-विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट
पति-पत्नी दो प्राणी ही नहीं अपितु दो परिवारों के प्रतिनिधि बनकर केवल दो जीवन ही खराब नहीं करते अपितु अनेकों लोगों के मनोवैज्ञानिक असंतुलन का कारण बन जाते हैं। इस प्रकार वैवाहिक विवाद अनेकों विवादों का जनक बन जाता है।
पति-पत्नी में जब वैवाहिक सम्बन्ध खराब होते हैं तो उनके साथ पत्नी के भरण-पोषण खर्च को लेकर एक नया विवाद आवश्यक रूप से जुड़ जाता है। पत्नी का त्याग करने के साथ परिस्थितियाँ और अधिक गम्भीर हो जाती हैं जब पत्नी बच्चों को भी पति के सहारे के बिना पालने के लिए मजबूर हो जाती है। पत्नी और बच्चों को जहाँ एक तरफ मनोवैज्ञानिक असंतुलन झेलना पड़ता है वहीं अपने सामान्य रहन-सहन, खान-पान और यहाँ तक कि पढ़ाई आदि को बनाये रखने का भी संकट पैदा हो जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि पति-पत्नी के बीच उपजे पहले विवाद को प्रेम और सहानुभूति के साथ ही निपटा दिया जाये तो अच्छा है, अन्यथा एक विवाद के बाद दूसरा विवाद और दूसरे के बाद तीसरा, यह श्रृंखला लगातार बढ़ती चली जाती है। पति-पत्नी दो प्राणी ही नहीं अपितु दो परिवारों के प्रतिनिधि बनकर केवल दो जीवन ही खराब नहीं करते अपितु अनेकों लोगों के मनोवैज्ञानिक असंतुलन का कारण बन जाते हैं। इस प्रकार वैवाहिक विवाद अनेकों विवादों का जनक बन जाता है।
वर्ष 1995 में हुए विवाह के बाद कल्याण और रीटा को अगले वर्ष एक पुत्र रत्न प्राप्त हुआ जो आज काॅलेज की शिक्षा के स्तर पर पहुँच चुका है। पति-पत्नी में विवाद का मुख्य कारण पत्नी की यह जिद्द थी कि पति भी उसके साथ उसके पिता के घर पर रहे। पत्नी बच्चे के जन्म से ही अपने पिता के घर रह रही थी। वर्ष 1997 में पति ने पत्नी के विरुद्ध वैवाहिक सम्बन्धों को बनाये रखने के लिए ससुराल लौटने से सम्बन्धित मुकदमा किया। पत्नी को जब इस मुकदमें की सूचना मिली तो अगले वर्ष 1998 में उसने पति तथा उसके माता-पिता के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा-498ए तथा 406 के अन्तर्गत पुलिस स्टेशन में एफ.आई.आर. दर्ज करवा दी। इस मुकदमें में तीनों आरोपियों को आसानी से जमानत मिल गई। इसके बाद पत्नी ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा-125 के अन्तर्गत अपने तथा अपने बेटे के लिए भरण-पोषण खर्च के लिए मुकदमा प्रस्तुत कर दिया।
वर्ष 2000 में अतिरिक्त जिला न्यायाधीश ने पति की प्रथम याचिका पर पति के पक्ष में दिये आदेश के द्वारा पत्नी को अपने पति के साथ रहने का निर्देश दिया। परन्तु पत्नी ने फिर भी वैवाहिक सम्बन्ध को बचाये रखने के लिए कोई प्रयास नहीं किया अपितु कलकत्ता उच्च न्यायालय के समक्ष इस आदेश के विरुद्ध अपील कर दी। उच्च न्यायालय ने भी पत्नी को अपने ससुराल में रहने के लिए कहा, परन्तु जब पत्नी ने इस निर्देश को नहीं माना तो उच्च न्यायालय ने वर्ष 2003 में पत्नी की अपील को स्वीकार कर लिया। इसका अर्थ यह था कि पत्नी का अपने ससुराल में न रहना उच्च न्यायालय के द्वारा उचित ठहराया गया।
वर्ष 2003 में ही पत्नी ने जिला अदालत के समक्ष पति द्वारा पत्नी का त्याग करने का मुकदमा प्रस्तुत किया। इस मुकदमें के चलते अदालत परिसर में पति के साथ कुछ लोगों ने मारपीट भी की। अन्ततः वर्ष 2006 में अदालत ने इस तलाक याचिका को स्वीकार कर लिया और पत्नी तथा बच्चे के लिए क्रमशः 2500 रुपये तथा 2000 रुपये अर्थात् कुल 4500 रुपये भरण-पोषण खर्च का आदेश दिया।
इस बीच दण्ड प्रक्रिया संहिता की धाराओं के अन्तर्गत पति तथा उसके माता-पिता को वर्ष 2006 में पूरी तरह आरोपमुक्त घोषित कर दिया गया। इस आदेश के विरुद्ध पत्नी ने कलकत्ता उच्च न्यायालय में अपील प्रस्तुत की। वर्ष 2011 में यह अपील भी रद्द हो गई। यह मुकदमेंबाजी का पांचवाँ राऊँड था।
अब छठे मुकदमें के रूप में पति ने वर्ष 2007 में जिला अदालत के समक्ष तलाक याचिका प्रस्तुत की। इस तलाक याचिका में भरण-पोषण खर्च की राशि बढ़ाकर 8 हजार रुपये प्रति माह कर दी गई। वर्ष 2010 में पत्नी ने पुनः इसी तलाक मुकदमें में भरण-पोषण खर्च राशि को 16 हजार रुपये करने की माँग की परन्तु वर्ष 2012 में यह राशि 12 हजार कर दी गई।
इस आदेश के विरुद्ध अब आठवें मुकदमें के रूप में पत्नी ने कलकत्ता उच्च न्यायालय के समक्ष अपील प्रस्तुत करते हुए राशि बढ़ाने की माँग की और तब तक एक नया तथ्य अदालत के समक्ष प्रस्तुत किया गया कि वर्ष 2010 में पति-पत्नी का तलाक अदालत द्वारा घोषित हो चुका है। पति ने दूसरा विवाह कर लिया है जिसमें से उसका एक पुत्र भी है। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने वर्ष 2015 में इस अपील पर भरण-पोषण राशि बढ़ाकर 16 हजार रुपये कर दी।
मुकदमेंबाजी का 9वाँ राउंड सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपील के रूप में सामने आया जिसे वर्ष 2015 में ही सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहते हुए रद्द कर दिया कि भरण-पोषण राशि बढ़वाने के लिए उच्च न्यायालय के समक्ष ही पुनर्विचार याचिका प्रस्तुत की जा सकती है। इस प्रकार कलकत्ता उच्च न्यायालय के समक्ष पुनः 10वें राउंड की याचिका प्रस्तुत हुई जिसमें उच्च न्यायालय ने वर्ष 2016 में भरण-पोषण खर्च बढ़ाकर 23 हजार रुपये कर दिया।
अब 11वें राउंड की शुरुआत पति ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक और विशेष अनुमति याचिका दाखिल करने के साथ की। अब तक के इस अन्तिम राउंड में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत तथ्यों में यह स्थापित हुआ कि पति का मासिक वेतन 87,500 रुपये है। दूसरी तरफ पत्नी महिला सौन्दर्यकरण की विशेषज्ञ है और बच्चों के विद्यालय में अध्यापन का भी कार्य करती हैं। उसकी मासिक आय 30 हजार रुपये है। पुत्र भी 18 वर्ष से अधिक आयु का हो चुका है। अतः 23 हजार रुपये का भरण-पोषण खर्च बहुत अधिक है जिसे 16 हजार के स्तर पर ही रखा जाये।
सर्वोच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति श्रीमती आर. भानुमति तथा मोहन शान्तनागुदार की पीठ ने इस सारे विवाद को एक सिद्धान्त के रूप में सुनने के बाद अपने आदेश में कहा कि भरण-पोषण खर्च का आदेश करते समय अदालतों को दोनों पक्षों की परिस्थितियों में बदलाव को ध्यान में रखना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय 1970 के डाॅ. कुलभूषण कुमार नामक निर्णय में भी यह घोषित कर चुका है कि पति के वास्तविक वेतन का 25 प्रतिशत अंश ही भरण-पोषण के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। परन्तु पति का दूसरा विवाह हो चुका है और उसका एक बच्चा भी है। अतः इन परिस्थितियों में अदालत ने भरण-पोषण राशि 20 हजार रुपये प्रतिमाह निर्धारित की।
इस मुकदमेंबाजी के 11 राउंड यह सिद्ध करते हैं कि अक्सर प्रत्येक वैवाहिक विवाद में दोनों पक्षों को इसी प्रकार की तनावग्रस्त मुकदमेंबाजी का सामना करना पड़ता है। कहीं थोड़ा कम तो कहीं थोड़ा अधिक। कानूनी प्रक्रिया से अधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्न व्यक्ति के मनोविज्ञान और जीवन की सुख-शांति से सम्बन्धित है।
पति और पत्नी विवाद के प्रथम स्तर पर अपने-अपने अहंकार को कम कर लें और अपनी-अपनी गल्तियों को स्वीकार करते हुए पुनः उन विवादों को पैदा न होने दें तो क्या ऐसा करना इस सारी कानूनी प्रक्रिया से अधिक लाभदायक नहीं होगा?
पति-पत्नी के बीच विवादों को प्रथम स्तर पर ही समाप्त करने के लिए दोनों के माता-पिता, रिश्तेदार, मित्र तथा समाज के अन्य लोग क्यों बेबस हो जाते हैं?
क्या पति-पत्नी का जीवन जंगल के जीव-जन्तुओं की तरह है, जहाँ परिवार और समाज का कोई अंकुश या प्रभाव तक भी नहीं होता?
वैवाहिक विवादों को न्यायिक प्रक्रिया में प्रस्तुत करते ही क्या न्यायाधीशों और सरकारों को समझौता प्रक्रिया के सहारे हर प्रकार के विवादों को सुलझाने का प्रयास नहीं करना चाहिए?
यदि कुछ राज्यों में समझौता प्रक्रिया चल भी रही है तो वह इतने नीरस और मनोविज्ञान को न समझने वाले लोगों के हाथ क्यों पकड़ा दी गई है कि वे हर मुकदमेंबाजी में पक्षकारों को प्रेम, सहानुभूति, एक दूसरे के प्रति त्याग और कल्याण की भावनाओं को पैदा करने में सफल क्यों नहीं हो पाते?
समाज दिन-प्रतिदिन विवादों की ओर जा रहा है। अदालतों में प्रतिवर्ष जितने मुकदमों का निर्णय होता है उससे अधिक संख्या में नये मुकदमें प्रस्तुत हो जाते हैं। ऐसी परिस्थितियों में न्याय व्यवस्था और सरकारें कितना ही जोर लगा लें कभी भी लम्बित मुकदमों की संख्या को कम नहीं कर पायेंगे। इस सारी कलियुगी विवाद अर्थात् युद्ध के समान परिस्थितियों से बचने का एक ही तरीका है कि समाज में नैतिकता के सिद्धान्तों के आधार पर विवादों को पैदा होते ही समाप्त करने की कलाएँ विकसित की जायें।