मौहम्मद इल्यास-’’दनकौरी’’/कानून रिव्यू
नई दिल्ली
लोकसभा चुनाव 2019 के लिए प्रथम चरण नामांकन की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। ऐसे में हर व्यक्ति के सामने सवाल होगा कि आखिर किस प्रत्याशी को चुने और यदि सभी प्रत्याशी ठीक नही है अर्थात मतदाता बोर होने जैसी स्थिति में है तो घबराने की कोई बात नही है चुनाव आयोग ने पहले ही प्रावधान किया है कि ऐसे समय मतदाता नोटा का प्रयोग कर सकते हैं। मतदाता नोटा का बटन दबाते हैं और फिर मतगणना के समय यह पता चल जाता है कि आखिर कितने लोग निर्वाचन क्षेत्र के सभी प्रत्याशियों को नकार रहे हैं। अब बात चली है नोटा का बटन दबाने की तो आइए बात करते हैं ईवीएम के अंदर नोटा की अहमियत क्या है? जानिए कैसे काम बिगाड़ती है नोटा की नाराजगी। वर्ष 2014 के आम चुनाव में पीएम मोदी की दूसरी सीट बड़ोदरा में 1803 लोगों ने दिया था नोटा को वोट। राजनीतिक पंडितों ने इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में मौजूद विकल्प इनमें से कोई नहीं अर्थात नोटा कई स्तरीय बहसें कर रखी हैं। इसलिए हम यहां नोटा के मूल भावना पर बहस.मुबाहिसों को आगे बढ़ाने नहीं जा रहे हैं। यहां साल 2013 में ईवीएम में नोटा आने के बाद हुए 37 लोकसभा.विधानसभा चुनावों के उन आंकड़ों से रूबरू करा रहे हैं। जो यह बताते हैं कि किस तरह से इस विकल्प ने चुनाव परिणामों पर असर डालना शुरू कर दिया है।
मजबूती पकडता जा रहा है, नोटा
गैर.सरकारी चुनावी व अनुसंधान संगठन एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के एक विश्लेषण के अनुसार साल 2014 से 2017 के बीच नोटा पर अब तक 1.33 करोड़ वोट पड़ चुके हैं।् इसका आशय यह है कि बीते चार साल में ईवीएम पर हुए 37 चुनावों में हर चुनाव में औसतन 2.7 लाख वोट नोटा पर पड़े। इस तरह की खबरें करीब सभी चुनावों के बाद प्रकाशित हुई कि किसी खास सीट पर प्रत्याशी नोटा से भी हार गए।् इसका आशय है कि कई सीटों पर पार्टियों द्वारा उतारे गए प्रत्याशियों को जनता ने नकार दिया। इससे पार्टियों को यह संदेश दिया कि उम्मीदवारों का चयन बदलें। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2013 से अब तक के चुनावों में नोटा की भूमिका पर एक विश्लेषण किया है। इसमें यह तो पता चलता है कि अभी नोटा के वोट किसी बड़ी पार्टी को मिले वोटों के इर्दगिर्द भी नहीं पहुंच पा रहा है। लेकिन लगातार नोटा पर पड़ने वाले वोटों की संख्या बढ़ रही है और यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका में आता जा रहा है। साल 2018 में हुए छत्तीसगढ़, मिजोरम, मध्य प्रदेश, राजस्थान और तेलंगाना विधानसभा चुनावों में नोटा ने आम आदमी पार्टी, समाजवादी पार्टी से ज्यादा वोट जुटाए। नोटा का वोट सबसे ज्यादा 2 प्रतिशत छत्तीसगढ़ और सबसे कम 0.5 फीसदी मिजोरम में रहा। छत्तीसगढ़ में आम आदमी पार्टी ने 90 में से 85 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे। जबकि पार्टी का कुल वोट प्रतिशत था 0.9, जबकि नोटा को 2
फीसदी वोट मिले थे। इसी तरह प्रदेश में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया को 0.3 फीसदी, समाजवादी पार्टी और नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी को 0.2 फीसदी वोट मिले थे। मध्य प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने 1.3 फीसदी वोट जुटाया था। जबकि आप को कुल 0.7 फीसदी वोट मिला। ये दोनों ही प्रमुख पार्टियां नोटा को मिले 1.4 फीसदी से पिछड़ गई। राजस्थान विधानसभा चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को 1.2, समाजवादी पार्टी, आप और राष्ट्रीय लोक दल को क्रमशः 0.2, 0.4 और 0.3 फीसदी वोट मिला था। जबकि नोटा ने 1.3 फीसदी वो पाए थे। इसी तरह तेलंगाना में सीपीआईएम और सीपीआई दोनों को ही 0.4 फीसदी वोट मिला था। जबकि एनसीपी को 0.1 वोट मिला था। यह नोटा को मिले 1.1 फीसदी वोट से बेहद कम है। मिजोरम में क्षेत्रीय पार्टी पीपुल्स रिप्रेजेंट फॉर आइडेंटिटी एंड स्टेटस ऑफ मिजोरम को कुल 0.2 फीसदी वोट मिले थे। जबकि नोटा ने कुल 0.5 फीसदी वोट हासिल किया था। एमपी के बीना में बीजेपी कांग्रेस के उम्मीदवारों के बीच जीत का हार अंतर 632 वोटों का था। लेकिन नोटा के खाते में 1528 वोट आए थे। इसी तरह कोलारस में जीत हार का अंतर 720 वोटों का था जबकि नोटा पर गए वोटों की संख्या 1674 थी। राजस्थान की 16 सीटों पर हार.जीत के मार्जिन की तुलना में नोटा को ज्यादा वोट मिले थे। इसके चक्कर में राजस्थान के पूर्व स्वास्थ्य
मंत्री कालीचरण सराफ भी अटक गए थे। हालांकि उन्होंने अपनी सीट महज 1704 वोटों से जीती।् जबकि नोटा में 2371 वोट पड़े। छत्तीसगढ़ में ऐसी करीब आठ सीटें रहीं जहां पर नोटा ने जीत.हार के बीच के अंतर से बेहतर प्रदर्शन किया। साल 2018 में हुए चुनाव में ही नोटा ने उथल.पुथल नहीं मचाई। साल 2014 के आम चुनावों में भी नोटा ने कई उम्मीदवारों के काम बिगाड़े थे। लोकसभा चुनाव 2014 में नोटा को कुल 60 लाख वोट 1.1 फीसदी वोट मिले थे जो जनता दल सेक्यूलर और सीपीआई जैसी पार्टियों से ज्यादा है।् पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा और एचडी कुमारस्वामी के नेतृत्व वाली जेडीएस को 2014 में 0.67 फीसदी ही वोट मिले थे।् जबकि सीपीआई को 0.78 महज फीसदी वोट मिले थे। मार्च 2018 में आई एडीआर के नोटा को मिले वोट पर हुए विश्लेषण में यह जानकारी सामने आई थी कि 2014 में तमिलनाडु के नीलगिरि में सबसे ज्यादा 46,559 वोट और सबसे कम लक्ष्यदीप में 123 वोट मिले थे। यहां तक कि तत्कालीन बीजेपी के पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी गुजरात की बड़ोदरा सीट पर खड़े हुए थे वहां भी कुल 1803 वोट नोटा पर दिए गए थे। खास बात यह थी कि नोटा कांग्रेस के मधुसूदन मिस्त्री के बाद तीसरे नंबर पर था। बिहार के 2015 विधानसभा चुनाव में नोटा को कुल 9 लाख वोट मिले थे। यह कुल पड़े वोटों का 2.5 फीसदी था। यह अब तक का सबसे ज्यादा नोटा पर पड़ने वाला वोट है। इस लिहाज से देखें तो औसतन हर विधानसभा क्षेत्र में 4000 वोट नोटा को मिले। यह प्रदेश की 21 सीटों की हार.जीत के अंतर से ज्यादा है। इन क्षेत्रों में हार.जीत की सबसे बड़ी संख्या 5251 रही, जबकि एक सीट पर नोटा को 6447 वोट मिले थे। इसी तरह 2016 में हुए विधानसभा चुनावों में पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, पुदुचेरी, केरल और असम की कुल 822 विधानसभाओं में 62 ऐसी सीटें रहीं जहां.जीत हार का अंतर से ज्यादा वोट नोटा को मिले। नोटा ने इन पांच राज्यों में करीब 1.25 फीसदी वोट पाए। इसमें करीब 17 लाख वोट पड़े। गुजारात विधानसभा चुनाव में नोटा को कुल 5,51,615 अर्थात 1.83ः फीसदी वोट मिला। जबकि हिमाचल प्रदेश में 34,232 यानी 0.905ः प्रतिशत वोट मिले। दंता विधानसभा क्षेत्र में नोटा को 6461 वोट मिले।् जो इस सीट पर चुनाव लड़ रहे सात उम्मीदवारों से ज्यादा था।् जबकि मेहसाणा सीट पर नोटा को मिले 686 वोट इस सीट पर लड़ रहे 27 उम्मीदवारों से ज्यादा था। इसके अलावा 30 सीटों पर नोटा ने हार.जीत के अंतरों से ज्यादा वोट पाया था। हिमाचल प्रदेश की जोगिंदरनगर सीट पर 1162 वोट नोटा पर पड़े थे।् यह इस प्रदेश में सबसे ज्यादा थे।् जबकि सबसे कम नोटा पर लाहौल और स्पीति सीट पर पड़े।
ऐसा भी रहा नोटा का भविष्य
6 नवंबरए 2018 को महाराष्ट्र के स्टेट इलेक्शन कमीशन को एक आदेश पारित करना पड़ा। इसके तहत नोटा को सीट पर सबसे ज्यादा वोट मिलने से किसी भी उम्मीदवार को विजेता ना घोषति करने और सीट पर दोबारा चुनाव कराने का निर्णय लेना पड़ा।् इसी तरह 22 नवंबर 1018 को हरियाणा स्टेट इलेक्शन कमीशन को एक आदेश पारित कर नोटा को काल्पनिक किरदार मानते हुए नतीजों को रोकना पड़ा और बाद में उस क्षेत्र में दोबारा चुनाव कराना पड़ा। अब ये ऑर्डर सभी शहरी निकाय चुनावों के लिए सर्वमान्य कर दिया गया।् ऐसे किसी चुनाव में अगर नोटा को सबसे ज्यादा वोट मिलता है तो दोबारा चुनाव कराए जाएंगे। नोटा के आने के चलते राजनैतिक पार्टियों पर बेहतर उम्मीदवार उतारने का दबाव बढ़ा है। यह लोकतंत्र के लिए बेहतर है। चूंकि यह सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद पारित हुआ है तो इसे चुनौती देने के अवसर नहीं हैं। इसलिए अब यह शाश्वत व्यवस्था है। राजनैतिक पार्टियों को अपने उममीदवारों को लेकर सचेत होना ही होगा।
नोटा के बारे में जानिए
यह ईवीएम में एक ऐसा विकल्प होता है जिसके जरिए मतदाता यह जाहिर करता है कि देश की मौजूदा राजनीतिक लोग उनके लिए उपयुक्त नहीं हैं। उस स्थिति जब उसके मतदान क्षेत्र के अंतर्गत चुनाव लड़ने के लिए खड़े उम्मीदवारों में से किसी प्रत्याशी को इस काबिल नहीं समझता कि वह क्षेत्र का प्रतिनिधित्व सदन में कर पाएगा, तो वह नोटा बटन दबाता है और अपना मत नोटा को देता है।