दिल्ली हाईकोर्ट ने फ़ैमिली कोर्ट के फ़ैसले को निरस्त कर अपील स्वीकार की
कानून रिव्यू/दिल्ली
दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि शादी को टूटने से बचाया नहीं जा सकता है सिर्फ़ इस वजह से किसी को तलाक़ की अनुमति नहीं दी जा सकती। कोर्ट ने कहा कि तलाक़ पर परिस्थिति के रूप में तभी ग़ौर किया जा सकता है जब उससे क्रूरता जुड़ी हो। फ़ैमिली कोर्ट के फ़ैसले को प्रतिवादी ने चुनौती दी थी जिस पर सुनवाई करते हुए अदालत ने यह बात कही। अपीलकर्ता पत्नी और प्रतिवादी पति की अगस्त 1989 में हिंदू रीति से शादी हुई थी और उनके दो बेटे हैं। वर्ष 2008 से दोनों अलग रह रहे हैं। आपस में विवाद होने के कारण पति ने क्रूरता के आधार पर फ़ैमिली कोर्ट में अधिनियम की धारा 13;1 के तहत तलाक़ की अर्ज़ी दी। प्रतिवादी ने फ़ैमिली कोर्ट को बताया कि अपीलकर्ता शुरू से ही शादी के तहत उसके परिवार के साथ नहीं रहना चाहती थी और कुछ राहत पाने के लिए अलग रहने के बाद भी अपीलकर्ता के व्यवहार में बदलाव नहीं आया और उसके काम, शिक्षित होने का हवाला देते हुए उसका मज़ाक़ भी उड़ाया। यह आरोप भी लगाया गया कि वह घर का कोई काम नहीं करती थी और अपने भाई के साथ मिलकर उसकी पिटाई करती थी और उस पर अपनी संपत्ति उसे दे देने का दबाव डालती रही। इन बातों के कारण वह अवसाद में चला अगया और इस तरह उसे तलाक़ की अर्ज़ी दायर करनी पड़ी। याचिकाकर्ता का प्रतिवाद करते हुए अपीलकर्ता ने अपने रिश्तेदारों से मिलने वाले बुरे बर्ताव का ज़िक्र किया, उसको अपने ससुराल से भगा दिया। उसके रिश्तेदारों ने उसका सारा स्त्रीधन ले लिया, उसे इस वजह से शारीरिक उत्पीड़न दिया गया कि वह पर्याप्त दहेज नहीं लाई और घर का ख़र्चा चलाने के लिए उसका पति उसे किसी भी तरह की आर्थिक मदद नहीं देता था। उसने यह भी कहा कि पति के हिंसक आचरण के कारण उसके और उसके बच्चे हमेशा ही तनाव, अवसाद और मानसिक आघात की स्थिति में रह रहे थे। उसने कहा कि उसके भाई ने उसके बच्चों की पिछले तीन साल से देखभाल की है। उसने यह आरोप भी लगाया कि फ़ैमिली कोर्ट में जो मामला दायर किया गया है वह प्रतिवादी के खिलाफ़ उसने घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के तहत मामला दायर करने की प्रतिक्रिया में दायर किया गया है। फ़ैमिली कोर्ट ने प्रतिवादी के पक्ष में फ़ैसला दिया और कहा कि पति को अपने पत्नी के भावनात्मक और घरेलू संबल से वंचित किया गया है और अगर वह घर के ख़र्चे में ज़्यादा कुछ योगदान नहीं कर पाया है तो इसका कारण उसकी कम आय रही है। क्रूरता के मुद्दे के बारे में अदालत ने अपीलकर्ता से हुई पूछताछ का हवाला दिया जिसमें महिला ने उसके विवाहेत्तर संबंध का ज़िक्र किया और कहा कि इस तरह के आरोप मानसिक क्रूरता की श्रेणी में आते हैं। फ़ैमिली कोर्ट ने कहा कि चूंकि दोनों ही लोग अलग रह रहे हैं इसलिए हर व्यावहारिक दृष्टिकोण से यह शादी समाप्त हो चुकी है। अगर इसे जारी रहने की अनुमति दी गई तो यह न्याय का उपहास होगा क्योंकि प्रतिवादी को उसके कम शिक्षित होने के कारण अपीलकर्ता के कटाक्ष का सामना करना होगा। अदालत ने अपने इस फ़ैसले के संदर्भ में कई मामलों के फ़ैसलों का हवाला दिया जिसमें क्रूरता को तलाक़ का आधार बनाया गया था। न्यायमूर्ति जीएस सिस्तानी और न्यायमूर्ति ज्योति सिंह ने कहा कि दोनों पक्षों ने कर्तव्यों का निर्वाह नहीं किए जाने का आरोप लगाया गया है। क्रूरता के मुद्दे पर फ़ैमिली कोर्ट ने ग़ौर किया है पर प्रतिवादी अपने आरोपों को साबित करने में विफल रहा है और इस वजह से तलाक़ का जो आदेश दिया गया है वह नहीं टिकता है। फिर फ़ैमिली कोर्ट ने यह नहीं बताया है कि कैसे अपीलकर्ता के किसी आचरण से क्रूरता पैदा हुई है। याचिकाकर्ता से सहमति जताते हुए पीठ ने कहा कि फ़ैमिली कोर्ट का यह कहना कि याचिकाकर्ता ने प्रतिवादी पर विवाहेत्तर संबंध होने का आरोप को संदर्भ के बाहर बाहर है क्योंकि उसने अपने देवर की पत्नी के खिलाफ़ आरोप लगाया था। पीठ ने कहा कि सुनवाई के दौरान में पूछताछ में कही गई बातों को मानसिक क्रूरता बनाकर फ़ैमिली कोर्ट ने ग़लती की है। पीठ ने कहा कि खाना नहीं बनाना, बिल नहीं चुकाना, व्यवसाय में घाटा, शैक्षिक स्तर में अंतर आदि वैवाहिक जीवन के सामान्य उठापटक हैं। पीठ ने इस बात से भी इंकार किया कि इस मामले में शादी टूटने की इस स्थिति में पहुंच गया है कि इसे बचाया नहीं जा सकता। अदालत ने कहा कि शादी को टूटने से बचाने की स्थिति से बाहर हो जाना अधिनियम के तहत तलाक़ के फ़ैसले का आधार नहीं हो सकता जिस पर अदालत उस समय ग़ौर कर सकती है जब क्रूरता की बात साबित हो जाती है। चूंकि क्रूरता का आधार साबित नहीं हुआ है सिर्फ़ इस आधार पर कि शादी टूटने के कगार तक पहुंच गई है, तलाक़ का आदेश नहीं सुनाया जा सकता। इस तरह अदालत ने फ़ैमिली कोर्ट के फ़ैसले को निरस्त कर दिया और अपील स्वीकार कर ली।