निर्वाचन सुधारों में तो अब निर्वाचन आयोग ने केन्द्र सरकार को यहाँ तक सिफारिश कर दी है कि गम्भीर आपराधिक मुकदमों के चलते भी सम्बन्धित व्यक्तियों पर चुनाव लड़ने की अयोग्यता घोषित की जाये। इस सिफारिश में यह कहा गया है कि गम्भीर मुकदमों में ऐसे मुकदमें शामिल होने चाहिए जिनमें 5 वर्ष से अधिक की सजा का प्रावधान है।
जनप्रतिनिधि कानून की धारा-8(3) के अनुसार यदि किसी व्यक्ति को दो वर्ष से अधिक की सजा सुनाई गई हो तो ऐसा व्यक्ति रिहाई के 6 वर्ष बाद तक भारत में किसी भी प्रकार के निर्वाचन लड़ने के अयोग्य माना जायेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही के एक निर्णय में यह स्पष्ट किया है कि इस प्रावधान का उद्देश्य ऐसे लोगों को चुनाव लड़ने से दूर रखना है जिन्हें किसी अदालत के द्वारा दो वर्ष से अधिक सजा सुनाई जा चुकी है। हालांकि दूसरी तरफ सर्वोच्च न्यायालय के कई पूर्व निर्णयों में यह कहा गया था कि वोट देना और चुनाव लड़ना नागरिकों के संवैधानिक अधिकार हैं। परन्तु अब सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जनप्रतिनिधित्व कानून के प्रावधान के माध्यम से कानून निर्माताओं का एक स्पष्ट उद्देश्य सामने आता है कि दो वर्ष से अधिक की सजा घोषित होने के उपरान्त सम्बन्धित व्यक्ति को चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। अतः ऐसे स्पष्ट प्रावधान के बाद कोई व्यक्ति अपने संवैधानिक अधिकारों का तर्क देकर इन प्रावधानों को नगण्य नहीं करवा सकता।
पुणे के नवनाथ सदाशिव पर यह आरोप था कि उसने 7 अन्य लोगों के साथ मिलकर कुछ लोगों पर हमला किया। पीड़ित पक्ष मनोज नामक व्यक्ति के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार का प्रचार कर रहे थे, जबकि नवनाथ सदाशिव राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार का प्रचार कर रहे थे। वर्ष 2007 की 13 फरवरी को रात्रि लगभग 11 बजे नवनाथ ने अपने कई साथियों के साथ मनोज को पकड़ लिया और उसे मारना शुरू कर दिया। नवनाथ के साथ और भी कई व्यक्तियों को इस शिकायत में नामित किया गया था। इस हमले में हाथों और लातों के अतिरिक्त तेजधार वाले हथियारों का भी प्रयोग किया गया था। इस आपराधिक कार्यवाही के फलस्वरूप मनोज के शरीर पर कई स्थानों पर घाव हो गये थे। ट्रायल अदालत ने नवनाथ सहित चार आरोपियों को भारतीय दण्ड संहिता की धारा-307 के अन्तर्गत सजा सुनाई थी।
इस निर्णय के विरुद्ध अभियुक्तों ने बम्बई उच्च न्यायालय के समक्ष अपील प्रस्तुत करने के साथ-साथ एक विशेष प्रार्थना पत्र के माध्यम से अपनी सजा को स्थगित करने का निवेदन किया था। इस प्रार्थना पत्र में अभियुक्त नवनाथ ने यह तर्क दिया कि वह फरवरी, 2017 में होने वाले पुणे नगर निगम के चुनाव में उम्मीदवार बनना चाहता है। याचिकाकर्ता की तरफ से यह तर्क उच्च न्यायालय के समक्ष दिया गया कि जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा-8(3) के अनुसार निर्वाचन लड़ने पर लगाया गया प्रतिबन्ध पूर्ण नहीं है क्योंकि यदि अभियुक्त की सजा को स्थगित कर दिया जाये तो वह निर्वाचन लड़ सकता है। इस तर्क के समर्थन में सर्वोच्च न्यायालय के राजबाला बनाम हरियाणा राज्य (2016) का सदंर्भ प्रस्तुत किया गया जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था जारी की थी कि वोट देना और चुनाव लड़ना नागरिकों के संवैधानिक अधिकार है।
इसी प्रकार बम्बई उच्च न्यायालय के एक निर्णय का भी संदर्भ प्रस्तुत किया गया जिसमें किसी अभियुक्त के विरुद्ध उसकी पत्नी के द्वारा उत्पीड़न की शिकायत के मुकदमें में उसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा-498ए तथा 306 के अन्तर्गत सज़ा को इसलिए स्थगित कर दिया गया था क्योंकि इस सजा के चलते उसकी नौकरी समाप्त हो सकती थी और नौकरी के आधार पर दिया गया आवासीय भवन भी उससे खाली कराया जा सकता था। इसी प्रकार उच्च न्यायालय के कई अन्य निर्णयों के दृष्टांत प्रस्तुत किये गये जिनमें अभियुक्तों की सजा इसलिए स्थगित की गई थी क्योंकि उनमें साक्ष्य कमजोर थे और प्रथम दृष्टया निर्णय गलत लगता था।
इसी प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने नवजोत सिंह सिद्धू बनाम पंजाब राज्य (2007) नामक निर्णय में भी सिद्धू की सजा को स्थगित करने का आदेश दिया था। परन्तु सर्वोच्च न्यायालय के लगभग सभी निर्णयों में मुख्य सिद्धान्त यह व्यक्त किया गया है कि सज़ा स्थगन केवल उन परिस्थितियों की जाती है जब ऐसा न करने से अभियुक्त के साथ बहुत बड़ा अन्याय हो रहा हो और उसके प्रभाव बाद में समाप्त करने योग्य भी न हों। इसलिए लगभग सभी निर्णयों में सर्वोच्च न्यायालय का यह एक निश्चित सिद्धान्त सामने आया कि किसी सजा का स्थगन करते समय उच्च न्यायालयों को बड़ी सावधानी और विचार-विमर्श से निर्णय लेना चाहिए कि सजा स्थगन न करने से अभियुक्त पर कौन-कौन सी समस्या आ सकता है। इन भावी समस्याओं की प्रकृति यदि पूरी तरह अन्यायपूर्ण तथा भविष्य में सुधरने योग्य न हो तभी सजा स्थगित की जानी चाहिए। ऐसे निर्णय केवल अपवाद वाली परिस्थितियों में हो सकते हैं। निर्वाचन लड़ने से वंचित किये जाने पर किसी सजायाफता अपराधी के साथ कोई विशेष अन्याय दिखाई नहीं देता क्योंकि जनप्रतिनिधित्व कानून के प्रावधानों का मुख्य उद्देश्य भी यही है। इन परिस्थितियों में बम्बई उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री ए.एम. बदर ने नवनाथ की सजा स्थगन की याचिका निरस्त कर दी।
निर्वाचन सुधारों में तो अब निर्वाचन आयोग ने केन्द्र सरकार को यहाँ तक सिफारिश कर दी है कि गम्भीर आपराधिक मुकदमों के चलते भी सम्बन्धित व्यक्तियों पर चुनाव लड़ने की अयोग्यता घोषित की जाये। इस सिफारिश में यह कहा गया है कि गम्भीर मुकदमों में ऐसे मुकदमें शामिल होने चाहिए जिनमें 5 वर्ष से अधिक की सजा का प्रावधान है। साथ ही यह भी नियम सुझाया गया है कि ऐसे मुकदमें जो निर्वाचन घोषणा से 6 माह पूर्व दर्ज किये गये हों। यदि केन्द्र सरकार इस सिफारिश को मान लेती है तो भारत की निर्वाचन प्रक्रिया से लगभग एक तिहाई से अधिक अपराधी तत्त्वों का प्रभाव समाप्त हो सकता है।
विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट