दिल्ली उच्च न्यायालय की खण्डपीठ ने एक बार फिर यह सिद्ध कर दिया है कि कानून, अदालतें और न्यायाधीशों के निर्णय सब तकनीकी प्रक्रियाओं और औपचारिक गवाहों तथा प्रमाणों के गुलाम हैं।
दिल्ली के धर्मपाल की बेटी शशि का विवाह सुभाष के साथ 12 दिसम्बर, 2002 को सम्पन्न हुआ। ससुराल में सुभाष के साथ उसकी माँ सुदेश भी रहती थी। सुभाष की एक विवाहित बहन सुनीता थी। विवाह के समय तो दहेज आदि की कोई माँग नहीं की गई परन्तु विवाह के बाद शशि के ससुराल पक्ष ने तरह-तरह की माँगे प्रारम्भ कर दी। इन माँगों को पूरा न करने पर कई बार शशि को पीटा भी गया। एक वर्ष बाद ही इस आशय की एक शिकायत पुलिस की महिला शाखा के समक्ष भी प्रस्तुत की गई जिसे 8 अगस्त, 2003 को दोनों पक्षों में हुए समझौते के आधार पर वापिस ले लिया गया। 27 अगस्त, 2003 को शशि ने एक बच्ची को जन्म दिया। समय कुछ और आगे बढ़ा तो 16 जून, 2004 को शशि अपनी बेटी को लेकर अपने मायके आई। उसने अपने ससुराल के सदस्यों द्वारा दी गई यातनाओं और पिटाई की कथा सुनाई। अगले दिन 17 जून को सुभाष अपनी माँ तथा बहन को लेकर शशि के मायके पहुँच गया। इन लोगों ने तलाश की बात कही। कुछ देर कहा-सुनी के बाद सुभाष, उसकी माँ तथा बहन शशि की बच्ची को लेकर चल दिये। शशि भी उनके पीछे चल दी।
दूसरी तरफ 18 जून, 2004 को पुलिस सब-इंसपेक्टर दयाकिशन को हैदरपुर नहर के अन्दर एक लाश दिखाई दी। पुलिस ने उस लाश का पोस्ट-मार्टम करवाया जिसमें फाँसी के कारण श्वास रूक जाना मृत्यु का कारण बताया गया। चिकित्सकों ने एक से अधिक व्यक्ति के इस हत्या में शामिल होने की सम्भावना से भी इन्कार नहीं किया।
उधर 26 जून, 2004 को सुभाष फिर अपनी माँ और बहन को लेकर शशि के मायके पहुँच गया और शशि के बारे में पूछताछ करने लगा। जब शशि के पिता धर्मपाल ने कहा कि वह तो 17 जून को तुम्हारे साथ ही गई थी तो इस पर पहले तो वे इन्कार करने लगे और फिर स्वतः ही यह भी कहने लगे कि हमने उसे मारकर हैदरपुर नहर में फेंक दिया है। अगले दिन 27 जून को सुभाष अपनी माँ और बहन को लेकर फिर धर्मपाल के घर आया। दोनों ने रोहिणी सैक्टर-16 की पुलिस चैकी में जाकर शशि की गुमशुदा रिपोर्ट लिखवाई। लम्बी छानबीन के बाद 11 जुलाई, 2004 को सब-इंसपेक्टर दयाकिशन ने शशि के पिता धर्मपाल को थाने बुलाया और उन्हें 18 जून को मिली लाश के कपड़े दिखाये जिसे धर्मपाल ने शशि के कपड़ों के रूप में पहचान लिया। इस पर एस. डी. एम. ने छानबीन करके अपनी रिपोर्ट दी तो 29 अप्रैल, 2005 को सुभाष, उसकी माँ सुदेश तथा बहन सुनीता के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा-498ए, 304बी तथा 302 के अन्तर्गत मुकदमा दर्ज किया गया।
इस मुकदमे का निर्णय देते हुए ट्रायल अदालत ने तीनों अभियुक्तों को आरोपमुक्त कर दिया क्योंकि गवाहों के वक्तव्य में कई प्रकार के विरोधाभाष थे। मृत्यु के लगभग 9 महीने बाद एफ. आई. आर. दर्ज की गई थी। मृतका के पिता ने पति सुभाष के साथ जाकर मृतका की गुमशुदा रिपोर्ट लिखवाई थी। शशि और सुभाष के विवाह के समय शशि के पिता धर्मपाल तथा भाई दोनों बेरोजगार थे। विवाह में दहेज आदि की माँग तो दूर केवल 20-25 लोगों की बारात लाकर विवाह किया गया था। विवाह के एक वर्ष बाद पुलिस की महिला शाखा में शिकायत भी शशि ने नहीं की थी, बल्कि वह शिकायत उसके पिता के कहने पर की गई थी। 17 जून से शशि अपने पिता के घर से चली गई थी तो उसके पिता या भाई ने कभी उसकी खोज करने की कोशिश नहीं की और न ही पुलिस में कोई गुमशुदा रिपोर्ट लिखवाई। इन सब कमियों के आधार पर ट्रायल अदालत ने केवल कानून के तकनीकी दृष्टिकोण के साथ तीनों अभियुक्तों को आरोपमुक्त कर दिया।
दिल्ली राज्य पुलिस की तरफ से दिल्ली उच्च न्यायालय में अपील प्रस्तुत की गई। न्यायमूर्ति श्री जी. एस. सिसतानी तथा न्यायमूर्ति श्रीमती संगीता ढींगरा सहगल की खण्डपीठ ने इस अपील की सुनवाई की। अपील कोर्ट ने भी कानून के तकनीकी दृष्टिकोण को ही न्याय व्यवस्था का एक मात्र हथियार बनाते हुए इस अपील को रद्द कर दिया। खण्डपीठ ने अपने निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय के एक पूर्व निर्णय का संदर्भ प्रस्तुत किया जिसमें कहा गया था कि यदि ट्रायल अदालत किसी को आरोपमुक्त करती है तो अपील अदालत ऐसे निर्णयों को तभी उलट सकती है जब ऐसा करने के विशेष और प्रभावशाली कारण हों। इन कारणों को सूचीबद्ध करते हुए कहा गया कि – (1) जब ट्रायल अदालत ने तथ्यों को प्रथम दृष्टया गलत तरीके से समझा हो। (2) जब ट्रायल अदालत ने कानून की किसी गलत व्याख्या का सहारा लिया हो। (3) जब निर्णय के कारण बहुत अन्याय की सम्भावना बन रही हो। (4) जब ट्रायल अदालत की सारी कार्यवाही स्पष्टतः गैर-कानूनी दिखाई दे रही हो। (5) जब ट्रायल अदालत का निर्णय देखने में अन्यायपूर्ण और निराधार लग रहा हो। (6) जब ट्रायल अदालत ने किसी गवाही को अनदेखा कर दिया हो या किसी गवाही का गलत अर्थ निकाला हो।
सर्वोच्च न्यायालय के ऐसे निर्देशों को आधार बनाकर दिल्ली उच्च न्यायालय की खण्डपीठ ने एक बार फिर यह सिद्ध कर दिया है कि कानून, अदालतें और न्यायाधीशों के निर्णय सब तकनीकी प्रक्रियाओं और औपचारिक गवाहों तथा प्रमाणों के गुलाम हैं। इस प्रकरण में किसी न्यायाधीश को यह नजर नहीं आयेगा कि एक युवा लड़की ससुराल की प्रताड़नाओं से पीड़ित थी। अदालत को यह भी नजर नहीं आयेगा कि जब शशि के ससुराल वाले 17 जून को उसकी बच्ची को लेकर जाने लगे तो वह उनके साथ ही गई थी। जरूरी नहीं है कि हर हत्या का प्रमाण अदालत के सामने परोसा जाये। बेशक अभियुक्तों के साथ न्याय की दृष्टि से यह मान भी लिया जाये कि उन्होंने शशि की हत्या नहीं की। बेशक यह मान लिया जाये कि शशि ने स्वयं आत्महत्या की है परन्तु इस सारे प्रकरण की सारी घटनाओं का सामूहिक निचोड़ यह तो सरलता से समझ में आता है कि शशि को किसी न किसी बात पर ससुराल पक्ष द्वारा विवाह के बाद लगातार दो वर्ष तक प्रताड़ित किया जाता रहा है जिसके कारण उसे आत्महत्या के लिए मजबूर किया गया। हत्या का नहीं तो आत्महत्या के लिए मजबूर करने का आरोप तो सिद्ध हो ही सकता था। परन्तु दुर्भाग्य………।
-विमल वधावन