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गर्भ समाप्ति से सम्बन्धित कानून

03.08.2017 By Editor

परिवार और समाज की मानसिकता से जुड़ी हैं गर्भ की विकृतियाँ

Vimal-Wadhawan

-विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट

गर्भ में विकृति किसी विशेष दुर्घटना के कारण हो तो स्पष्ट होता है कि यह एक आपात स्थिति है। परन्तु इसके अतिरिक्त गर्भस्थ महिला की मानसिकता, उसे परिवार में दिन-प्रतिदिन मिलने वाले दुःखों और कष्टों, पौष्टिक भोजन के अभाव, उसके प्रति ससुराल में होने वाली हिंसा, किसी भी प्रकार के कार्यों का बोझ और सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण उसे सुख-शांति और सम्मान न मिलने जैसी परिस्थितियों के आधार पर गर्भ की विकृतियाँ पैदा होती है।

गर्भ को समाप्त करने का कार्य पूरी तरह से चिकित्सा व्यवस्था से जुड़ा है। गर्भ को समाप्त करने की आवश्यकता उन परिस्थतियों में प्रबल हो जाती है जब गर्भ के विकास में कोई विशेष बाधा उत्पन्न होने लगे और माँ तथा बच्चे दोनों के या किसी एक के जीवन को खतरा उत्पन्न होने लगे। इन परिस्थतियों में चिकित्सक गर्भ समाप्ति का कार्य आॅपरेशन के द्वारा करते हैं। गर्भ समाप्ति से सम्बन्धित कानून के प्रावधान 20 सप्ताह के गर्भ को समाप्त करने की ही अनुमति देते हैं। यदि गर्भ इस अवधि को पार कर चुका हो तो उसकी समाप्ति के लिए सर्वोच्च न्यायालय की अनुमति लेने के लिए एक रिट् याचिका प्रस्तुत करनी पड़ती है। सर्वोच्च न्यायालय ऐसी रिट् याचिकाओं पर निर्णय देने से पूर्व केवल एक ही शर्त को पूरा करते हुए यह विचार करता है कि गर्भ समाप्ति का निर्णय माँ या बच्चे के जीवन को बचाने के लिए अत्यन्त आवश्यक हो।

20 सप्ताह से पूर्व की गर्भावस्था को समाप्त करने की छूट माता और पिता को प्रदान की गई है। इस छूट का लाभ अक्सर वे लोग उठाते हैं जो गर्भ को अवांछनीय मानते हुए बच्चे के जन्म में रुचि नहीं रखते। परन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से यदि देखा जाये तो गर्भ समाप्ति की यह छूट भी अनेकों नागरिकों को पाप कर्म करने के लिए ही प्रेरित करती है। गर्भ में बच्चे की हत्या भी जीवहत्या है। यह उसी प्रकार की हत्या समझनी जानी चाहिए जिस प्रकार जन्म के बाद किसी पुरुष या स्त्री की हत्या की जाती है। जन्म के बाद जब हत्या की सज़ा मृत्युदण्ड होती है तो जन्म से पूर्व की गई जीवहत्या को भी उसी कोटि का अपराध क्यों न माना जाये? परन्तु कलियुग के कानूनों की अपनी ही एक विचित्र स्थिति है।

सर्वोच्च न्यायालय ने गर्भ समाप्ति का जो मापदण्ड निर्धारित किया है वह तो फिर भी एक आपात स्थिति से निपटने का उपाय है। जब गर्भ में किसी भी प्रकार की ऐसी विकृति पैदा होती हुई दिखाई देती है जो माँ और बच्चे के जीवन के लिए खतरा बन सकती है तो उस स्थिति से निपटने के लिए सर्वोच्च न्यायालय गर्भ समाप्ति की विशेष अनुमति प्रदान करता है।

हाल ही में सोनाली संदीप जाधव नामक महिला की रिट् याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने 22 सप्ताह के गर्भ को समाप्त करने की अनुमति इसलिए प्रदान कर दी क्योंकि गर्भस्थ बच्चे के रक्त संचार तंत्र में भयंकर विकृति पैदा हो गई थी। विकृति की अवस्था का निर्णय भी सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के विवेक या अधिवक्ताओं के तर्कों के आधार पर नहीं किया जाता। इसके लिए चिकित्सा विशेषज्ञों का एक विशेष दल गठित किया जाता है जो गर्भ का पूरा निरीक्षण करने के बाद अपने विचार व्यक्त करते हैं जिनमें माँ या बच्चे के जीवन को सम्भावित खतरे की पुष्टि की जाये। मुम्बई के बड़े अस्पतालों के वरिष्ठ विशेषज्ञों ने सोनाली की जाँच करने के बाद यह निश्चित विचार व्यक्त किया था कि यदि इस गर्भावस्था को समाप्त न किया गया तो बच्चे का मृत पैदा होना सम्भावित है। यदि बच्चा जीवित पैदा हो भी गया तो वह मानसिक रोगों से ग्रस्त होगा। इसके साथ-साथ बच्चे को जन्म देने के बाद माँ को भी कई मानसिक परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। इन परिस्थितियों में न्यायमूर्ति श्री दीपक मिश्रा तथा न्यायमूर्ति श्री ए.एम. खानविलकर  की पीठ ने गर्भ समाप्ति की अनुमति प्रदान की।

इसी प्रकार सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की पीठ के समक्ष एक अन्य जनहित याचिका श्री अलख आलोक श्रीवास्तव नामक अधिवक्ता के द्वारा प्रस्तुत की गई जिसमें 10 वर्ष की एक ऐसी बच्ची के पेट में 32 सप्ताह अर्थात् 8 माह के गर्भ को समाप्त करने की प्रार्थना की गई जिसका बलात्कार उसके परिवार के ही एक वरिष्ठ सदस्य ने किया था। जब यह याचिका प्रस्तुत हुई तो चिकित्सा विशेषज्ञों के अनुसार बच्चे के जन्म का अधिकतम समय एक माह बचा था।

मुख्य न्यायाधीश श्री जगदीश सिंह खेहर की पीठ ने इस याचिका की सुनवाई करते हुए कहा कि ऐसे मामले में निर्णय के लिए समय भी नहीं बचा। दूसरी तरफ ऐसी अवस्था में गर्भ समाप्ति का प्रयास 10 वर्षीय बच्ची तथा उसके गर्भस्थ बच्चे दोनों के हित में नहीं होगा। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने गर्भ समाप्ति की अनुमति देने से इन्कार कर दिया। वैसे इस निर्णय से पूर्व सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर चण्डीगढ़ के एक बड़े सरकारी अस्पताल के विशेषज्ञों द्वारा तकनीकी राय प्राप्त कर ली गई थी।

इस जनहित याचिका में सर्वोच्च न्यायालय से यह भी प्रार्थना की गई थी कि भारत के प्रत्येक जिले में एक स्थाई चिकित्सा दल स्थापित किया जाना चाहिए जो विशेष परिस्थितियों में गर्भ समाप्ति की आवश्यकता पर विचार करके गर्भित महिलाओं को हर सम्भव चिकित्सा सहायता उपलब्ध करा सके। याचिका में बलात्कार जैसे मामलों में गर्भित हुई पीड़ित महिलाओं को 20 सप्ताह से अधिक अवधि के गर्भ समाप्ति की अनुमति की भी प्रार्थना की गई थी।

गर्भस्थ महिलाओं की यह समस्या चिकित्सा से सम्बन्धित केवल शारीरिक समस्या ही नहीं अपितु मानसिक और सामाजिक समस्या भी है। गर्भ में विकृति किसी विशेष दुर्घटना के कारण हो तो स्पष्ट होता है कि यह एक आपात स्थिति है। परन्तु इसके अतिरिक्त गर्भस्थ महिला की मानसिकता, उसे परिवार में दिन-प्रतिदिन मिलने वाले दुःखों और कष्टों, पौष्टिक भोजन के अभाव, उसके प्रति ससुराल में होने वाली हिंसा, किसी भी प्रकार के कार्यों का बोझ और सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण उसे सुख-शांति और सम्मान न मिलने जैसी परिस्थितियों के आधार पर गर्भ की विकृतियाँ पैदा होती है। इसलिए गर्भ में उत्पन्न ऐसी विकृतियों को केवल आपात स्थिति या गर्भस्थ महिला की गलती मात्र नहीं कहा जा सकता। वास्तव में इसका दोष परिवार के सम्पूर्ण वातावरण का माना जायेगा जो गर्भस्थ महिला को हर प्रकार के सुख और मान-सम्मान के साथ गर्भस्थ बच्चे के पालन की सुविधा प्रदान नहीं कर पाया। इसलिए गर्भ की विकृतियों से छुटकारा पाने का यही एक मात्र उपाय है कि नारी जाति को परमात्मा के सृष्टि संचालन के कार्य में विशेष सहयोगी मानते हुए नारियों को हर परिवार और समाज में विशेष सम्मान दिया जाना चाहिए।

Filed Under: Hindi

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