न्याय मंदिरों की तरंगे
जेलों में एड्स जैसी भयानक बीमारियाँ लगातार बढ़ती जा रही हैं, उसका मुख्य कारण भी जेलों में समान सैक्स के बीच बढ़ता यौनाचार है। यदि कैदियों को दाम्पत्य सुख की सुविधा समय-समय पर उपलब्ध कराई जा सके तो इन रोगों में भी कमी लाई जा सकती है।
-विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट
————————————————–अदालत से सज़ा मिलने के बाद जब व्यक्ति जेल की चार-दिवारी में कैद कर दिया जाता है तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि उसकी मानव जीवन यात्रा को स्थगित कर दिया गया है। जेल सज़ा का अभिप्राय केवल इतना ही होता है कि उसे अपने किये गये अपराध के बदले एक निश्चित अवधि के लिए अपने समाज से अलग करके एकांकी जीवन जीने के लिए बाधित कर देना। इसके साथ ही सरकारों तथा न्यायपालिका को यह भी स्मरण रखना चाहिए कि केवल एकांकी जीवन ही सज़ा का उद्देश्य नहीं है बल्कि इससे भी अधिक मुख्य उद्देश्य यह होना चाहिए कि जेल में बन्द एकांकी जीवन को जीते हुए उसे ऐसे विचारों और प्रेरणाओं से अवगत कराया जाये जिससे वह दुबारा किसी अपराध की चेष्टा न करे। जेल सज़ा के दौरान यदि कैदियों पर सुधारवादी प्रयास न किये जायें तो उसका नतीजा वही निकलता है जो आजकल भारत की लगभग सभी जेलों में देखा जा सकता है। जेलों के अन्दर सुधारवाद के अभाव में अपराधियों के गैंग बनते जा रहे हैं।
जेलों में सुधारवाद को लेकर अनेकों सरकारी और गैर-सरकारी रिपोर्टें तथा अनेकों अदालतों के द्वारा महत्त्वपूर्ण निर्णय जारी किये गये हैं। कई व्यक्तियों और संस्थाओं के साथ-साथ कई संवेदनशील जेल अधिक्षकों ने भी समय-समय पर अपने ही स्तर पर कई गम्भीर प्रयास करके दिखाया। परन्तु सारे देश में एक समान जेल सुधार नीति के अभाव में हमारी जेलों का वातावरण कभी भी मानवतावादी मापदण्डों पर खरा नहीं उतरा। जेल की कैद का मतलब मानवतावादी अधिकारों का छिन जाना नहीं होता है।
मद्रास उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति डॉ. एस. विमला तथा श्रीमती टी. कृष्णावल्ली की खण्डपीठ ने एक मुकदमें में पारित आदेश का शुभारम्भ दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. नेल्सन मंडेला के उन शब्दों से किया है जिसमें उन्होंने यह कहा था कि ‘‘किसी देश का सच्चे मायने में आंकलन उस देश की जेलों के अन्दर रहने वाले कैदियों की परिस्थिति को देखकर ही किया जा सकता है। क्योंकि किसी देश का महत्त्व इस बात से नहीं होता कि वह अपने उच्च कोटि के नागरिकों का पालन कैसे करता है बल्कि इस बात से होता है कि वह अपने निम्नकोटि के नागरिकों का पालन कैसे करता है।’’ इन शब्दों के साथ ही उच्च न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश का हवाला दिया जिसमें यह स्पष्ट कहा गया है कि जेल के अन्दर रहने वाले नागरिकों को भी न्यायिक तथा उचित तरीके से सभी मूल अधिकारों को प्रदान किया जाना चाहिए।
तमिलनाडू की जेल में बन्द 40 वर्षीय सिद्दीक अली की पत्नी ने उच्च न्यायालय के समक्ष प्रार्थना करते हुए कहा कि उसके पति को जेल से 30 दिन की छुट्टी दी जाये जिससे घर पर वह उसके साथ रह सके और उसके द्वारा सन्तान प्राप्ति के इलाज को सफल सिद्ध कर सके। जेल प्रशासन याचिकाकर्ता के अनुरोध को यह कहते हुए ठुकरा चुका था कि कैदी को जेल से छुट्टी देने पर उसका अपना जीवन ही खतरे में हो जायेगा। इसके अतिरिक्त जेल प्रशासन ने कहा कि जेल सज़ा में छुट्टी देने के नियमों में ऐसे आधार का उल्लेख नहीं है जो याचिकाकर्ता के द्वारा व्यक्त किया गया है अर्थात् सन्तान उत्पत्ति या पति-पत्नी सम्बन्धों को आधार बनाकर जेल से छुट्टी की माँग नहीं की जा सकती है।
उच्च न्यायालय ने कहा कि जेल नियमों में छुट्टी के लिए किसी विशेष परिस्थिति को आधार बनाया जा सकता है। याचिकाकर्ता की आयु 32 वर्ष है और उसका पति विगत 18 वर्ष से जेल सज़ा भुगत रहा है। परन्तु अभी तक उनकी कोई सन्तान नहीं हुई। इसका सीधा कारण यह भी हो सकता है कि पति और पत्नी कभी इकट्ठे रहे ही नहीं। याचिकाकर्ता का यह कहना भी अविश्वसनीय नहीं लगता कि चिकित्सक ने उसे आश्वासन दिया है कि सन्तान उत्पत्ति के उपचार के बाद वह गर्भ धारण कर सकती है।
मनुष्य की वास्तविकता यह है कि चाहे वह सामान्य स्तर का अपराधी हो या अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का उग्रवादी, परिवार की आवश्यकता उसका एक स्वभाव है। परिवार का अर्थ पति-पत्नी के साथ-साथ सन्तानों के बीच भी भावनात्मक सम्बन्धों का विकास होता है। पति-पत्नी के बीच तो हर प्रकार के विचारों का भी आदान-प्रदान सम्भव होता है। अतः जेल सज़ा भुगतने वाले कैदियों को इस मानवीय आवश्यकता से दूर नहीं रखा जा सकता।
भारत की सरकारों और अदालतों ने अनेकों बार इस बात पर सहमति जताई है कि जेल सज़ा का मुख्य उद्देश्य सुधारवाद ही होना चाहिए। जेल सज़ा के दौरान व्यक्ति को बौद्धिक और नैतिक रूप से विकसित करने का प्रयास किया जाना चाहिए। मनोवैज्ञानिकों ने भी अनेकों बार इस सिद्धान्त की पुष्टि की है कि कैदियों के मन से ईर्ष्या, द्वेष, स्वार्थ और यहाँ तक कि हिंसात्मक प्रवृत्ति को भी कम किया जा सकता है यदि उन्हें दाम्पत्य जीवन का सुख प्रदान किया जाये। दाम्पत्य सुख से व्यक्ति न केवल अपने परिवार के साथ बंधा रहता है बल्कि समाज में भी वह अपनी उन आदतों को छोड़ने के लिए विवश हो सकता है जिनके कारण वह जेल यातना भुगत रहा है।
जेलों में एड्स जैसी भयानक बीमारियाँ लगातार बढ़ती जा रही हैं, उसका मुख्य कारण भी जेलों में समान सैक्स के बीच बढ़ता यौनाचार है। यदि कैदियों को दाम्पत्य सुख की सुविधा समय-समय पर उपलब्ध कराई जा सके तो इन रोगों में भी कमी लाई जा सकती है।
मद्रास उच्च न्यायालय ने सिद्दीक अली को जेल से दो सप्ताह की छुट्टी तो प्रदान कर ही दी परन्तु साथ ही सरकार को निर्देश दिया है कि ऐसे मामलों को लेकर एक कमेटी गठित की जानी चाहिए जो ऐसे कैदियों की प्रार्थनाओं पर विचार-विमर्श करे।