जेल प्रबन्धन – एक सामाजिक कार्य
-विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट
जेल प्रबन्धन एक सामाजिक कार्य है। अतः प्रबन्धन का दायित्व उन्हीं लोगों पर डालना चाहिए जो अपनी विद्वत्ता, कार्यशैली, व्यवहार और प्रशिक्षण सहित अपने जीवन की प्रत्येक योग्यता का प्रयोग करके यह सुनिश्चित करने का प्रयास करें कि एक अपराधी जब अपनी सज़ा अवधि पूरी करके जेल से निकले तो वह समाज के लिए किसी प्रकार का खतरा पैदा न करे।
किसी भी अपराध के बाद एक तरफ अपराधी तो दूसरी तरफ पीड़ित व्यक्ति की पीड़ा के रूप में दो पक्ष आमने-सामने खड़े होते हैं। पीड़ित पक्ष को अपराध के बाद सर्वप्रथम पुलिस का समर्थन प्राप्त होता हुआ दिखाई देता है। पुलिस अपने इस कत्र्तव्य पालन की आड़ में अपराधी पर अधिक से अधिक अत्याचार करने का प्रयास करती है। जबकि वास्तविक उद्देश्य पीड़ित को सांत्वना देना कम और अपराधी को पुलिस अत्याचारों का भय दिखाकर उससे भ्रष्टाचार की कामना के रूप में अधिक दिखाई देता है। पुलिस के बाद पीड़ित को न्यायव्यवस्था का समर्थन मिलता है। न्यायालयों में मुकदमों की लम्बी अवधि अपने आपमें अपराधी के लिए एक विशेष दण्ड की तरह सिद्ध होती है। इस लम्बी अवधि में वह लगातार मानसिक तनाव में ही रहता है। न्यायव्यवस्था के द्वारा जब सज़ा की घोषणा हो जाती है तो वहाँ पर अपराधी के विरुद्ध पीड़ित पक्ष के विरोध का अन्त हो जाना चाहिए। पीड़ित पक्ष के विरोध के अन्त के साथ ही पुलिस और न्यायपालिका की भूमिका भी समाप्त हो जानी चाहिए। एक निश्चित अवधि की सज़ा पूरी करने के लिए अपराधी को अब तो एक ऐसी नई जेल व्यवस्था के सुपुर्द कर देना चाहिए जिसके दोमुखी कत्र्तव्य हों – प्रथम, अपराधी को निश्चित सज़ा अवधि तक जेल में रखना तथा दूसरा, हर प्रकार की मानवीय सुविधाओं के साथ उसे लगातार सुधारवाद के मार्ग पर अग्रसर करना। जेल व्यवस्था यदि इस दूसरे कत्र्तव्य का उचित प्रकार से निर्वहन करे तो सम्भव है कि समाज को अपराधी प्रवृत्तियों से विहीन एक अच्छा सामाजिक नागरिक प्राप्त हो।
जिला कारागार करनाल के जेल उपाधीक्षक श्री नरेश कुमार गोयल ने ‘सफल’ योजना के माध्यम से जेल सुधारों को एक स्वाभाविक तंत्र के रूप में लागू करने का प्रयास किया। जेल प्रशासन के उच्च अधिकारियों के सहयोग से उन्होंने इस योजना को फरवरी और मार्च, 2017 में लागू भी कर दिखाया। इस योजना के अत्यन्त सफल परिणाम दिखाई दिये। यह योजना अब हरियाणा सरकार की स्वीकृति के लिए लम्बित है। यदि हरियाणा सरकार इस योजना को लागू करती है तो अन्य राज्यों को भी इसके सफल परिणामों से अवश्य ही प्रेरणा प्राप्त होगी। वैसे केन्द्र सरकार भी सीधा सभी राज्यों को ऐसी योजनाओं को लागू करने के लिए प्रेरित कर सकती है।
इस ‘सफल’ योजना के माध्यम से प्रत्येक कैदी को उसकी योग्यता के अनुसार एक या अनेकों गतिविधियों से जोड़ा जाता था। यह प्रक्रिया उनके लिए एक अनूठी और लाभकारी योजना बन गई। किसी भी कैदी को इस योजना से बाहर नहीं छोड़ा गया। कैदियों की प्रत्येक गतिविधि के लिए उन्हें कुछ अंक देने प्रारम्भ किये गये। इन अंकों के साथ उनके कार्यों का वेतन निर्धारण भी जोड़ दिया गया। इन अंकों के आधार पर उनकी सज़ामाफी की अवधारणा को भी जोड़ दिया गया। यह वास्वत में उनके लिए एक अनूठी और लाभकारी योजना थी जिससे उनके दृष्टि में जेल और राज्य के प्रति भी विश्वसनीयता बढ़ गई।
इस योजना में तीन प्रकार के दृष्टिकोण शामिल थे:-
(1) प्रत्येक कैदी अपने अन्दर छिपी योग्यताओं को उजागर करे, (2) इन योग्यताओं से वह दूसरे कैदियों को भी पारंगत करे, (3) अपने समय का सदुपयोग करने के लिए वह नई योग्यताओं का प्रशिक्षण प्राप्त करे।
इस योजना के माध्यम से कैदियों में अयोग्यता और आलस्य जैसे कारण समाप्त होने लगे थे। जेल प्रबन्धन की लागत भी कम हो गई थी। सरकारी कोष को खर्च करने के फलस्वरूप अब अधिक अच्छे परिणाम भी प्राप्त होने लगे थे। इससे जेल सेवाओं में भी पारदर्शिता और सुधार आने लगा था। वैसे यह सब परिणाम अन्य तरीकों से भी प्राप्त हो सकते थे, परन्तु ‘सफल’ योजना के माध्यम से इन परिणामों के साथ-साथ जेल के अन्दर प्रत्येक वर्ग की सोच में भी बदलाव आता जा रहा था। इस योजना के द्वारा जेल स्टाफ और कैदियों के बीच की दूरी भी कम हो गई थी।
इसके अतिरिक्त कैदियों को उनकी योग्यता और रुचि के अनुसार शिक्षा की पूरी सुविधाएँ उपलब्ध करवाकर हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि भारत की जेलों का वातावरण एक आपराधिक समाज की तरह नहीं अपितु एक विद्यालय की तरह दिखाई देने लगे। भारत जैसे सामाजिक और आध्यात्मिक देश में स्वैच्छिक सेवा या अल्प वेतन पर कैदियों को शिक्षित करने वाले अध्यापकों की भी कमी नहीं होगी।
प्रत्येक कैदी जीवन के किसी न किसी व्यवसायिक कार्य में अवश्य ही रुचि रखता होगा। यदि कैदियों को उनकी पूर्व योग्यता अथवा रुचि के अनुसार किसी न किसी व्यवसायिक प्रशिक्षण में लगा दिया जाये तो कैदियों में अपने जीवन की पुनस्र्थापना को लेकर एक नये आत्मविश्वास का उदय होगा। वे ऐसे कार्यों को करते समय जेल प्रशासन को ही अपने लिए एक महान उपकारी प्रशासन मानने लगेंगे।
जेलों में क्षमता से अधिक कैदियों को रखा जाना भी जेल सुधारों में सबसे बड़ी बाधा है। इस समस्या के चलते न तो जेल के अन्दर कोई विशेष सुधारवादी परिवर्तन सम्भव हो सकते हैं और न ही जेल प्रशासन सुचारू रूप से कार्य कर सकता है। इसलिए जेलों में बन्द कैदियों की संख्या को कम करने के लिए जमानत व्यवस्था में परिवर्तन, उत्तम आचरण के आधार पर सज़ामाफी आदि कई उपाय किये जा सकते हैं। भारत के विधि आयोग ने भी हाल ही में इस विषय पर कई सुझाव दिये हैं।
भारत में अब तक जेल सुधारों को लेकर अनेकों कमेटियाँ और आयोग गठित किये गये हैं। परन्तु अब तक जेल सुधारों का कोई विशेष मार्ग प्रशस्त नहीं हो पाया।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी वर्ष 2015 में सारे विश्व की जेलों के संचालन के लिए कुछ मानक नियम निर्धारित किये हैं। इन नियमों का नाम नेल्सन मंडेला नियम रखा गया है। नेल्सन मंडेला ने अपने जीवन के 27 वर्ष जेल में बिताये थे। इन नियमों का भी सारतत्त्व यही है कि जेल प्रबन्धन एक सामाजिक कार्य है। अतः प्रबन्धन का दायित्व उन्हीं लोगों पर डालना चाहिए जो अपनी विद्वत्ता, कार्यशैली, व्यवहार और प्रशिक्षण सहित अपने जीवन की प्रत्येक योग्यता का प्रयोग करके यह सुनिश्चित करने का प्रयास करें कि एक अपराधी जब अपनी सज़ा अवधि पूरी करके जेल से निकले तो वह समाज के लिए किसी प्रकार का खतरा पैदा न करे। सज़ा का भोग करने के बाद उस व्यक्ति के दिल और दिमाग की सारी प्रवृत्तियाँ अपराध या किसी भी प्रकार के पापाचरण से मुक्त हो चुकी हों।