चचेरे भाई ने 10 साल की बालिका से किया था, दुष्कर्म
कानून रिव्यू/उत्तर प्रदेश



-बच्चों से बलात्कार के मामले में त्वरित ट्रायल के तहत उत्तर प्रदेश के औरैया में विशेष अदालत ने एक आरोपी को यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण क़ानून पोकसो अधिनियम 2012 के तहत चार्जशीट दाख़लि किए जाने के एक महीने के भीतर ही उसे सज़ा सुना दी है। पुलिस ने इस मामले में एफआईआर दर्ज किए जाने के 10 दिन बाद 19 सितंबर को चार्जशीट दाख़लि की थी। मामले की सुनवाई को त्वरित गति से पूरा करते हुए अतिरिक्त ज़िला और सत्र जज राजेश चौधरी ने फ़ैसला सुनाया है। इससे पहले भी न्यायमूर्ति चौधरी ने पोकसो के तहत एक मामले में चार्जशीट दाख़लि किए जाने के 9 दिनों के भीतर फ़ैसला सुनाकर रिकॉर्ड क़ायम किया था। पोकसो अधिनियम में मामले का संज्ञान लिए जाने के 1 साल के भीतर सुनवाई को पूरा कर लिए जाने का प्रावधान है। पोकसो मामले में सज़ा सुनाने में होने वाली भारी देरी को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों में विशेष अदालतों की संख्या में वृद्धि करने का एक निर्देश ज़ारी किया था। इस दुष्कर्म मामले को आईपीसी की धारा 376, 506 और पोकसो अधिनियम की धारा 6 के तहत 10 वर्षीय पीड़िता के पिता ने मामला दर्ज कराया था। आरोप था कि अंशु नामक एक व्यक्ति ने उनकी 10 साल की बेटी को अपने घर में बंद कर दिया और उसके साथ बलात्कार किया। आरोपी पीड़िता का चचेरा भाई भी था। उसने अपनी दलील में कहा कि उसके खिलाफ़ आरोप ग़लत हैं और पीड़िता के पिता के साथ उसके पिता के विवाद के कारण उसको फंसाया गया है। उसने यह भी कहा कि पीड़िता मात्र 10 साल की थी और उसके बयान पर भरोसा नहीं किया जा सकता क्योंकि उससे जो प्रश्न पूछे गए हैं उसको वह समझ नहीं सकती। कोर्ट ने गवाहों के बयानों और मेडिकल रिपोर्ट पर ग़ौर किया जिसमें बलात्कार होने की बात की पुष्टि की गई थी। गवाहों ने भी आरोपों को सही ठहराया। अदालत ने इस दलील को ख़ारिज कर दिया कि पीड़िता की उम्र इतनी कम है कि उसे साक्ष्य अधिनियम की धारा 118 के तहत एक सक्षम गवाह नहीं माना जा सकता। इस बारे में पी रमेश बनाम राज्य पुलिस निरीक्षक के प्रतिनिधि मामले में आए, फ़ैसले का संदर्भ दिया गया। अदालत ने इस दलील को भी खारिज कर दिया कि अभियोजन ने प्रत्यक्ष गवाह से पूछताछ नहीं की। अदालत ने कहा कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि यह कांड आरोपी के घर के बंद कमरे में हुआ और इसलिए इसका कोई और गवाह नहीं हो सकता। अदालत ने पंजाब राज्य बनाम गुरमीत सिंह एवं अन्य् 1996मामले में आए फ़ैसले का ज़िक्र किया जिसमें कहा गया था कि आरोपी को दोषी क़रार देने के लिए सिर्फ़ पीड़िता का ही बयान काफ़ी होगा। अदालत ने कहा कि ऐसा कुछ निर्धारित नहीं है कि किसी निर्धारित संख्या में गवाहों से पूछताछ होनी है। इस दलील पर कि अभियोजन के गवाह ने जो बयान दिए हैं उसमें विरोधाभास है। अदालत ने कहा कि अगर कोई विरोधाभास मामले की जड़ को हिलानेवाला नहीं है तो बयान में थोड़ा विरोधाभास से कोई बहुत नुक़सान नहीं होने वाला है। अदालत ने पूरनचंद बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य 2014 मामले में आए फ़ैसले का ज़िक्र करते हुए कहा कि पीड़ित लड़की के बयान पर कभी भी संदेह नहीं किया जा सकता क्योंकि ऐसा नहीं हो सकता कि बदनामी को नज़रंदाज़ करके कोई लड़की अपने पिता को किसी के खिलाफ़ फ़र्ज़ी मुक़दमा दायर करने की बात का समर्थन करेगी। अदालत ने कहा कि पीड़िता का बयान साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 157 के तहत स्वीकार्य है क्योंकि सीआरपीसी की धारा 164 के तहत उसने जो बयान दर्ज कराए हैं उससे यह मेल खाते हैं। इस तरह अदालत ने आरोपी को दोषी मानते हुए उसे आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई और दो लाख रुपए का जुर्माना भरने को कहा है।
