सेवा निवृत्ति के बाद प्रत्येक न्यायाधीश उतना ही स्वतंत्र है जितना एक सामान्य नागरिक या सामाजिक और राजनीतिक नेता। सेवा निवृत्ति के बाद कोई न्यायाधीश किसी भी सरकारी या गैर-सरकारी संगठन का हिस्सा भी बन सकता है।
प्रत्येक मुकदमें में एक-दूसरे के विरोधी दो पक्ष होते हैं। मुकदमें का निर्णय स्वाभाविक रूप से एक पक्ष का समर्थन करता है तो दूसरे पक्ष को निराश करता है। जिस पक्ष का समर्थन होता है उसका हर्ष और उल्लास से भर जाना भी स्वाभाविक है। इस हर्ष उल्लास के वातावरण में विजेता पक्ष मन ही मन न्यायाधीश की प्रशंसा अवश्य ही करता है। यह प्रशंसा और सम्मान कई बार भाषणों तथा अन्य माध्यमों से व्यक्त भी किये जाते हैं। इस हर्षोल्लास की अभिव्यक्ति करने के लिए यदि कोई संस्था या व्यक्ति न्यायाधीश को सार्वजनिक रूप से सम्मानित करने का प्रयास करे तो इस परम्परा को न्याय व्यवस्था के लिए उचित नहीं समझा जायेगा। विशेष रूप से न्यायाधीश की सेवा निवृत्ति से पूर्व यदि कोई कार्यरत न्यायाधीश को उसके निर्णयों के लिए सार्वजनिक रूप से सम्मानित करने का प्रस्ताव करता है तो कार्यरत न्यायाधीश को कभी भी ऐसे प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करना चाहिए।
सेवा निवृत्ति के बाद प्रत्येक न्यायाधीश उतना ही स्वतंत्र है जितना एक सामान्य नागरिक या सामाजिक और राजनीतिक नेता। सेवा निवृत्ति के बाद कोई न्यायाधीश किसी भी सरकारी या गैर-सरकारी संगठन का हिस्सा भी बन सकता है। वह सक्रिय रूप से किसी भी पद पर रहकर कार्य भी कर सकता है। इस प्रकार सेवा निवृत्ति के बाद न्यायाधीशों के सार्वजनिक सम्मान पर भी कोई प्रतिबन्ध नहीं है।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्री के. एस. राधाकृष्णन वर्ष 2014 में सेवा निवृत्त हुए। अपने सेवाकाल के दौरान न्यायमूर्ति श्री राधाकृष्णन ने जलिकट्टू को लेकर सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय दिया था जिसमें जलिकट्टू पर प्रतिबन्ध लगाने की बात कही गई थी। वर्ष 2014 में सेवा निवृत्ति के बाद न्यायमूर्ति श्री राधाकृष्णन को तमिलनाडू की एक संस्था ने ‘‘वर्ष 2015 का मैन आॅफ द ईयर’’ अवार्ड से सम्मानित किया गया।
इस कार्यक्रम के विरुद्ध एक नागरिक ने मद्रास उच्च न्यायालय की मदुरै खण्डपीठ का द्वार खटखटाया और न्यायमूर्ति श्री राधाकृष्णन को यह अवार्ड वापिस करने का आदेश देने की प्रार्थना की गई। मदुरै उच्च न्यायालय में इस याचिका पर राष्ट्रपति के सचिव, कानून मंत्रालय तथा अवार्ड देने वाली संस्था को नोटिस जारी किया। इस कार्यवाही के विरुद्ध न्यायमूर्ति श्री राधाकृष्णन को सर्वोच्च न्यायालय का द्वार खटखटाना पड़ा।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद-121, 124(4) तथा 211 में सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को अपने न्यायिक अधिकारों से किये गये कार्यों के प्रति पूर्ण संवैधानिक सुरक्षा प्रदान की गई है। इन प्रावधानों का सार यह है कि न्यायाधीश के रूप में किये गये कार्यों को लेकर देश की कोई भी दीवानी या आपराधिक अदालत किसी प्रकार की कार्यवाही प्रारम्भ नहीं कर सकती। सेवा निवृत्ति के बाद प्रत्येक न्यायाधीश एक सामान्य नागरिक की तरह स्वतंत्र नागरिक होता है और रिट् याचिकाओं के आदेश किसी नागरिक पर नहीं लगते। इस मुकदमें में जिन सरकारी पदों या कार्यालयों को पक्षकार बनाया गया था उनका इस सारे मामले से कोई सम्बन्ध नहीं था। यह अवार्ड न्यायमूर्ति श्री राधाकृष्णन की सेवा निवृत्ति के लगभग एक वर्ष बाद दिया गया था। जलिकट्टू मुकदमें पर बेशक मूल निर्णय न्यायमूर्ति श्री राधाकृष्णन की पीठ के द्वारा दिया गया था परन्तु बाद में इस निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च के अन्य न्यायाधीशों ने पुनर्विचार याचिका पर भी सुनवाई की थी। यह पुनर्विचार याचिका भी न्यायमूर्ति श्री राधाकृष्णन की सेवा निवृत्ति के बाद ही सुनी गई थी।
सर्वोच्च न्यायालय के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश श्री जे. एस. खेहर तथा न्यायमूर्ति श्री रमन्ना की पीठ ने मदुरै उच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत इस रिट् याचिका पर कार्यवाही को स्थगित कर दिया।
आधुनिक समय में वकीलों के विरुद्ध उनके अपने पक्षकारों की ही शिकायतें बढ़ती जा रही हैं, परन्तु अधिवक्ता कानून की धारा-36बी के अनुसार राज्य की बार काउंसिल किसी अधिवक्ता के विरुद्ध यदि एक वर्ष में शिकायत पर कार्यवाही पूर्ण न कर सके तो वह शिकायत निरर्थक बन जाती है। जिस अधिवक्ता के विरुद्ध शिकायत दर्ज करवाई गई हो वह हर सम्भव प्रयास करके कार्यवाही को एक वर्ष से अधिक तक टालने का प्रयास ही करता रहेगा। इस प्रकार शिकायत की कोई भी प्रक्रिया निरर्थक ही सिद्ध होगी।
उत्तर प्रदेश की कुमारी अचल सक्सेना ने अपने अधिवक्ता सुधीर यादव के विरुद्ध राज्य बार काउंसिल के समक्ष 29 जून, 2005 को शिकायत प्रस्तुत की। इस शिकायत पर दिसम्बर 2005 में कार्यालय रिपोर्ट तैयार करके बार काउंसिल की बैठक में प्रस्तुत किया गया जिसमें इस शिकायत पर एक जाँच समिति नियुक्त की गई। जाँच समिति ने जनवरी, 2006 में सुनवाई भी प्रारम्भ कर दी। जाँच समिति ने 23 दिसम्बर, 2006 को शिकायत के सभी तथ्यों को स्वीकार करते हुए अधिवक्ता अधिनियम की धारा-35 के अन्तर्गत सुधीर यादव का नाम राज्य अधिवक्ता सूची में से हटाने की सज़ा घोषित की।
सुधीर यादव ने इस आदेश को भारतीय बार काउंसिल की अनुशासनात्मक समिति के समक्ष चुनौती दी। सुधीर यादव की अपील को स्वीकार करते हुए अनुशासनात्मक समिति ने अपने आदेश दिनांक 21 जनवरी, 2010 के द्वारा राज्य बार काउंसिल की अनुशासनात्मक समिति के आदेश दिनांक 23 दिसम्बर, 2006 को निरस्त कर दिया। इस निरस्तीकरण आदेश का मुख्य आधार अधिवक्ता अधिनियम की धारा-36बी था जिसके अनुसार राज्य बार काउंसिल को अनुशासनात्मक कार्यवाही एक वर्ष के भीतर समाप्त करनी होती है। इस अवधि के बाद राज्य बार काउंसिल समिति का अधिकार समाप्त हो जाता है। इसके अतिरिक्त राज्य बार काउंसिल की अनुशासनात्मक समिति के सभी सदस्यों ने इस शिकायत पर सुनवाई भी नहीं की थी। यह सुनवाई समिति के केवल एक ही सदस्य ने सम्पन्न की थी। राज्य बार काउंसिल की अनुशासनात्मक समिति द्वारा की गई और भी कई अनियमितताएँ इस प्रक्रिया में सिद्ध होती थी।
भारतीय बार काउंसिल के इस आदेश के विरुद्ध शिकायतकर्ता अचला शर्मा ने सर्वोच्च न्यायालय का द्वार खटखटाया। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री दीपक मिश्रा, श्री ए.एम. खानविलकर तथा श्री मोहन शान्तानागुदार की पीठ ने अधिवक्ता कानून की धारा-36बी के प्रावधान का उल्लेख करते हुए कहा कि एक वर्ष में कार्यवाही पूर्ण न होने पर राज्य बार काउंसिल की समिति को यह शिकायत भारतीय बार काउंसिल के समक्ष भेज देनी चाहिए थी। इसलिए राज्य बार काउंसिल की अनुशासनात्मक समिति द्वारा एक वर्ष के बाद दिये गये निर्णय को वैध नहीं माना जा सकता। बेशक सर्वोच्च न्यायालय ने भी भारतीय बार काउंसिल द्वारा शिकायत प्रक्रिया के दौरान बरती गई अन्य अनियमितताओं को भी महत्त्वपूर्ण माना।
अधिवक्ता कानून का यह प्रावधान अनेकों शिकायतों को निरर्थक बनाने में ही सहायक सिद्ध होगा। वैसे इस प्रकार के प्रावधान कई अन्य कानूनों में भी निर्धारित किये गये हैं जिनमें मुकदमों के समयबद्ध निपटारे की बात कही जाती है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं होता कि निर्धारित समय से अधिक अवधि होने पर वे सभी मुकदमें निरर्थक बन जायेंगे। उपभोक्ता कानून में भी सभी शिकायतों का निपटारा एक वर्ष के भीतर करने की बात कही गई है। परन्तु सामान्यतः मुकदमों के निपटारे में एक वर्ष से अधिक समय लगता ही है। ऐसे प्रावधान की व्याख्या उन अधिवक्ताओं के पक्ष में करना जिनके आचरण और व्यवहार से जनता पीड़ित हो, न्यायोचित प्रतीत नहीं होता।