संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार के उच्चायुक्त ने भेदभावपूर्ण प्रकृति पर चिंता जताई
नागरिकता संशोधन बिल के खिलाफ लडाई सुप्रीम कोर्ट पहुंची
मौहम्मद इल्यास-’’दनकौरी’’/नई दिल्ली
नागरिकता संशोधन बिल के खिलाफ देशभर में विरोध बढ़ता ही जा रहा है। पूर्वोत्तर में लोग सड़क पर उतर अपनी बात कह रहे हैं तो अब इस कानून को देश की सर्वोच्च अदालत में चुनौती दी जा चुकी है। इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग, महुआ मोइत्रा, पीस पार्टी, रिहाई मंच सिटिजन अगेंस्ट हेट, जयराम रमेश,एहतेशम हाशमी, प्रद्योत देब बर्मन, जन अधिकारी पार्टी के महासचिव फैजउद्दीन, पूर्व उच्चायुक्त देब मुखर्जी, वकील एमएल शर्मा, सिम्बोसिस लॉ स्कूल से लॉ स्टूडेंट और एआईएमआईएम चीफ और सांसद असदुद्दीन ओवैसी इस बिल के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का रूख कर चुके हैं। एक आंकडे के अनुसार अब तक कुल मिलाकर 13 संगठनों ने इस नए कानून के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा दायर किया है। केंद्र सरकार पर आरोप लगाया जा रहा है कि नागरिकता संशोधन एक्ट संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है, इसके साथ ही भारत के मूल विचारों के भी खिलाफ है। संसद में कांग्रेस ने तर्क दिया था कि सरकार इस कानून को लेकर अल्पसंख्यकों के खिलाफ माहौल बनाना चाह रही है। असदुद्दीन ओवैसी ने इस बिल का विरोध करते हुए कहा था कि भारत में इस तरह का कानून बनाकर आप जिन्ना को जिंदा कर रहे हैं। मौलाना अबुल कलाम आजाद ने कहा था कि मैं एक हिंदुस्तानी मुसलमान हूं और मेरे मजहब का इस देश से एक हजार साल का रिश्ता है और हिंदुइज्म का 4 हजार साल से ज्यादा का रिश्ता है। जब मेरा इस मुल्क से एक हजार साल का रिश्ता है तो वो रिश्ता कहां पर चला गया। ओवैसी ने कहा कि आप पर्लियामेंट में बैठ कर पैगाम दे रहे हैं कि हम मुसलमान हैं इसलिए आपको सीएबी में नही लाएंगे। आखिर आप हिंदुस्तान की सबसे बड़ी पंचायत से क्या मैसेज देना चाह रहे हैं? कानून के जानकारों ने भी इस कानून पर सवाल खड़े किए है,् जिसमें नीति आयोग के पूर्व सदस्य समेत पूर्व जस्टिस ने भी कहा है कि इस कानून को सुप्रीम कोर्ट की नजरों से गुजरना होगा। देश के पूर्व चीफ जस्टिस के0जी0 बालकृष्णन ने इस बिल को लेकर कहा था कि जिस तरह धर्म के आधार पर प्रताड़ित लोगों को सरकार स्वीकार रही है, वह बड़ा दिल दिखाना हुआ लेकिन कानूनी नजरिए से इस पर बहस हो सकती है। इस बिल को सुप्रीम कोर्ट से होकर गुजरना होगा। पूर्वोत्तर के कई राज्यों में इस कानून के खिलाफ प्रदर्शन जारी है। मेघालय, त्रिपुरा और असम में सरकार की तरफ से मोबाइल इंटरनेट.एसएमएस पर रोक लगा दी गई है। जबकि कुछ इलाकों में अभी भी कर्फ्यू लगाया गया है। वहीं नागरिकता संशोधन विधेयक को मुस्लिमों ने काला कानून बताया है। जमीयत उलेमा.ए.हिन्द के आह्वान पर दिल्ली जामा मस्जिद के चौक में मुस्लिम समाज के लोगों की सभा हुई जिसमें वक्ताओं ने एनआरसी और सीएबी कानून के खिलाफ विरोध जताते हुए कहा कि नागरिकता संशोधन विधेयक भारतीय संविधान की आत्मा के खिलाफ है। उन्होंने कहा कि इसमें धर्म के आधार पर भेदभाव किया है जिसकी संविधान इजाजत नहीं देता। नागरिकता संशोधन अधिनियम विधेयक पर राष्ट्रपति पुनर्विचार कर वापस सदन को लौटाएं। यह विधेयक ऑल वर्ग एससी/ एसटी और ओबीसी के खिलाफ है और इससे देश में एनआरसी और कैब कानून से अराजकता फैल सकती है। साथ ही इस कानून से देश में आक्रोश और भय का माहौल है।
क्या है संशोधित नागरिकता कानून
संशोधित नागरिकता कानून के अनुसार 31 दिसंबर 2014 तक पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ्गानिस्तान से भारत आए हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदाय के सदस्यों को अवैध शरणार्थी नही माना जाएगा और उन्हें भारत की नागरिकता प्रदान की जाएगी।् राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने बृहस्पतिवार की रात नागरिकता संशोधन विधेयक 2019 को अपनी सहमति प्रदान कर दी हैर इसके साथ ही ये विधेयक कानून बन गया है।
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार के उच्चायुक्त ने भेदभावपूर्ण प्रकृति पर चिंता जताई
नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 के मौलिक रूप से भेदभावपूर्ण प्रकृति पर चिंता व्यक्त करते हुए संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार के उच्चायुक्त कार्यालय ने एक बयान जारी किया है कि हम चिंतित हैं कि भारत का नया नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 मौलिक रूप से प्रकृति में भेदभावपूर्ण है। मानवाधिकार के लिए संयुक्त राष्ट्र के उच्चायुक्त के प्रवक्ता जेरेमी लॉरेंस द्वारा जारी बयान में कहा गया है कि इस सप्ताह संसद द्वारा पारित कानून पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से गैर.मुस्लिम प्रवासियों को नागरिकता प्रदान करने को उदार बनाता है, जिन्होंने 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत में प्रवेश किया था। मुसलमानों को इसके दायरे से बाहर करने और नागरिकता को धर्म से जोड़ने के लिए अधिनियम की कड़ी आलोचना की जा रही है। अधिनियम के विरोध में असम में हिंसक प्रदर्शन हुएए जिसके बाद वहां सैनिकों की तैनाती, इंटरनेट बंद करना, कर्फ्यू लगाना और क्षेत्र में हवाई और रेल संपर्क को रद्द करने जैसे कदम सरकार ने उठाए। इस पृष्ठभूमि में यूएन निकाय ने कहा कि संशोधित कानून भारत के संविधान और भारत में नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय करार और नस्लीय भेदभाव उन्मूलन के लिए कन्वेंशन के तहत भारत के दायित्वों से पहले समानता के प्रति प्रतिबद्धता को कम करने के रूप में दिखेगा। जिसके लिए भारतीय एक राज्य पार्टी है जो नस्लीय जातीय या धार्मिक आधार पर भेदभाव पर रोक लगाती है। हालांकि भारत के व्यापक प्राकृतिककरण कानून अपनी जगह हैं लेकिन इन संशोधनों का राष्ट्रीयता के लिए लोगों की पहुंच पर भेदभावपूर्ण प्रभाव पड़ेगा। इसमें पहचान के आधार पर बिना किसी भेदभाव सभी सताए गए वर्गों को सुरक्षा प्रदान करने का आह्वान किया गया। जबकि सताए गए वर्गों की रक्षा का लक्ष्य स्वागत योग्य है। यह एक मजबूत राष्ट्रीय शरण प्रणाली के माध्यम से किया जाना चाहिए जो समानता और बिना किसी भेदभाव के सिद्धांत पर आधारित हो और जो उत्पीड़न और अन्य मानवाधिकारों की सुरक्षा की आवश्यकता वाले सभी लोगों पर लागू होता हो जिनमें जाति, धर्म, राष्ट्रीय मूल या अन्य निषिद्ध आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया गया हो। संभवत अधिनियम के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिकाओं को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त ने आशा व्यक्त की है कि सर्वोच्च न्यायालय कानून की समीक्षा करेगा और भारत के अंतरराष्ट्रीय दायित्वों के साथ उसकी संगतता पर विचार करेगा। हम समझते हैं कि नए कानून की भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समीक्षा की जाएगी और आशा है कि वह भारत के मानवाधिकार अधिकारों के साथ कानून की अनुकूलता पर ध्यान से विचार करेगा। पुलिस की गोलियों से दो प्रदर्शनकारियों की हत्याओं की खबरों का हवाला देते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने अधिकारियों से शांतिपूर्ण सभा के अधिकार का सम्मान करने और विरोध प्रदर्शन का जवाब देने के लिए बल के उपयोग पर अंतरराष्ट्रीय मानदंडों और मानकों का पालन करने की अपील की। हम उन रिपोर्टों पर चिंतित हैं कि दो लोगों की मौत हो गई है और पुलिस अधिकारियों सहित कई लोग भारतीय राज्यों असम और त्रिपुरा में घायल हो गए हैं क्योंकि जो लोग अधिनियम का विरोध कर रहे हैं। हम अधिकारियों से शांतिपूर्ण सभा के अधिकार का सम्मान करने और विरोध का जवाब देते समय बल के उपयोग पर अंतरराष्ट्रीय मानदंडों और मानकों का पालन करने का आह्वान करते हैं। सभी पक्षों को हिंसा का सहारा लेने से बचना चाहिए।
नागरिकता कानून लागू करने के लिए बाध्य हैं,राज्य?
कई गैरबीजेपी शासित राज्य के मुख्यमंत्रियों ने ऐलान किया है कि वो अपने राज्य में इस कानून को लागू नहीं होने देंगे। सवाल है कि क्या वो ऐसा कर सकते हैं? क्या राज्यों के पास ये अधिकार है कि वो केंद्र के बनाए कानून को अपने यहां लागू होने से रोक दें। इस बारे में संविधान में क्या व्यवस्था है? पश्चिम बंगाल, केरल और पंजाब के मुख्यमंत्रियों ने कहा है कि वो अपने यहां नागरिकता संशोधन कानून को लागू नहीं होने देंगे। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सरकारों ने भी अपने यहां नया नागरिकता कानून नहीं लागू करने की बात कही है। इन्होंने आधिकारिक ऐलान तो नहीं किया है लेकिन कहा गया है कि वो कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के स्टैंड के मुताबिक ही एक्ट का विरोध करेंगे। इसी तरह से महाराष्ट्र में शिवसेना नेता संजय राउत ने कहा है नया एक्ट संविधान का उल्लंघन करता है। उनका कहना है कि राज्य में इसे लागू करने या न करने का फैसला मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे लेंगे। जबकि महाराष्ट्र में सरकार में साझीदार कांग्रेस पार्टी के नेताओं का कहना है कि वो राज्य में नया नागरिकता कानून लागू नहीं होने देंगें। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बिल के पास होने से पहले ही इसका विरोध किया था। बनर्जी ने शुक्रवार को भी कहा कि वो राज्य में इसे लागू नहीं होने देंगी। ममता बनर्जी नए कानून के खिलाफ 16 दिसंबर को कोलकाता में बड़ी रैली करने वाली हैं। केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने कहा कि नया कानून असंवैधानिक है। ये धर्म के आधार पर भेदभाव फैलाने वाला है, जिसकी इजाजत संविधान कतई नहीं देता। पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने कहा है कि पंजाब विधानसभा नए कानून को राज्य में लागू करने से रोक देगी। ये संविधान के खिलाफ है। कुछ कानून के जानकारों का यह भी कहना है कि मुख्यमंत्री सिटीजनशिप एक्ट का राजनीतिक विरोध कर सकते हैं लेकिन उनके पास इतना अधिकार नहीं है कि वो राज्य में इसे लागू करने से रोक सकें। हकीकत ये है कि कोई भी राज्य केंद्र के बनाए कानून को अपने यहां लागू होने से नहीं रोक सकता। गृहमंत्रालय की तरफ से भी कहा गया है कि कोई भी राज्य अपने यहां केंद्र के बनाए कानून जो केंद्र की लिस्ट में आते हैं को अपने यहां लागू करने से नहीं रोक सकते हैं। हां इसके लागू किए जाने की स्थिति में कानून व्यवस्था के खराब होने जाने के अंदेशे की बात जरूर की जा सकती है। इस बारे में संविधान की सातवीं अनुसूची में व्यवस्था दी गई है। संविधान की सातवीं अनुसूची में केंद्र और राज्यों की ताकत का बंटवारा किया गया है। भारत के संघीय ढांचे में राज्यों के पास भी अधिकार हैं, लेकिन केंद्रीय लिस्ट वाले अधिकार में वो दखल नहीं दे सकते। संविधान ने अलग.अलग विषयों पर केंद्र और राज्यों को अधिकार सौंपे हैं। इसमें केंद्रीय लिस्ट में ऐसे 100 विषय हैं जिनपर कानून बनाने का अधिकार केंद्र सरकार को दिया गया है। इसी तरह से राज्यों की लिस्ट में ऐसे 52 विषय हैं, जिसपर कानून बनाने का अधिकार राज्यों को दिया गया है। इसी तरह से कुछ विषय समवर्ती सूची में रखे गए हैं, जिन पर कानून बनाने का अधिकार केंद्र और राज्य दोनों के पास है। नागरिकता का विषय केंद्र के अंतर्गत आता है। इसलिए इसपर कानून बनाने का अधिकार केंद्र सरकार के पास है। इस मामले पर गतिरोध बढ़ने परए संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत उन राज्यों में राष्ट्रपति शासन भी लगाया जा सकता है।
संसद द्वारा पारित कानून को सिर्फ सुप्रीम कोर्ट ही रद्द कर सकता है
संविधान के अनुसार संसद द्वारा बनाए गए कानून या सरकार के निर्णय को हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में ही चुनौती दी जा सकती है। नए कानून के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अनेक याचिकाएं दायर की गई हैं। पश्चिम बंगाल की टीएमसी सांसद महुवा मित्रा की याचिका की मेंशनिंग के दौरान सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने इस मामले में जल्द सुनवाई के बारे में आदेश देने से इनकार कर दियाण् सन 1973 में केशवानंद भारती के ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट की 13 जजों की बेंच ने कहा था कि संविधान के बेसिक ढांचे के उल्लंघन करने वाले कानूनों को अवैध घोषित किया जा सकता है। इन सभी मामलों में सुप्रीम कोर्ट में आने वाले दिनों में सुनवाई होगी। सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस मामले पर अंतरिम आदेश या अंतिम फैसले के पहले सभी राज्यों को संसद द्वारा पारित कानून को मानना ही पड़ेगा।
संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं
आलोचकों द्वारा इस कानून को संविधान के अनुच्छेद 14 यानि समानता और अनुच्छेद 21 यानि जीवन के अधिकार का नियम के खिलाफ बताया जा रहा है। गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में कहा था कि अनुच्छेद 14 के तहत सरकार और संसद को वर्गीकरण करने का हक है, जिसके अनुसार पड़ोसी 3 राज्यों के अल्पसंख्यकों के हक में यह कानून बनाया गया है। परन्तु इस तर्क से आगे सबसे बड़ी बात यह है कि संविधान का अनुच्छेद 14 विदेशी लोगों पर सिर्फ सीमित तरीके से ही लागू होता है। विदेशी लोगों को संविधान के अनुच्छेद 20 और 21 के तहत जीवन का हक हासिल है लेकिन अन्य मामलों में विदेशी लोग भारत में समानता के अधिकार की मांग नहीं कर सकते। भारत की नागरिकता हासिल करना किसी भी विदेशी व्यक्ति का मूल अधिकार कैसे हो सकता है? भारत ने अनेक देशों के नागरिकों के लिए अलग.अलग वीजा नियम बनाए गए हैं। ऐसे नियम यूरोप और अमेरिका ने भी बनाए हैं जिन्हें विभेदकारी नहीं माना जाता तो फिर भारत में किन शरणार्थियों को नागरिकता मिलेगी, इस पर केंद्र सरकार और संसद को ही फैसला करने का हक है।