न्याय मंदिरों की तरंगे
माननीय राष्ट्रपति जी की पहल उच्च न्यायालयों के क्षेत्रीय भाषा में हों, निर्णय
केन्द्र सरकार और सर्वोच्च न्यायालय से यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि यथाशीघ्र भारत के सभी उच्च न्यायालयों में इस सुझाव के अनुसार सभी निर्णयों की प्रतियाँ क्षेत्रीय भाषाओं में तैयार करने की शुरुआत का प्रयास करें।
भारत के लगभग सभी उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी भाषा का ही प्रयोग होता है। सम्भवतः भारत एक मात्र ही ऐसा देश होगा जहाँ की न्याय व्यवस्था स्वतंत्रता प्राप्ति के 70 वर्ष बाद भी विदेशी और गुलामी की भाषा को कंधे पर लादकर दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाने का गर्व प्राप्त करता है। भारत की स्वतंत्रता के समय विभाजन प्रक्रिया के अन्तर्गत पाकिस्तान को भी 1947 में ही जन्म मिला और पाकिस्तान भी आज तक अंग्रेजी की गुलामी से स्वतंत्र नहीं हो पाया। जबकि पाकिस्तान में भी उर्दू को राजकीय भाषा घोषित किया जा चुका है।
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-विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट
……………………..भारत में लगभग 54 प्रतिशत जनसंख्या हिन्दी भाषा का प्रयोग करती है। इसके अतिरिक्त भारत के संविधान में 23 भाषाओं को मान्यता प्रदान की गई है। लगभग 10 प्रतिशत लोग ही अंग्रेजी बोलते या समझते हैं। अंग्रेजी को भारतीय संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त भाषाओं में स्थान नहीं मिला। इसका सीधा सा कारण था कि अंग्रेजी एक विदेशी भाषा थी जबकि भारतीय संविधान में केवल भारतीय भाषाओं को मान्यता दी गई थी। इस प्रकार लगभग 90 प्रतिशत जनसंख्या अंग्रेजी के प्रयोग में सक्षम नहीं है।
भारत के लगभग सभी उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी भाषा का ही प्रयोग होता है। सम्भवतः भारत एक मात्र ही ऐसा देश होगा जहाँ की न्याय व्यवस्था स्वतंत्रता प्राप्ति के 70 वर्ष बाद भी विदेशी और गुलामी की भाषा को कंधे पर लादकर दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाने का गर्व प्राप्त करता है। भारत की स्वतंत्रता के समय विभाजन प्रक्रिया के अन्तर्गत पाकिस्तान को भी 1947 में ही जन्म मिला और पाकिस्तान भी आज तक अंग्रेजी की गुलामी से स्वतंत्र नहीं हो पाया। जबकि पाकिस्तान में भी उर्दू को राजकीय भाषा घोषित किया जा चुका है।
भारत में न्याय व्यवस्था की प्रक्रिया अंग्रेजी में चलने के कारण ही जनता और न्याय के बीच की दूरी लगातार बढ़ती जा रही है। इसका सीधा सा कारण है कि जनता और न्याय के बीच भाषा की एक ऐसी दीवार खड़ी है जिसे भारत की 90 प्रतिशत जनसंख्या लांघ नहीं सकती। यह 90 प्रतिशत जनसंख्या अंग्रेजी न समझने के कारण न्याय तक अपनी सीधी पहुँच बनाने में असहाय रहती है और पूरी तरह से वकीलों पर निर्भर हो जाती है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि वकालत पेशा कानून की बारीकियों को समझने में सक्षमता के कारण लोगों को न्याय दिलवाने के लिए निर्धारित है। परन्तु जब जनता इस वकालत के माध्यम से न्याय प्रक्रिया को अंग्रेजी भाषा में चलता हुआ देखती है तो उसके लिए वकीलों पर निर्भरता दोगुनी हो जाती है। एक तो वकालत के दांवपेचों को लेकर निर्भरता तो दूसरी भाषा के कारण निर्भरता। इस दोहरी निर्भरता के कारण अनेकों बार पक्षकारों की भावनाएँ अदालत तक पूरी तरह नहीं पहुँच पाती। पक्षकारों को इस बात का एहसास भी नहीं हो पाता कि अदालत उनकी भावनाओं को समझ चुकी है या नहीं। इसी अन्तर के कारण अनेकों बार गलत निर्णय हो जाते हैं। गलत निर्णयों के कारण अदालतों पर एक के बाद एक अपील के रूप में बोझ बढ़ता ही चला जाता है।
भारत के बहुतायत राज्यों में जिला स्तर तक की अदालतों में राज्य की स्थानीय भाषाओं का प्रयोग होता हुआ दिखाई देता है। जैसे उत्तर भारत के अधिकांश राज्यों में जिला स्तर तक की अदालतों में हिन्दी भाषा, तमिलनाडू की जिला अदालतों में तमिल भाषा, आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना में तेलगू भाषा, महाराष्ट्र में मराठी भाषा, कर्नाटक में कन्नड़ भाषा और केरल में मलयालम भाषा आदि का प्रयोग देखा जा सकता है। हालांकि अब राज्यों में भी अंग्रेजी का वर्चस्व लगातार बेशक धीरे-धीरे बढ़ता चला जा रहा है। दिल्ली की प्रथम राजभाषा हिन्दी है, परन्तु दिल्ली के जिला स्तर की अदालतों में लगभग पूरी तरह अंग्रेजी का प्रयोग चल रहा है। यदि यह सिलसिला चलता रहा तो भारत के सभी राज्यों के जिला स्तर तक की अदालतों में भी अग्रेजी का पूरा प्रभाव स्थापित होने में कुछ ही दशक लगेंगे।
इस वस्तुस्थिति के बीच भारत के राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविन्द ने केरल उच्च न्यायालय के स्वर्ण जयन्ती समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए कहा कि भारत के सभी उच्च न्यायालयों में ऐसी व्यवस्था बनाई जा सकती है जिसमें उच्च न्यायालय के सभी निर्णय की प्रमाणित प्रतियाँ राज्य की स्थानीय भाषा में भी उपलब्ध कराई जाये। इस सुझाव का स्पष्ट कारण है कि जनता अपनी भाषा में उच्च न्यायालय के निर्णय की जानकारी प्राप्त कर सके। जब 90 प्रतिशत जनता अंग्रेजी को न समझकर हिन्दी या अपनी क्षेत्रीय भाषा को ही जानती है तो उच्च न्यायालयों के निर्णय की प्रति भी उसी भाषा में प्राप्त होनी चाहिए।
कानून की लड़ाई के लिए तो जनता को वकीलों पर निर्भर होना ही पड़ता है, परन्तु निर्णय को पढ़ने और समझने के लिए भी उन्हें वकीलों पर या किसी अन्य अंग्रेजी पढ़े-लिखे व्यक्ति पर निर्भर होना पड़े तो इससे उनके समय और लागत पर बोझ ही पड़ेगा।
माननीय राष्ट्रपति जी का यह सुझाव केवल राजनीतिक प्रलोभन की तरह नहीं माना जा सकता, बल्कि उनका यह सुझाव संविधान की आत्मा के अनुकूल है। संविधान की उद्घोषणा में जब सबके लिए न्याय की घोषणा की गई है तो न्याय का निर्णय जनता की भाषा में ही उपलब्ध होना चाहिए।
माननीय राष्ट्रपति जी के इस सुझाव का अनुपालन करना कठिन भी नहीं है। किसी भी उच्च न्यायालय के लिए अपने निर्णयों का क्षेत्रीय भाषा में अनुवाद कठिन कार्य नहीं है। राष्ट्रपति जी के अनुसार इस कार्य में 24 से 36 घण्टे लग सकते हैं। परन्तु इस कार्य में यदि एक सप्ताह भी लगता हो तो भी इसे कठिन कार्य नहीं माना जा सकता। प्रत्येक उच्च न्यायालय को अपने वर्तमान स्टाफ में से ही कुछ लोगों को क्षेत्रीय भाषा में अनुवाद के लिए निर्धारित कर देना चाहिए। इसके लिए यदि अनुवादकों की नई भर्ती भी करनी पड़े तो प्रत्येक उच्च न्यायालय के लिए यह कार्य भी कठिन नहीं हो सकता।
माननीय राष्ट्रपति जी ने यह सुझाव सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री दीपक मिश्रा तथा अन्य अनेकों न्यायाधीशों और विशेष रूप से केन्द्रीय कानून एवं न्यायमंत्री श्री रवि शंकर प्रसाद की उपस्थिति में दिया था। इसलिए केन्द्र सरकार और सर्वोच्च न्यायालय से यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि यथाशीघ्र भारत के सभी उच्च न्यायालयों में इस सुझाव के अनुसार सभी निर्णयों की प्रतियाँ क्षेत्रीय भाषाओं में तैयार करने की शुरुआत का प्रयास करें।