गर्भ समाप्ति तभी उचित हो सकती है जब उस गर्भ के कारण गर्भ धारण करने वाली माँ के जीवन को शारीरिक या मानसिक रूप से गम्भीर खतरा पैदा हो रहा हो, अन्यथा गर्भ समाप्ति का निर्णय कानूनी अपराध होने के साथ-साथ एक गम्भीर आध्यात्मिक पाप भी बन जाता है।
गर्भ में जन्म की प्रक्रिया प्रारम्भ होने के तुरन्त बाद ही जन्म लेने वाले बच्चे पर हत्या के बादल भी मंडराने लगते हैं। ऐसे मामलों में सबसे अधिक संख्या उन बच्चों की होती है जिनके बारे में कन्या होने का पूर्वानुमान हो जाता है। इसलिए सरकार पूरा जोर लगाकर कन्या भ्रूण हत्याओं की रोकथाम के लिए कई प्रकार की प्रयास कर रही है। लगभग 2 वर्ष पूर्व केन्द्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री श्रीमती मेनका गाँधी ने एक वक्तव्य में कहा था कि भारत में प्रतिदिन 2000 कन्या भ्रूण हत्याएँ होती हैं। ऐसे अपराधों से भारत के लगभग सभी राज्यों में पुरुष स्त्री अनुपात असंतुलित होता जा रहा है। सरकार के साथ-साथ अनेकों गैर सरकारी संगठन भी कन्या भ्रूण हत्याओं के विरुद्ध सामाजिक रूप से जन-जागृति अभियान में जुटे रहते हैं।
कन्या भ्रूण हत्याओं के अतिरिक्त गर्भस्थ बच्चों की हत्या का एक और चैंकाने वाला क्षेत्र है जिसमें पति-पत्नी बिना संयम के जीवन बिताते हुए विवाह को केवल कामवासना पूर्ति का माध्यम ही समझते हैं। जिसके कारण वे शारीरिक सम्बन्धों को प्रतिदिन सम्भोग के बिना अधूरा समझते हैं। ऐसे मामलों में जहाँ एक तरफ पुरुष वर्ग वीर्य के महत्त्व से अनजान प्रतिदिन अपनी शारीरिक शक्ति गंवाते हुए भी काम आनन्द में डूबा रहता है। वहीं दूसरी तरफ आये दिन स्त्रियों को चाहे-अनचाहे गर्भ धारण के लिए मजबूर किया जाता है और फिर बार-बार गर्भ को समाप्त करने के लिए चिकित्सा सहायता ली जाती है। बार-बार गर्भ समाप्त करवाने की प्रक्रिया में स्त्रियों का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य भी गिरता चला जाता है। कन्या भ्रूण हत्या हो या सामान्य गर्भपात इस प्रकार की कार्यों की गहराई में निहित आध्यात्मिक पाप की चर्चा आधुनिक समाज के साथ तो करना ही व्यर्थ है।
वर्ष 1971 में भारत की संसद ने गर्भ समाप्त करने से सम्बन्धित एक कानून पारित किया था जिसके अनुसार 12 सप्ताह से पूर्व की आयु तक के गर्भ को गिराने के लिए एक पंजीकृत चिकित्सक की अनुमति लेना आवश्यक घोषित किया गया। यदि गर्भ 12 सप्ताह से अधिक परन्तु 20 सप्ताह से कम हो तो ऐसे दो चिकित्सों की अनुमति लेना आवश्यक बताया गया। चिकित्सकों द्वारा गर्भ समाप्त करने की अनुमति केवल उन परिस्थिति में दी जा सकती है जिनमें गर्भ को जारी रखने से गर्भवति महिला के जीवन को खतरा हो या उसकी शारीरिक अथवा मानसिक स्वास्थ्य के लिए ऐसा करना उचित न हो। इसके अतिरिक्त यदि पैदा होने वाले बच्चे में शारीरिक या मानसिक रूप में किसी गम्भीर अपंगता का पूर्वानुमान हो तो भी गर्भ समाप्त करने की अनुमति दी जा सकती है। इन प्रावधानों की व्याख्या में आगे यह भी कहा गया है कि यदि किसी महिला को बलातकार के फलस्वरूप गर्भ ठहर गया हो तो उसे महिला के मानसिक स्वास्थ्य के लिए खतरनाक ही समझा जायेगा। इसी प्रकार यदि पति-पत्नी द्वारा गर्भ धारण की रोकथाम के लिए कुछ उपाय करने के बावजूद भी गर्भ धारण हो चुका हो और ये दम्पत्ति बच्चों की संख्या को सीमित करने में इच्छुक हों तो ऐसी मानसिकता वाली माँ का गर्भ धारण करना भी उसके मानसिक स्वास्थ्य के लिए खतरनाक समाप्त समझा जायेगा।
यदि कोई महिला 18 वर्ष से कम आयु में या पागलपन की स्थिति में किसी भी आयु में गर्भ को समाप्त करना चाहती है तो ऐसा केवल उसके संरक्षक की अनुमति से ही सम्भव होगा। किसी भी गर्भ को समाप्त करने के लिए केवल सरकार द्वारा स्थापित या संचालित अस्पतालों में ही चिकित्सा प्रक्रिया की जा सकती है।
इसके अतिरिक्त वर्ष 2002 में तो जन्म से पूर्व गर्भ की जांच को ही प्रतिबन्धित करते हुए विशेष प्रावधान को समाहित करते हुए एक कानून बनाया गया जिसमें जन्म से पूर्व गर्भ की जांच को ही प्रतिबन्धित कर दिया गया। ऐसे कार्यों को करने और करवाने वाले के साथ-साथ प्रचार में सहयोग देने वाले व्यक्तियों या संस्थाओं को भी समान दर्जे का अपराधी मानते हुए तीन वर्ष की सजा तथा 10 हजार रुपये तक के जुर्माने का प्रावधान किया गया। बार-बार ऐसे अपराध का दोषी पाये जाने पर सजा की अधिकतम अवधि 5 वर्ष तथा जुर्माने की राशि एक लाख कर दी गई। परन्तु वास्तविक धरातल पर यह कानून कभी भी प्रभावशाली नहीं सिद्ध हो सके, क्योंकि एक तरफ इन प्रावधानों का पालन कड़ाई से नहीं किया जाता तो दूसरी तरफ भ्रष्टाचार हर प्रकार के अपराध को प्रोत्साहित ही करता है।
भ्रूण हत्या और सामान्य गर्भपात के अतिरिक्त कभी-कभी कुछ ऐसे मामले भी सामने आ जाते हैं जब गर्भ समाप्त करना गर्भवती महिला के स्वास्थ्य ही नहीं अपितु उसकी जीवन रक्षा के लिए भी अत्यन्त आवश्यक हो जाता है। मुम्बई की एक महिला मीरा ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत अपनी रिट् याचिका में गर्भपात की अनुमति देने का आग्रह किया। 20 वर्षीय इस महिला का गर्भ 24वें सप्ताह में चल रहा था। उसने याचिका में चिकित्सकों के विचारों का उल्लेख करते हुए कहा कि उसके गर्भ में पलने वाला बच्चे के दिमाग की हड्डियाँ नहीं बन रहीं। यह अवस्था किसी प्रकार से भी सुधर नहीं सकती। इन परिस्थितियों में बच्चे की मृत्यु जन्म से पूर्व गर्भ में ही या जन्म के तुरन्त बाद निश्चिित ही है। इसके अतिरिक्त माँ के जीवन को भी पूरा खतरा बना हुआ है।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री एस.ए. बोबडे तथा न्यायमूर्ति श्री एल. नागेश्वरराव की खण्डपीठ ने 7 विशिष्ट चिकित्सकों के एक दल को याचिकाकर्ता महिला का विस्तृत निरीक्षण करके अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश दिया। न्यायालय के निर्देश पर इस चिकित्सक समिति ने तुरन्त याचिकाकर्ता महिला का निरीक्षण किया और अपनी रिपोर्ट में सर्वोच्च न्यायालय को याचिका में लिखे विचारों के प्रति सहमति व्यक्त करते हुए बताया कि वास्तव में यह गर्भ सिर के बिना तैयार हो रहा है। अतः इस गर्भस्थ बच्चे के जीवन की कोई सम्भावना नहीं है। इसके अतिरिक्त इस चिकित्सक समिति ने याचिकाकर्ता महिला की मानसिक स्थिति का भी निरीक्षण किया और बताया कि यह महिला एक औसत बुद्धि की मालिक है और बच्चे की मृत्यु के कारण उसे शारीरिक और मानसिक आघात भी लग सकता है। दूसरी तरफ इस गर्भ को समाप्त करने में उसके पति का भी समर्थन प्राप्त है।
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि गर्भ समाप्ति का निर्णय गर्भस्थ बच्चे की अवस्था को लेकर नहीं परन्तु याचिकाकर्ता के जीवन की सुरक्षा को देखते हुए महत्त्वपूर्ण लग रहा है। चिकित्सकों की यह स्पष्ट राय है कि किसी भी कीमत पर गर्भस्थ बच्चा तो जीवित रह ही नहीं सकता। सर्वोच्च न्यायालय ने सुचिता श्रीवास्तव (2009) निर्णय में भी यह स्पष्ट कहा था कि सन्तान की उत्पत्ति करना या न करना प्रत्येक महिला का एक स्वायत्त अधिकार है। यह अधिकार उन परिस्थितियों में और अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है जब महिला द्वारा अपने जीवन की रक्षा के लिए कोई निर्णय लिया जाता है। इन परिस्थितियों में सर्वोच्च न्यायालय ने मीरा नामक इस महिला को गर्भ समाप्त करने की अनुमति प्रदान कर दी।
समाज के सामने इस निर्णय से एक सिद्धान्त स्पष्ट हो जाना चाहिए कि गर्भ समाप्ति तभी उचित हो सकती है जब उस गर्भ के कारण गर्भ धारण करने वाली माँ के जीवन को शारीरिक या मानसिक रूप से गम्भीर खतरा पैदा हो रहा हो, अन्यथा गर्भ समाप्ति का निर्णय कानूनी अपराध होने के साथ-साथ एक गम्भीर आध्यात्मिक पाप भी बन जाता है।
विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट