है।
कानून रिव्यू/उत्तराखंड
यूपी मौलिक नियमों के नियम 153 के द्वितीय परंतुक में कहा गया है कि “यदि किसी महिला सरकारी कर्मचारी के दो या अधिक जीवित बच्चे हैं तो भी उसे मातृत्व अवकाश नहीं दिया जाएगा। हालांकि ऐसी छुट्टी अन्य किसी वजह से उसके लिए स्वीकार्य हो सकती हैं। यदि किसी महिला सरकारी कर्मचारी के दो जीवित बच्चों में से कोई एक लाइलाज बीमारी से ग्रस्त है या जन्म से ही विकलांग है या अपंग है या बाद में विकलांग या अपंग हो जाता है, तो वह अपवाद के रूप में एक और बच्चे के पैदा होने पर मातृत्व अवकाश प्राप्त कर सकती है, लेकिन इस मामले में भी यह नियम लागू होगा कि उसे पूरी सेवा के दौरान मातृत्व अवकाश तीन बार से अधिक नहीं दिया जाएगा।’’ उत्तराखंड हाईकोर्ट ने अपनी एकल पीठ द्वारा पारित एक आदेश को रद्द कर दिया है। इस आदेश में एकल पीठ ने उस प्रावधान को असंवैधानिक करार दिया था, जिसके तहत महिला सरकारी कर्मचारियों को दो या अधिक जीवित बच्चे होने के बाद मातृत्व अवकाश से वंचित कर दिया जाता है। हाईकोर्ट की एकल पीठ ने इस नियम को संविधान के अनुच्छेद 42 के तहत अधिकारातीत अर्थात शक्ति से बाहर कहा था। इसके साथ ही इस नियम को मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 की धारा 27 के रूप में भी असंगत घोषित किया गया था, जिसके बाद एकल पीठ ने प्रतिवादी उर्मिला मसीह को मातृत्व अवकाश प्रदान कर दिया था। राज्य ने आदेश के खिलाफ की विशेष अपील इस आदेश के दूरगामी प्रभाव को देखते हुए राज्य द्वारा विशेष अपील दायर की गई थी। राज्य की तरफ से पेश वकील परेश त्रिपाठी द्वारा दी गई दलीलों से सहमति जताते हुए मुख्य न्यायाधीश रमेश रंगनाथन और न्यायमूर्ति आलोक कुमार वर्मा की खंडपीठ ने एकल न्यायाधीश के निष्कर्षों को पलट दिया। यह माना गया कि स्पष्ट रूप से एमबी एक्ट सरकारी कर्मचारियों के लिए लागू नहीं हो रहा था और एमबी एक्ट की धारा 27 पर इस तरह की निर्भरता गलत थी। एमबी अधिनियम की धारा 2 के तहत सरकारी कर्मचारियों को इसके दायरे से बाहर रखा गया है, क्योंकि इसमें केवल सरकारी कारखानों, खानों और बागानों में काम करने वाले व्यक्ति शामिल हैं। पीठ ने स्पष्ट किया, ’सरकारी कर्मचारी… इसलिए अधिनियम 1961की धारा 2 (1) (ए) के दायरे में नहीं आएंगे, क्योंकि अधिनियम स्वयं सरकारी कर्मचारियों पर लागू नहीं होता है। चूंकि अधिनियम 1961, स्वयं, सरकारी कर्मचारियों के लिए अनुपयुक्त है, इसलिए एफआर 153 के द्वितीय परंतुक का अधिनियम 1961 के प्रावधानों के साथ असंगत होने का सवाल ही नहीं उठता है। ऐसे में अधिनियम 1961 की धारा 27 के आधार पर यह नहीं माना जा सकता है कि एफआर 153 के द्वितीय परंतुक अधिनियम 1961 के प्रावधानों के अधिकारातीत अर्थात शक्ति से बाहर हैं।’’ प्रतिवादी ने अधिवक्ता सनप्रीत सिंह अजमानी के माध्यम से तर्क दिया कि भले ही अनुच्छेद 42 ऐसे मामलों में लागू न हो तो भी प्रावधान की भावना को शासन के मामलों में सरकार द्वारा ध्यान में रखा जाना चाहिए। इसके लिए वकील ने पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के ’रुखसाना बनाम हरियाणा राज्य व अन्य, 2011 एससीसी ऑनलाइन पी एंड एच 4666’ मामले का हवाला दिया। अनुच्छेद 42 के तहत राज्य सरकार को मातृत्व राहत और मानवीय स्थितियों को सुरक्षित करने के लिए उचित प्रावधान करने की आवश्यकता है। इन सब दलीलों से असहमति जताते हुए कोर्ट ने कहा कि ’वलियामा चंपक पिल्लई बनाम सिवथानु पिल्लई, (1979) 4 एससीसी 429’ और अन्य विभिन्न मामलों के मद्देनजर, यह कहा गया था कि ’’अन्य हाईकोर्ट के निर्णयों के अनुपात को एक मिसाल के तौर पर पेश नहीं किया जा सकता और न ही उन फैसलों के अनुपात को स्टेयर डिकिसिस के सिद्धांत के आधार पर निरंतर रूप से बनाए रखा जा सकता है।’’ ’’उत्तराखंड राज्य ने कोई भी ऐसा कानून नहीं बनाया है, जिसके तहत किसी सरकारी कर्मचारी को तीसरा बच्चा होने की स्थिति में मातृत्व अवकाश दिया जा सके। हालांकि भारत के संविधान के अनुच्छेद 42 में दिए गए नीति निर्देशक तत्व, शासन के मूलभूत सिद्धांतों में शामिल हैं, फिर भी नीति निर्देशक तत्व किसी कोर्ट के समक्ष लागू नहीं किए जा सकते। अतः ऐसे में एफआर 153 के द्वितीय परंतुक को खारिज करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 42 पर निर्भरता पूरी तरह से अन्यायपूर्ण है।“ पीठ ने कहा कि “अतः हमारा मानना है कि एकल न्यायाधीश ने एफआर 153 के लिए दूसरे परंतुक को इस आधार पर खारिज करके कि यह मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 के प्रावधानों के साथ असंगत है और भारत के संविधान के अनुच्छेद 42 की भावना के विपरीत है, गलत किया है।’’