हमारे देश में आपराधिक और दीवानी मुकदमेंबाजी लम्बी अवधि के कारण ही न्याय के नाम पर अन्याय की स्थापना करती चली जा रही है। यह एक गम्भीर विडम्बना है जिस पर बड़े से बड़े बुद्धिमान न्यायाधीशों और केन्द्र सरकार के उच्च नेताओं को भी कोई मार्ग नहीं मिल रहा। वैसे हर समस्या का एक ही उपाय है – जब तक हमारे देश में नैतिकता और ईमानदारी पूर्वक कत्र्तव्यपालन जैसे लक्षणों का नागरिकों के रक्त में संचार नहीं किया जाता तब तक न्याय के नाम पर किया गया प्रत्येक कदम एक छलावा ही साबित होगा।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय में अनेकों निर्णयों के माध्यम से प्राकृतिक न्याय के मूल सिद्धान्तों की अनेकों बार विवेचना प्रस्तुत करते हुए आज इन सिद्धान्तों को कानून और न्यायिक प्रक्रियाओं का मुख्य आधार बना दिया है। आज यह सामान्य जानकारी का विषय बन चुका है कि यदि किसी छोटे से कारोबार में भी किसी कर्मचारी को नौकरी से हटाना हो तो उसके विरुद्ध सर्वप्रथम उसकी गल्तियों का समावेश करते हुए उसे एक नोटिस जारी किया जाता है। इस नोटिस का उत्तर प्राप्त होने के बाद उसे एक चार्जशीट जारी करते हुए एक छानबीन अधिकारी नियुक्त किया जाता है। छानबीन अधिकारी किसी ऐसे व्यक्ति को बनाया जाता है जिसे कानून और प्राकृतिक न्याय के मूल सिद्धान्तों की अच्छी जानकारी हो। वैसे छानबीन अधिकारी का कार्य बहुत तकनीकी या कष्टदायक नहीं होता। उसे सर्वप्रथम चार्जशीट में लिखे गये आरोपों के समर्थन में दस्तावेज़ी प्रमाणों सहित गवाहों के वक्तव्य लिखने होते हैं। जिस कर्मचारी के विरुद्ध छानबीन की जा रही है उसे इन गवाहों से जिरह अर्थात् प्रश्न पूछने का पूरा अवसर दिया जाता है। इसी प्रकार आरोपित कर्मचारी को भी अपने समर्थन में दस्तावेज़ तथा गवाहों को प्रस्तुत करने का अवसर दिया जाता है। इस प्रकार की प्रक्रिया पूरी करने के बाद छानबीन अधिकारी अपने समक्ष प्रस्तुत दस्तावेज़ों और वक्तव्यों के आधार पर अपना निष्पक्ष निर्णय दे। उसके निर्णय को स्वीकार करना या न करना अनुशासनात्मक अधिकारी के विवेक पर होता है। यदि अनुशासनात्मक अधिकारी कर्मचारी को नौकरी से हटाने का निर्णय देता है तो इस निर्णय के विरुद्ध अपील करने का अधिकार भी आरोपित कर्मचारी को दिया जाता है। अपील प्रक्रिया में यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि अपील सुनने वाला अधिकारी छानबीन अधिकारी तथा अनुशासनात्मक अधिकारी से उच्च दर्जे का होना चाहिए। छानबीन अधिकारी या अनुशासनात्मक अधिकारी किसी भी प्रकार से उस अपील की सुनवाई का अंग न बनें। यदि इस प्रकार प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों का अनुसरण करते हुए भ्रष्ट और लापरवाह कर्मचारियों को नौकरी से हटाया जाता है तो सामान्यतः उच्च न्यायालय और यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय ऐसे निर्णयों में हस्तक्षेप नहीं करते।
नौकरी के मामलों में अनुशासनात्मक कार्यवाही में यदि किसी प्रकार से भी इन मूल सिद्धान्तों का अनुसरण नहीं किया जाता तो उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा मजबूरी में भ्रष्ट और लापरवाह कर्मचारियों को लाभ मिल जाता है। वैसे अक्सर इस बात की भी पूरी सम्भावना होती है कि भ्रष्ट और लापरवाह कर्मचारी ऐसी अनुशासनात्मक कार्यवाहियों में जानबूझकर और रिश्वत देकर कई प्रकार की कमियाँ छुड़वाने का प्रयास करती हैं और भ्रष्टाचारी तंत्र ऐसे कर्मचारियों का सहयोगी बना रहता है। परिणामस्वरूप भ्रष्टाचार से इक्ट्ठे किये गये धन के बल पर भ्रष्ट कर्मचारी किसी निजी कारोबार में लगे रहते हैं और निलम्बन भत्ता उनके लिए पेंशन के समान हो जाता है। अन्त में न्यायालय न्यायिक कमजोरियों का लाभ भी ऐसे ही कर्मचारियों को देकर उन्हें पूर्ण वेतन का अधिकारी भी बना देता है। ऐसी प्रक्रियाओं को देखकर लगता है ‘‘न इज्जत की चिन्ता, न फिकर किसी अपमान की – जय बोलो बेईमान की, जय बोलो’’।
बिहार राज्य वित्त निगम में सहायक महाप्रबन्धक के उच्च पद पर कार्य करने वाला बृजबिहारी सिंह मार्च, 1993 में इस नौकरी से निलम्बित कर दिया गया। उस आरोप था कि उसने कुछ निजी ठेकेदारों को मनमाने तरीके से झूठे दस्तावेज़ों के आधार पर कार्य आबंटित किया और कार्य करवाये बिना या अधूरे कार्य के बल पर लाखों रुपये की धनराशियों का भुगतान उन्हें कर दिया। यह सब करते हुए हर प्रकार के कायदे कानूनों को ताक पर रख दिया गया। उसकी अपनी कोई कार नहीं थी, इसके बावजूद उसने कार्यालय से कार भत्ता प्राप्त किया। उसने अपनी सम्पत्तियाँ खरीदी जिनमें गलत तथ्यों के आधार पर तथा सम्पत्ति खरीद की राशियों का स्रोत बताये बिना विक्रयनामें करवाये गये। उसके निलम्बन के बाद निगम ने एक छानबीन अधिकारी नियुक्त किया जिसने उसे दोषी ठहराया। इसके बाद उसे महाप्रबन्धक ने पुनः नोटिस जारी किया गया परन्तु इस नोटिस पर निर्णय देने के स्थान पर उसी महाप्रबन्धक ने नौकरी से हटाये जाने की संस्तुति करते हुए निदेशक मण्डल के सामने यह सारा मामला प्रस्तुत कर दिया। निदेशक मण्डल ने बृजबिहारी सिंह को नौकरी से हटाने का आदेश दिया। निदेशक मण्डल में महाप्रबन्धक स्वयं भी एक सदस्य था जिसकी संस्तुति पर यह निर्णय दिया गया। इस प्रकार बृजबिहारी सिंह को अपील करने का कोई अधिकार नहीं दिया गया। बृजबिहारी ने इस निर्णय के विरुद्ध पटना उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश के समक्ष याचिका प्रस्तुत की जो रद्द कर दी गई। दो न्यायाधीशों की खण्डपीठ ने उसकी अपील को भी रद्द कर दिया। इस प्रकार अब बृजबिहारी सर्वोच्च न्यायालय पहुँचा।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री एम. वाई. इकबाल तथा श्री सी. नागप्पन की खण्डपीठ ने इस मामले की सुनवाई करते हुए प्राकृतिक न्याय के मूल सिद्धान्तों पर एक बार फिर सारा विवेचन प्रस्तुत कर दिया। इस मामले में पाया गया कि छानबीन अधिकारी ने केवल सरकारी दस्तावेज़ों के आधार पर अपना निर्णय दिया था। इस प्रकार आरोपित कर्मचारी को दस्तावेज़ प्रस्तुत करने वाले किसी अधिकारी से प्रश्न करने का कोई अवसर ही प्राप्त नहीं हुआ। छानबीन अधिकारी के बाद अनुशासनात्मक कार्यवाही करने वाले महाप्रबन्धक ने भी उसे अपील पर सुनवाई का कोई अधिकार नहीं दिया। बल्कि अनुशासनात्मक निर्णय सुनाने वाला अधिकारी स्वयं ही अपील अधिकारी के स्तर पर भी विद्यमान था। सर्वोच्च न्यायालय ने 1993 के निलम्बन आदेश पर लगभग 22 वर्ष चली इस सारी कानूनी प्रक्रिया को निरर्थक मानते हुए पुनः सारा मामला अनुशासनात्मक अधिकारी के पास भेज दिया और निर्णय में यह निर्देश दिया कि बृजबिहारी के विरुद्ध नये सिरे से छानबीन प्रक्रिया प्रारम्भ करके प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों के अनुरूप कार्यवाही की जाये। दुबारा प्रारम्भ होने वाली इस प्रक्रिया से भी यदि बृजबिहारी संतुष्ट न हो तो वह पुनः अपील करने का अधिकारी होगा। इस प्रकार 1993 की यह अनुशासनात्मक कार्यवाही अब 2015 में पुनः प्रारम्भ होगी तो पूरी सम्भावना है कि सरकारी कार्यालयों में न तो वे मूल दस्तावेज़ मिलेंगे और न ही उस समय के अधिकारी, कर्मचारी मिलेंगे जो उन दस्तावेज़ों के साथ अपना वक्तव्य प्रस्तुत कर पायें। यदि सबकुछ मिल भी गया तो एकबार फिर भ्रष्टाचार का प्रयोग करके छानबीन को कमजोर करने का हर सम्भव प्रयास होगा। अगले कुछ वर्षों के संघर्ष के बाद अन्ततः फिर न्यायालय प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों को लागू करने में कुछ कमियाँ देख लेगा तो आरोपित कर्मचारी को आरोप से पूरी तरह मुक्त घोषित कर दिया जायेगा। भारत की अदालतों को यह देखना चाहिए कि छानबीन प्रक्रियाओं में इतनी लापरवाहियाँ होती ही क्यों हैं? क्या ऐसे लापरवाह छानबीन अधिकारियों और अनुशासनात्मक अधिकारियों के विरुद्ध किसी दण्ड आदि का कोई पैमाना नहीं बनाया जा सकता? यदि ऐसा हो सके तो सम्भवतः मुकदमों को कमजोर तरीके से अदालतों के समक्ष प्रस्तुत करने की परम्परा पर लगाम लग पायेगी। पुलिस का भ्रष्टाचार भी इसी प्रकार मुकदमों को कमजोर तरीके से अदालतों के समक्ष प्रस्तुत करता है जिससे आरोपित व्यक्ति के बचने की सम्भावनाएँ प्रबल हो जाती हैं।
दूसरी तरफ कानूनी प्रक्रियाएँ जितनी लम्बी चलती हैं उसका लाभ भी आरोपित व्यक्तियों को होता है। हमारे देश में आपराधिक और दीवानी मुकदमेंबाजी भी इसी कारण बहुतायत न्याय के नाम पर अन्याय की स्थापना करती चली जा रही है। यह एक गम्भीर विडम्बना है जिस पर बड़े से बड़े बुद्धिमान न्यायाधीशों और केन्द्र सरकार के उच्च नेताओं को भी कोई मार्ग नहीं मिल रहा। वैसे हर समस्या का एक ही उपाय है – जब तक हमारे देश में नैतिकता और ईमानदारी पूर्वक कत्र्तव्यपालन जैसे लक्षणों का नागरिकों के रक्त में संचार नहीं किया जाता तब तक न्याय के नाम पर किया गया प्रत्येक कदम एक छलावा ही साबित होगा।
-विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट