जब समय पर कोई व्यक्ति अपने दायित्वों का निर्वहन नहीं करता तो दूसरे पक्ष की सहनशक्ति समाप्त होते ही असहिष्णुता विकसित होने के आसार बन सकते हैं। समाज के अनेकों विद्वान लेखकों, उपन्यासकारों, शिक्षकों और दार्शनिकों ने भी समाज को कत्र्तव्य पालन रूपी नैतिक मार्ग का सदैव उपदेश किया जिससे समाज में असहिष्णुता अर्थात् अपराधीकरण को लगाम लगाई जा सकती है।
आज सारे देश में असहिष्णुता पर जोरदार बहस छिड़ी हुई है। किसी एक या दो घटनाओं की प्रतिक्रिया में पूरे समाज पर असहिष्णुता का आरोप किसी भी दृष्टि से उचित नहीं लगता। असहिष्णुता एक प्रकार से अपराधी प्रवृत्ति है। जब व्यक्ति को किसी दूसरे व्यक्ति का व्यवहार बुरा लगता है तो वह उसे एक सीमा तक सहन करता है और उसके बाद बदले और अपराध के रूप में असहिष्णु हो जाता है। इस प्रकार यह असहिष्णुता समाज के अपराधीकरण का प्रमुख आधार बन जाती है।
हर अपराध के बदले एक व्यक्ति या उसके साथियों का एक समूह ही दोषी ठहराया जाता है, सारा समाज नहीं। अपराधों के बढ़ने पर हम अक्सर सरकार को दोषी इसलिए अवश्य मानते हैं कि सरकार अपराधियों को समय पर और समुचित रूप से दण्डित करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठा पाती। इस सम्बन्ध में सरकार के साथ-साथ न्याय व्यवस्था के न्यायाधीश भी बराबर के दोषी माने जा सकते हैं। परन्तु ऐसा नहीं होता कि किसी अपराध के लिए सरकार पर यह आरोप लगाया जाये कि सरकार ने अमुक अपराध प्रायोजित किया है।
वैसे समाज के अपराधीकरण के लिए हम समाज और सरकारों को इस दृष्टि से दोषी तो मान सकते हैं कि समाज और सरकारों ने अपराध निवारण के लिए कभी बच्चों को नैतिकता, ईमानदारी और राष्ट्रभक्ति जैसे लक्षण घोट-घोट कर नहीं पिलाये। यदि हमारी शिक्षा में नैतिकता का समावेश शरीर में दौड़ने वाले रक्त की तरह कर दिया जाता तो स्वाभाविक रूप से अपने समाज का इतना अपराधीकरण न होता जितना आज देखने में मिलता है। परिणामतः समाज और सरकारों पर असहिष्णुता का दोष भी न लगता।
आये दिन सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष ऐसे अनेकों मुकदमें प्रस्तुत होते रहते हैं जिनमें सरकारों और समाज को चेतावनी दी जाती है कि जब समय पर कोई व्यक्ति अपने दायित्वों का निर्वहन नहीं करता तो दूसरे पक्ष की सहनशक्ति समाप्त होते ही असहिष्णुता विकसित होने के आसार बन सकते हैं। समाज के अनेकों विद्वान लेखकों, उपन्यासकारों, शिक्षकों और दार्शनिकों ने भी समाज को कत्र्तव्य पालन रूपी नैतिक मार्ग का सदैव उपदेश किया जिससे समाज में असहिष्णुता अर्थात् अपराधीकरण को लगाम लगाई जा सकती है।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री अनिल दवे तथा श्री आदर्श गोयल की खण्डपीठ के समक्ष चकमा तथा हाज़ौंग आदिवासियों को भारत की नागरिकता का विषय एक रिट् याचिका के रूप में प्रस्तुत हुआ। यह चकमा आदिवासी 1964 से 1970 के दौर में भारत के अरुणाचल प्रदेश में आकर बस गये थे। इनके भारत प्रवेश का मुख्य कारण केवल बंगलादेश बनना ही नहीं था अपितु इनके क्षेत्र में बनाया गया बाँध भी इनके विस्थापित होने का मुख्य कारण था। यह आदिवासी पहले आसाम में रहे और बाद में अरुणाचल प्रदेश में बसने लगे। इनकी संख्या लगभग चार हजार है। परन्तु अरुणाचल प्रदेश राज्य के सामान्य नागरिकों में इन आदिवासियों के लिए संवेदनशीलता का अभाव ही बना रहा। नागरिकांे के मन में किसी एक वर्ग के प्रति संवेदनशीलता के अभाव की पृष्ठभूमि में हो सकता है कुछ तर्कसंगत कारण भी हो परन्तु जब राजनेता और समाज में अशांति बनाये रखने वाली शक्तियाँ ऐसी परिस्थितियों पर राजनीतिक हितों को साधना शुरू कर देती हैं तो यह असहिष्णुता लगातार बढ़ती चली जाती है। 1972 में भारत और बंगलादेश के प्रधानमंत्रियों ने यह संयुक्त घोषणा की थी कि इन चकमा आदिवासियों को भारत की नागरिकता दी जायेगी। परन्तु अरुणाचल प्रदेश सरकार ने सदैव इन आदिवासियों को नागरिकता के विषय पर अपना विरोध ही प्रदर्शित किया। केन्द्र सरकार सदैव यह प्रयास करती रही कि एक तरफ इन आदिवासियों को नागरिकता तो दूसरी तरफ अरुणाचल प्रदेश के नागरिकों को इन आदिवासियों से होने वाली समस्याओं पर कोई ऐसा सम्मानजनक उपाय तलाश किया जाये जिससे एक-दूसरे के प्रति असहिष्णुता न बढ़े। अरुणाचल प्रदेश के नागरिक इन चकमा आदिवासियों को अपनी परम्पराओं और संस्कृति के लिए खतरा मानते हैं। ये चकमा आदिवासी आज तक शरणार्थी कैम्पों में रह रहे हैं सरकार इन्हें राशन, चिकित्सा सहायता तथा अन्य सभी आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध कराती है, परन्तु राज्य के विद्यार्थी संगठन आये दिन इन सुविधाओं की आपूर्ति में हिंसक आन्दोलनों के द्वारा बाधा खड़ी करते रहते हैं।
इन चकमा आदिवासियों के सम्बन्ध में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी सरकारों को निर्देश जारी किये कि इन्हें भारत की नागरिकता दी जाये। मानवाधिकार आयोग के निर्देशों का भी जब पालन नहीं किया गया तो स्वयं आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष रिट् याचिका प्रस्तुत की। सर्वोच्च न्यायालय ने उस रिट् याचिका में अरुणाचल प्रदेश सरकार को चकमा आदिवासियों के स्वतन्त्र जीवन की सुरक्षा और नागरिकता से सम्बन्धित उनके प्रार्थना पत्रों को केन्द्र सरकार के समक्ष प्रस्तुत करने के निर्देश दिये। भारतीय नागरिकता कानून की धारा-5 के अन्तर्गत नागरिकता का प्रार्थना पत्र जिला कलेक्टर के द्वारा केन्द्र सरकार को भेजा जाता है। कलेक्टर ऐसे किसी प्रार्थना पत्र को अपने पास रोक कर नहीं रख सकता। केन्द्र सरकार का कहना था कि अरुणाचल प्रदेश के सम्बन्धित कलेक्टर ऐसे प्रार्थना पत्रों को केन्द्र सरकार के पास भेजते ही नहीं। यहाँ तक कि यदि ऐसे कोई प्रार्थना पत्र सीधा केन्द्र सरकार के पास प्राप्त हुए और केन्द्र सरकार ने इन प्रार्थना पत्रों पर स्थानीय कलेक्टर से रिपोर्ट मांगी तो स्थानीय कलेक्टर ने कभी रिपोर्ट ही प्रस्तुत नहीं की। इन परिस्थितियों में सर्वोच्च न्यायालय ने अरुणाचल प्रदेश सरकार को सख्त निर्देश जारी किया कि चकमा आदिवासियों की रक्षा करना राज्य सरकार का दायित्व है और इन आदिवासियों के स्वतन्त्र जीवन जीने के मार्ग में बाधा उत्पन्न करने के लिए किसी विशेष वर्ग को मूक अनुमति देना राज्य सरकार का गैर-जिम्मेदाराना कार्य है। अरुणाचल प्रदेश सरकार के पास लगभग चार हजार चकमा आदिवासियों के नागरिकता प्रार्थना पत्र लम्बित हैं। चकमा आदिवासियों की आज भी यह शिकायत है कि उनके बच्चों को न तो सरकारी शिक्षा का लाभ मिल रहा है और न ही उन्हें सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अन्तर्गत अनाज आदि दिया जाता है। लोकसभा और राज्यसभा की याचिका समितियों के समक्ष भी उन्होंने अपना निवेदन किया। इन संसदीय समितियों ने भी अरुणाचल प्रदेश सरकार को इन चकमा आदिवासियों के समर्थन में निवेदन जारी किया। इसके अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय भिन्न-भिन्न याचिकाओं में कई बार इन चकमा आदिवासियों को नागरिकता देने के साथ-साथ सुरक्षित और स्वतन्त्र जीवन जीने के अधिकार से सम्बन्धित निर्देश भी जारी कर चुका है। गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने भी इन चकमा आदिवासियों के समर्थन में कई बार निर्देश जारी किये। इन सब आदेशों और निर्देशों के बावजूद चकमा आदिवासियों की कथा-व्यथा पूर्ववत ही बनी हुई है। अब इस सरकारी असहिष्णुता का जवाब अरुणाचल प्रदेश सरकार के अतिरिक्त और कौन दे सकता है?
सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर चकमा आदिवासियों के समर्थन में सभी सम्बन्धित पक्षों को सख्त निर्देश दिये हैं कि 17 दिसम्बर, 2015 से पूर्व इन चकमा आदिवासियों को नागरिकता प्रदान करने की सारी कार्यवाही पूर्ण की जाये। देखना यह है कि अब भी चकमा आदिवासियों के विरुद्ध अरुणाचल प्रदेश सरकार की असहिष्णुता समाप्त होती है या नहीं?
-विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट