दिल्ली तथा अन्य महानगरों में भी सभी राज्यों के अन्य जिलों की तरह जिला अदालतों को असीमित वित्तीय क्षेत्राधिकार प्राप्त होना चाहिए। वैसे भी जिला अदालत का पहला स्तर और उच्च न्यायालय का अपील स्तर न्याय की एक अच्छी व्यवस्था है।
मई के प्रथम सप्ताह में दिल्ली उच्च न्यायालय (संशोधन) बिल, 2015 राज्यसभा द्वारा पारित कर दिया गया। इस संशोधन कानून में मुख्य परिवर्तन दिल्ली की अदालतों के वित्तीय क्षेत्राधिकार को लेकर किया गया है। अब तक 20 लाख रुपये से कम राशि के मुकदमें जिला अदालतों में प्रस्तुत किये जाते हैं और 20 लाख रुपये से अधिक राशि के मुकदमें सीधा पहली बार में दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किये जाते हैं। यदि यह संशोधन कानून लोकसभा के द्वारा भी पारित कर दिया जाता है तो राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद 2 करोड़ रुपये की राशि तक के मुकदमें दिल्ली के जिला न्यायालयों में प्रस्तुत किये जा सकेंगे। दिल्ली उच्च न्यायालय केवल 2 करोड़ से अधिक राशि के मुकदमें सुनेगी।
इस विषय को अदालतों का वित्तीय क्षेत्राधिकार कहा जाता है क्योंकि राशि के अनुसार यह निर्धारित होता है कि मुकदमा दिल्ली की जिला अदालत में जायेगा या दिल्ली उच्च न्यायालय में। पंजाब के विभाजन के बाद 1966 में दिल्ली उच्च न्यायालय का गठन किया गया था। दिल्ली की जिला अदालतें दिल्ली उच्च न्यायालय के अधीन आ गई। जिला अदालतों तथा दिल्ली उच्च न्यायालय में वित्तीय क्षेत्राधिकार समय-समय पर संशोधित होता रहा है।
1966 में 25 हजार रुपये की कीमत तक के मुकदमें जिला अदालतों में प्रस्तुत होते थे। जबकि 25 हजार रुपये से अधिक राशि के मुकदमों की सुनवाई दिल्ली उच्च न्यायालय करता था। 1970 में यह वित्तीय क्षेत्राधिकार सीमा बढ़ाकर 50 हजार रुपये कर दी गई। 1980 में एक सीमा एक लाख रुपये, 1992 में 5 लाख रुपये तथा 2003 में 20 लाख रुपये कर दी गई। दिल्ली के जिला न्यायालयों का विभाजन भी अब 6 जिला अदालतों के बीच कर दिया गया है – तीस हजारी, पटियाला हाऊस, शाहदरा, रोहिणी, द्वारिका और साकेत। दिल्ली की इन सभी जिला अदालतों के बार संगठनों ने एक समन्वय समिति बनाकर काफी समय से वित्तीय क्षेत्राधिकार सीमा 20 लाख से बढ़ाकर 2 करोड़ रुपये करने का आन्दोलन छेड़ रखा था। लगभग एक माह से तो दिल्ली के वकील इस आन्दोलन को निर्णायक स्थिति में ले आये जिसके फलस्वरूप कानून मंत्री श्री सदानन्द गौड़ा ने इस वित्तीय क्षेत्राधिकार विषय का संशोधन बिल राज्यसभा में प्रस्तुत किया जिसे राज्यसभा ने तुरन्त पारित भी कर दिया। इससे पूर्व यह बिल लोकसभा में भी प्रस्तुत किया गया था परन्तु राजनीतिक कारणों से इसे वापिस ले लिया गया।
मई प्रथम सप्ताह में जैसे ही यह बिल राज्यसभा से पास हुआ, वैसे ही सारी दिल्ली के वकीलों के टेलीफोन एस.एम.एस. की घण्टियों से गूँजने लगे जिनमें शुभकामनाओं और बधाईयों का आदान-प्रदान किया जा रहा था। परन्तु इसके एक दिन बाद ही दिल्ली उच्च न्यायालय बार संगठन ने अब हड़ताल घोषित कर दी। उच्च न्यायालय के अधिवक्ता अब इस संशोधन के विरोध में उतरने की तैयारी कर रहे हैं। इस विरोध को देखते हुए जिला अदालतों के बार संगठनों की समन्वय समिति ने भी अपनी हड़ताल को तब तक जारी रखने का निर्णय लिया है जब तक यह संशोधन पूर्ण कानून बनकर लागू न कर दिया जाये। पूर्ण कानून बनने के लिए इसे अभी लोकसभा में पारित होने के बाद राष्ट्रपति की स्वीकृति की आवश्यकता है।
दो स्तर के बार संगठनों की इस लड़ाई के कारण वित्तीय क्षेत्राधिकार पर चिन्तन आवश्यक हो गया है।
आज के आर्थिक हालात को देखते हुए 20 लाख रुपये की राशि कोई महत्त्व नहीं रखती। सामान्य मुकदमें भी 20 लाख रुपये से अधिक राशि के होने के कारण दिल्ली उच्च न्यायालय में प्रस्तुत करने पड़ते हैं जिसके कारण दिल्ली उच्च न्यायालय में मुकदमों का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है। इस संशोधन के लागू होने से दिल्ली उच्च न्यायालय में लम्बित अनुमानतः 12 हजार मुकदमें जिला अदालतों को स्थान्तरित किये जा सकते हैं।
इस संशोधन की स्वीकृति दिल्ली उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ अर्थात् समस्त न्यायाधीशों की बैठक में 21 नवम्बर, 2012 को प्रदान कर दी गई थी। केन्द्रीय कानून मंत्रालय तथा संसद की समिति ने भी इस संशोधन को नवम्बर, 2014 में स्वीकार कर लिया था। इस संशोधन को भारतीय संसद द्वारा ही पारित किया जाना है क्योंकि दिल्ली एक पूर्ण राज्य नहीं है। मुम्बई तथा कलकत्ता में इस प्रकार के संशोधन राज्य विधानसभा द्वारा ही पारित किये गये हैं।
दिसम्बर, 2014 में भी जिला अदालतों के वकीलों ने इस विषय को लेकर तीन दिन हड़ताल रखी थी। वरिष्ठ अधिवक्ता तथा राजनीतिज्ञ श्री राम जेठमलानी ने प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को पत्र लिखकर जिला अदालतों के वकीलों में बढ़ते असंतोष तथा गुस्से से अवगत कराते हुए उन्हें एक कैबिनेट मंत्री की जिद्द के कारण इस संशोधन को पारित कराने में आ रही कठिनाई का उल्लेख किया था।
वित्तीय क्षेत्राधिकार सीमा राशि का संशोधन आंकड़ों की दृष्टि से भी उचित प्रतीत होता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपनी वैबसाईट पर समस्त राज्यों में लम्बित मुकदमों की संख्या के आंकड़े प्रदर्शित किये गये हैं। 31 मार्च, 2014 तक दिल्ली उच्च न्यायालय में 65,159 मुकदमें लम्बित थे जबकि न्यायाधीशों की संख्या 38 थी। इस प्रकार उच्च न्यायालय में लगभग 1715 मुकदमें प्रति न्यायाधीश का अनुपात बनता है। इसके विपरीत दिल्ली की जिला अदालतों में 5,22,118 मुकदमें लम्बित थे। जिला अदालतों में 483 न्यायाधीशों के होने के कारण लगभग 1080 मुकदमें प्रति न्यायाधीश का अनुपात बनता है। इस कारण भी वित्तीय क्षेत्राधिकार की सीमा 20 लाख से बढ़ाकर 2 करोड़ रुपये करना मुकदमों के शीघ्र निपटारे की दृष्टि से भी न्यायोचित ही है।
अभी तो जिला अदालतों के अधिवक्ता केवल 2 करोड़ रुपये की राशि तक के मुकदमों को जिला अदालतों में लाने के लिए संघर्षरत हैं, जबकि वास्तविकता में श्री मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री काल में व्यापारिक न्यायालय कानून बनाने का प्रयास चल रहा था जिसमें 5 करोड़ से अधिक राशि के मुकदमों के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय में फास्ट ट्रैक कोर्ट गठित करने का प्रावधान था। यह कानून बड़े-बड़े व्यापारिक और औद्योगिक संस्थानों के दबाव में तैयार किया जा रहा था। वैसे तो सैद्धान्तिक दृष्टि से न्याय की सुविधा प्रत्येक व्यक्ति के लिए समान होनी चाहिए।
भारत के लगभग सभी राज्यों में (केवल चार महानगरों को छोड़कर) जिला अदालतों के पास सीमारहित वित्तीय क्षेत्राधिकार है। इसका अभिप्राय यह है कि मुकदमा चाहे एक लाख हो या 100 करोड़ का, प्रत्येक मुकदमें का प्रथम स्तर जिला अदालत ही निर्धारित है। जिला अदालत के निर्णयों की अपील उच्च न्यायालय के पास जाती है। भारत की सरकार आज तक देश की सभी जिला अदालतों के भवनों, रख-रखाव और अदालत के लिए आवश्यक अन्य समस्त सुविधाओं जैसे कम्प्यूटर, बिजली, पानी, वातानुकूलित कमरे आदि को भी उपलब्ध नहीं करवा पाई। जिला अदालतों में वकालत करने वाले वकीलों की शिक्षा और प्रशिक्षण भी उच्च स्तर का नहीं होता। यह कमी तो बार कांउसिल द्वारा कानून की शिक्षा में व्यापक परिवर्तन करने से ही पूरी हो सकती है। देश की जिला अदालतों में ऐसे वातावरण के चलते मुकदमों की बढ़ती संख्या और भी अधिक बोझिल लगती है।
दिल्ली की जिला अदालतों में स्थिति पूरी तरह भिन्न है। दिल्ली की जिला अदालतों में अधिकतर वातानुकूलन, कम्प्यूटर तथा बिजली पानी की सुविधाओं में कोई कमी नहीं है। अधिवक्तों के प्रशिक्षण और अनुभव स्तर को लेकर भी यहाँ इतना अधिक नकारात्मक वातावरण नहीं है। दिल्ली की जिला अदालतें किसी दृष्टि से भी उच्च न्यायालय से कम नहीं है। सरकार को तो बल्कि यह प्रयास करना चाहिए कि सारे देश की जिला अदालतों का वातावरण इसी प्रकार तैयार हो।
दिल्ली तथा अन्य महानगरों में भी सभी राज्यों के अन्य जिलों की तरह जिला अदालतों को असीमित वित्तीय क्षेत्राधिकार प्राप्त होना चाहिए। वैसे भी जिला अदालत का पहला स्तर और उच्च न्यायालय का अपील स्तर न्याय की एक अच्छी व्यवस्था है।
दिल्ली उच्च न्यायालय के अधिवक्ता यदि इस वित्तीय क्षेत्राधिकार संशोधन का विरोध कर रहे हैं तो उसके पीछे कोई विशेष सिद्धान्त नहीं अपितु स्वार्थ झलक रहा है। बड़ी संख्या में मुकदमों का उच्च न्यायालय से जिला अदालतों में स्थानान्तरण तथा भविष्य में ऐसे सभी मुकदमों का जिला अदालतों में प्रस्तुत होना उनके लिए हानिकारक होगा।
-विमल वधावन