पत्नी को अपने भाग्य के सहारे रहने के लिए मजबूर किया जाए और वित्तिय सहायता प्रदान करने के लिए पति का पवित्र कर्तव्य बनता है कि अगर उसे शारीरिक श्रम के साथ धन अर्जित करना पड़े तो वह भी करे, बशर्ते वह इस योग्य हो। इसलिए कोर्ट ने माना कि याचिकाकर्ता को गुजारा भत्ता देना ही होगा। भले ही उसकी प्रतिवादी पत्नी के पास आय का साधन है। प्रतिवादी पत्नी की तरफ से तीनों लड़कियों पर प्रतिमाह होने वाले खर्च का जो ब्यौरा दिया गया है वह 60 हजार रुपए से कहीं ज्यादा है। जबकि निचली अदालत ने प्रतिमाह गुजारे भत्ते की राशि 60 हजार रुपए तय की है। स्पष्टतौर पर तीनों बेटियों के पालन.पोषण में होने वाला बाकी खर्च प्रतिवादी पत्नी खुद अपने स्रोत से खर्च कर रही है। सिर्फ प्रतिवादी पत्नी कमा रही है,इस आधार पर याचिकाकर्ता पति को अपनी बच्चों के खर्च उठाने की जिम्मेदारी से बचने का बहाना नहीं मिल सकता है।
कानून रिव्यू/दिल्ली
दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि पति सिर्फ इस आधार पर अपने बच्चों के रख.रखाव की जिम्मेदारी से नहीं बच सकता है क्योंकि उसकी पत्नी कमाती है। जस्टिस संजीव सचदेवा की पीठ इस मामले में एक पुनविचार याचिका पर सुनवाई कर रही थी,जिसमें एक सेशन कोर्ट के आदेश को चुनौती दी गई थी। सेशन कोर्ट ने याचिकाकर्ता की उस अपील को खारिज कर दिया था,जो उसने निचली अदालत के आदेश के खिलाफ दायर की थी। याचिकाकर्ता एक मुस्लिम है,जिसने प्रतिवादी जो कि एक क्रिश्चियन है,से वर्ष 2004 में निकाह किया था। जिसके बाद इनकी शादी विशेष विवाह अधिनियम 1954 के तहत रजिस्टर्ड भी हुई थी। याचिकाकर्ता की अपनी पहली पत्नी से दो बेटियां थी और दूसरी शादी से भी दो और बच्चे हुए। वर्ष 2015 में वह दोनों अलग हो गए। जिसके बाद प्रतिवादी पत्नी ने अपनी दोनों बेटियों के साथ.साथ याचिकाकर्ता की पहली पत्नी से हुई एक नाबालिग बेटी की देखभाल शुरू कर दी। पहली शादी से हुई एक बेटी बालिग हो चुकी थी और उसने अपनी मर्जी से याचिकाकर्ता के साथ रहना शुरू कर दिया था। घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 की धारा 23 के तहत याचिकाकर्ता पर घरेलू हिंसा के आरोप लगाए गए। याचिकाकर्ता की पत्नी की याचिका पर सुनवाई करते हुए निचली अदालत ने याचिकाकर्ता पति को निर्देश दिया था कि वह अंतरिम गुजारे भत्ते के तौर पर साठ हजार रुपए अपनी पत्नी को दे। निचली अदालत ने कहा था कि याचिकाकर्ता की आय दो लाख रुपए महीने से कम नहीं है। इसी आदेश के खिलाफ याचिकाकर्ता ने सेशन कोर्ट में अपील दायर की थी, जो खारिज हो गई थी। हाईकोर्ट के समक्ष सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता की तरफ से दलील दी गई कि उसके पास आय का कोई स्रोत नहीं है क्योंकि जो व्यवसाय वह करता था,उसे प्रतिवादी पत्नी ने अपने नियंत्रण में ले लिया है। इसलिए उसे उसकी पत्नी व उसकी नाबालिग बेटियों की जिम्मेदारी से मुक्त किया जाए। हाईकोर्ट ने सेशन कोर्ट व निचली अदालत के परिणाम से सहमति जताते हुए कहा कि याचिकाकर्ता ने सच नहीं बोला और उसने अपनी आय व खर्चो का गलत ब्यौरा दिया है ताकि उसे अपनी पत्नी व बेटियों के लिए गुजारा भत्ता ना देना पड़े। कोर्ट ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ता की कानूनी,सामाजिक व नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वह अपनी पत्नी के साथ.साथ अपने बच्चों का भरण.पोषण करे। इसलिए वह अपनी बेटियों को गुजारा भत्ता देने की जिम्मेदारी से नहीं बच सकता है,भले ही यह मान लिया जाए कि उसकी पत्नी कमाती है। कोर्ट ने कहा कि .एक मां जिसके पास बच्चों की कस्टडी है,वह न सिर्फ उनके पालन.पोषण में पैसा खर्च करती है,बल्कि अपना समय भी देती है और उनको बड़ा करने के लिए मेहनत करती है। इसलिए बच्चों को बड़ा करने में एक मां द्वारा दिए गए समय व की गई मेहनत की कोई कीमत नहीं लगाई जा सकती है। भुवन मोहन सिंह बनाम मीना 2015 एससीसी 353 में दिए गए फैसले का हवाला देते हुए कोर्ट ने दोहराया कि सीआरपीसी की धारा 25 के तहत देयता से बचने के लिए,ऐसी स्थिति पैदा नहीं की जानी चाहिए जहां पत्नी को अपने भाग्य के सहारे रहने के लिए मजबूर किया जाए और वित्तिय सहायता प्रदान करने के लिए पति का पवित्र कर्तव्य बनता है कि अगर उसे शारीरिक श्रम के साथ धन अर्जित करना पड़े तो वह भी करे, बशर्ते वह इस योग्य हो। इसलिए कोर्ट ने माना कि याचिकाकर्ता को गुजारा भत्ता देना ही होगा। भले ही उसकी प्रतिवादी पत्नी के पास आय का साधन है। प्रतिवादी पत्नी की तरफ से तीनों लड़कियों पर प्रतिमाह होने वाले खर्च का जो ब्यौरा दिया गया है वह 60 हजार रुपए से कहीं ज्यादा है। जबकि निचली अदालत ने प्रतिमाह गुजारे भत्ते की राशि 60 हजार रुपए तय की है। स्पष्टतौर पर तीनों बेटियों के पालन.पोषण में होने वाला बाकी खर्च प्रतिवादी पत्नी खुद अपने स्रोत से खर्च कर रही है। सिर्फ प्रतिवादी पत्नी कमा रही है,इस आधार पर याचिकाकर्ता पति को अपनी बच्चों के खर्च उठाने की जिम्मेदारी से बचने का बहाना नहीं मिल सकता है। इसलिए याचिकाकर्ता की मांग को खारिज किया जाता है।