न्यायिक प्रक्रिया की गम्भीरता को समझना प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है। न्यायिक प्रक्रिया से जुड़े पक्ष-विपक्ष रूपी दो व्यक्ति हों या सरकार, वकील हों या न्यायाधीश सभी को अपना एक ही लक्ष्य बनाकर रखना चाहिए ‘शीघ्र और सही न्याय’। जो व्यक्ति इस लक्ष्य में बाधक बनता दिखाई दे उसे न्यायिक प्रक्रिया का दोषी ही समझना चाहिए।
अनुशासन का शाब्दिक अर्थ है शासन अर्थात् सत्ता का अनुकरण। सर्वप्रथम हमें सत्ता में निष्ठा व्यक्त करनी चाहिए, सत्ता के आदेशों को समझना और उनका अनुपालन करना चाहिए। इन सब प्रश्नों से भी पहला यह प्रश्न है कि सत्ता क्या है? सत्ता का अर्थ होता है वह शक्ति जो हमारे अस्तित्त्व अर्थात् जीवन का सहारा उपलब्ध कराती है। इस दृष्टि से हमारे जीवन की मूल सत्ता तो वह दिव्य शक्ति है जिसे हम भगवान या किसी भी अन्य नाम से मानते हैं। सारी सृष्टि का संचालन करने वाली वह दिव्य शक्ति हमें जीने के लिए प्रतिक्षण श्वास प्रदान करती है। जैसे ही वह शक्ति हमे श्वास देना बन्द कर देती है उसी क्षण हम इस सारी जीवन लीला को छोड़कर मृत्यु के मुख में जाने के लिए मजबूर हो जाते हैं। यही वो सत्ता है जो मृत्यु से पूर्व केवल श्वास के माध्यम से ही नहीं अपितु अनेकों प्रकार के सुखों और दुःखों के रूप में हमें हमारे कर्मों का फल भी प्रदान करती है। यही वो सत्ता है जो कर्मफल के माध्यम से सारी सृष्टि में अपने दिव्य न्याय को भी स्थापित करती है। इस दिव्य न्याय से कोई बच नहीं सकता। इसलिए बुद्धि के सहारे जीवन जीने वाले प्रत्येक मनुष्य के लिए यह लाभकारी ही होगा कि वह इस सर्वोच्च सत्ता के प्राकृतिक नियमों को समझे। प्रकृति माता हर पल दोनों हाथों से मनुष्य के लिए हर प्रकार की सुख सामग्री समर्पित कर रही है जिसके सहारे ही मनुष्य अपना जीवन शांतिपूर्ण तरीके से व्यतीत कर सकता है। परन्तु जब व्यक्ति ईष्र्या, द्वेष और लोभ आदि की दौड़ में प्रकृति माता के नियमों का उल्लंघन करने लगता है तो यही प्रकृति माता उसे दण्डित करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ती। इसलिए प्रत्येक मनुष्य से अपेक्षित है कि इन प्राकृतिक नियमों का अनुपालन करे अन्यथा इन प्राकृतिक नियमों का अनुपालन न करने के दोष को प्रकृति की अवमानना समझा जायेगा और दोषी को प्राकृतिक तरीके से ही दण्ड भोगना पड़ता है।
मनुष्य ने जब समाज और सरकार की स्थापना की तो इस दिव्य व्यवस्था के आधार पर ही इस मानवकृत संचालन व्यवस्था के नियमों और कानूनों का कड़ाई से पालन सुनिश्चित करवाने के लिए दोषी व्यक्तियों को सजा देने का अधिकार भी अपने पास सुरक्षित कर लिया। सरकार के विधायिका नामक अंग ने नियम-कानून बनाये। कार्यपालिका की जिम्मेदारी निर्धारित की गई कि उसके अधिकारी इन नियमों-कानूनों का पालन सुनिश्चित करवायें। न्यायपालिका के कन्धों पर इन्हीं नियमों-कानूनों के सहारे विवाद निवारण का दायित्व रखा गया। समाज में जो व्यक्ति सरकारी सत्ता के नियमों के अनुसार कार्य नहीं करता, न्यायपालिका उस व्यक्ति को चेतावनी देती है, कभी-कभी उसे अपने दुष्कर्मों पर प्रायश्चित करने का अवसर भी दिया जाता है और अन्ततः न्यायपालिका प्रत्येक गलत कार्य के विरुद्ध एक निर्णय देती है। उस निर्णय का पालन न करने वाले व्यक्ति को न्याय की अवमानना का दोषी मानते हुए दण्डित करने का अधिकार भी न्यायपालिका के पास सुरक्षित है।
अक्सर लोग न्यायपालिका के सामान्य आदेशों को गम्भीरता के साथ नहीं देखते। सामान्य जनता तो क्या स्वयं सरकारी अधिकारी भी न्यायालय के आदेशों पर तब तक उचित कार्यवाही नहीं करते जब तक उनके विरुद्ध भी विशेष दण्डात्मक कार्यवाही का भय न दिखाया जाये। इसलिए न्यायाधीशों को अपने इस विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए अपने प्रत्येक आदेश का समयबद्ध रूप से पालन सुनिश्चित करवाने के लिए न्यायालय की अवमानना रूपी प्रावधानों का भय अवश्य ही बनाये रखना चाहिए।
मद्रास उच्च न्यायालय ने इण्डियन ओवरसीज़ बैंक के एक अधिकारी एस.वी. चेन्नाकृष्णनन के विरुद्ध चलने वाली विभागीय कार्यवाही को स्थगित करने का आदेश दिया। परन्तु इस आदेश का घोर उल्लंघन करते हुए बैंक के अनुशासनात्मक अधिकारी ने याचिकाकर्ता के विरुद्ध न केवल कार्यवाही जारी रखी अपितु उसे नौकरी से भी निकाल दिया। मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री एम.वी. मुरलीधरन ने बैंक अधिकारियों के विरुद्ध अवमानना कार्यवाही के अन्तर्गत 2 हजार रुपये का जुर्माना तथा एक सप्ताह की साधारण कैद का आदेश दिया।
न्यायालय की अवमानना के मामलों में अदालतों को कड़ा दृष्टिकोण ही अपनाना चाहिए। अनेकों बार घमण्डी अधिकारियों को यह कहते हुए देखा जा सकता है कि अदालत के आदेशों से क्या होता है, काम तो हमने करना है। हालांकि ऐसे घमण्डी अधिकारियों की प्रतिशत मात्रा कम ही होगी परन्तु ऐसे लोगों के कारण एक तरफ पूरी न्याय व्यवस्था का तिरस्कार होता है तो दूसरी तरफ पीड़ित व्यक्ति की आशाओं को ठेस पहुँचती है। यह सहज कल्पना की जा सकती है कि पीड़ित व्यक्ति किस प्रकार धन और समय खर्च करके अदालतों के समक्ष अपना पक्ष प्रस्तुत करता है, उसे उचित सिद्ध करने के लिए कड़ी मेहनत करता है और एक लम्बे संघर्ष के बाद अपने पक्ष में आदेश प्राप्त करता है। इस सारी प्रक्रिया में वह लगातार एक मानसिक दबाव में जीवन जीने के लिए मजबूर होता है। इस संघर्ष के बाद जब उसे अपने पक्ष में आदेश प्राप्त होता है तो उसकी प्रसन्नता भी कभी-कभी उसके लिए मानसिक समस्या का रूप ही ले लेती है। इसके बावजूद कभी-कभी जब पीड़ित व्यक्ति इन आदेशों की पालना के लिए भी एक नये संघर्ष के लिए मजबूर हो जाता है। इस नये संघर्ष का नाम है न्यायालय की अवमानना रूपी कार्यवाही। अतः सभी न्यायाधीशों को ऐसी मानसिक अवस्था को भी अपने ध्यान में रखना चाहिए और न्यायालय की अवमानना को तो सख्ती से ही निपटा जाना चाहिए।
अवमानना के इस चक्रव्यूह में कलकत्ता उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश श्री करनन स्वयं ही फंसते नजर आ रहे हैं। श्री करनन के अवमाननापूर्ण कार्यों की शुरुआत तब हुई जब मद्रास उच्च न्यायालय में कार्य करते हुए उन्हें कलकत्ता उच्च न्यायालय स्थानान्तरित किया गया। उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का स्थानान्तरण केन्द्र सरकार का न्याय एवं कानून मंत्रालय करता है। न्यायमूर्ति श्री करनन ने इस स्थानान्तरण आदेश को स्वयं ही स्थगित करते हुए आदेश जारी कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप पर उन्हें कलकत्ता जाना ही पड़ा। इसके बाद उन्होंने प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी को पत्र लिखकर उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों में व्याप्त भ्रष्टाचार की शिकायत की। इन न्यायाधीशों में कई वर्तमान कार्यरत न्यायाधीश भी थे। उनके इस पत्र के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय ने अवमानना की कार्यवाही प्रारम्भ कर दी। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद श्री करनन 7 न्यायाधीशों की संविधान पीठ के समक्ष प्रस्तुत नहीं हुए। सर्वोच्च न्यायालय ने उनके विरुद्ध जमानती वारंट जारी किया तो श्री करनन ने उस वारंट को ही रद्द कर दिया। इस प्रकार उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय की सत्ता के बीच रस्साकसी किसी भी दृष्टि से उचित प्रतीत नहीं हो रही। श्री करनन ने बेशक न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार का कितना ही उचित उल्लेख क्यों न किया हो परन्तु उसके आगे पीछे का व्यवहार अवश्य ही अवमानना कार्यवाही को बल देता है। यदि न्यायाधीश स्वयं ही न्याय की सत्ता के प्रति गम्भीर नहीं होंगे तो उन्हें भी इसी अवमानना प्रक्रिया का दण्ड भोगना ही चाहिए।
न्यायिक प्रक्रिया की गम्भीरता को समझना प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है। न्यायिक प्रक्रिया से जुड़े पक्ष-विपक्ष रूपी दो व्यक्ति हों या सरकार, वकील हों या न्यायाधीश सभी को अपना एक ही लक्ष्य बनाकर रखना चाहिए ‘शीघ्र और सही न्याय’। जो व्यक्ति इस लक्ष्य में बाधक बनता दिखाई दे उसे न्यायिक प्रक्रिया का दोषी ही समझना चाहिए। यदि अवमानना को इतने सूक्ष्म स्तर पर लागू किया जा सके तो न्याय की अवधारणा शीघ्र ही एक सुखकारी और सरल प्रक्रिया बन जायेगी।
विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट