-विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट
वास्तव में परिवार के छोटे-छोटे विवादों और कलह-क्लेश वाली परिस्थतियों में भी धारा-498ए का सहारा लेने का प्रयास किया जाता है। निरर्थक और निराधार गिरफ्तारियों से समझौता प्रक्रिया की सम्भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं।
एक विवाहित महिला ने विवाह के लगभग एक वर्ष बाद ही अपने पति तथा ससुराल परिवार के चार अन्य सदस्यों के विरुद्ध पुलिस में शिकायत दर्ज कराई। इन चार सदस्यों में पति के माता-पिता भी शामिल थे। शिकायत के अनुसार नवम्बर, 2012 में शिकायतकर्ता के विवाह में उसके पिता ने अपनी क्षमतानुसार दहेज दिया था। परन्तु ससुराल पक्ष के लोग उससे संतुष्ट नहीं थे। वे तीन लाख रुपये तथा एक कार की भी माँग करते रहे। नवम्बर, 2013 में जब वह गर्भस्थ थी तो उसका पति उसे मायके छोड़ गया। इस कारण उसे गर्भ समाप्त करना पड़ा। शिकायत में महिला ने अपने स्त्रीधन का भी उल्लेख किया। पुलिस ने पति को छानबीन के लिए बुलाया। मजिस्ट्रेट अदालत ने केवल पति के विरुद्ध धारा-498ए के अन्तर्गत सम्मन जारी किया जबकि उसके माता-पिता तथा दो अन्य के विरुद्ध कार्यवाही बन्द कर दी गई। मजिस्ट्रेट के इस आदेश के विरुद्ध शिकायतकर्ता महिला ने सत्र न्यायालय में पुनर्विचार याचिका प्रस्तुत की। जिस पर निर्णय देते हुए अदालत ने परिवार के अन्य चारों आरोपियों को भी सम्मन जारी कर दिया। ससुराल पक्ष के इन सभी आरोपियों ने उच्च न्यायालय का द्वार खटखटाया। उच्च न्यायालय में मध्यस्थता प्रक्रिया के द्वारा दोनों परिवारों के विवाद को सुलझाने का प्रयास किया गया। परन्तु इस प्रयास में सफलता न मिलने पर उच्च न्यायालय ने याचिका निरस्त कर दी।
इसके बाद अपीलार्थियों ने सर्वोच्च न्यायालय में विशेष अनुमति याचिका प्रस्तुत करते हुए मुख्य कानूनी विषय यह रखा कि किसी भी पारिवारिक विवाद में पति पक्ष के सभी परिजनों को अपराधिक मुकदमेंबाजी में शामिल करना एक सामान्य प्रक्रिया बन चुकी है जिस पर रोक लगाने की आवश्यकता है। ससुराल पक्ष की ओर से हो सकता है पति के विरुद्ध हिंसा, यातना या दहेज की माँग के आरोप सत्य हों, यह भी हो सकता है कि पति के माता-पिता की भी कुछ भूमिका इन सभी आरोपों में दिखाई देती हो। परन्तु परिवार के अन्य सभी सदस्यों के विरुद्ध ऐसे आरोप केवल शिकायत की भाषा के बल पर स्वीकार नहीं किये जा सकते। परिवार के अन्य सदस्यों के विरुद्ध स्पष्ट प्रमाणों के आधार पर ही कार्यवाही प्रारम्भ होनी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत इस याचिका में पति ने कहा कि उसके पिता सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारी हैं। उसकी माता एक गृहणी हैं। इसके अतिरिक्त उसके अविवाहित भाई और बहन भी इन शिकायतों में शामिल कर दिये गये।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री आदर्श कुमार गोयल तथा न्यायमूर्ति श्री उदय उमेश ललित के समक्ष सरकारी अधिवक्ता ने कहा कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा-498ए को पति या उसके परिजनों के द्वारा की जाने वाली दहेज की माँग तथा शिकायतकर्ता पत्नी के विरुद्ध की गई यातनाओं की रोकथाम के लिए शामिल किया गया था। कई महिलाएँ इन यातनाओं आदि के कारण आत्महत्या करने के लिए विवश हो जाती हैं। सरकारी अधिवक्ता ने यह स्वीकार किया कि ऐसी शिकायतों में वृद्ध माता-पिता और यहाँ तक कि छोटी आयु के बच्चों, दादा-दादी तथा परिवार के अन्य सदस्यों को आरोपी बनाने के प्रयास बढ़ते जा रहे हैं। यह सारे प्रयास अस्पष्ट तथा तथ्यों को बढ़ा-चढ़ाकर लगाये गये आरोपों के बल पर किये जाते हैं। अक्सर ऐसी शिकायतों के बाद परिवार के सभी सदस्यों को पुलिस के द्वारा गिरफ्तार भी कर लिया जाता है। ऐसी प्रक्रियाओं के चलते पति और पत्नी के बीच मध्यस्थता के प्रयासों को भी ठेस पहुँचती है।
सरकारी अधिवक्ता ने राष्ट्रीय अपराध रिकाॅर्ड संस्थान के द्वारा एकत्र आंकड़े भी प्रस्तुत किये। वर्ष 2005 में धारा-498ए के अन्तर्गत 58,319 मुकदमें दर्ज किये गये थे जिनमें 1,27,560 लोगों को गिरफ्तार किया गया। इन मुकदमों में से 6,141 मुकदमें झूठे तथ्यों पर आधारित पाये गये। इसी प्रकार वर्ष 2009 में धारा-498ए के अन्तर्गत 89,546 मुकदमें दर्ज किये गये थे जिनमें 1,74,395 लोगों को गिरफ्तार किया गया। इन मुकदमों में से 8,352 मुकदमें झूठे तथ्यों पर आधारित पाये गये। ऐसे मामलों में अन्तिम निर्णय के द्वारा केवल 14 या 15 प्रतिशत मुकदमों में ही सज़ा सुनाई जाती है। शेष मुकदमों में आरोपियों को आरोपमुक्त घोषित कर दिया जाता है। इन आंकड़ों से यह सिद्ध होता है कि धारा-498ए का दुरुपयोग बहुत बड़ी मात्रा में किया जा रहा है। अनेकों उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय के अनेकों निर्णयों में यही विचार व्यक्त करते हुए सरकारों तथा विशेष रूप से पुलिस विभाग को समय-समय पर कई प्रकार के निर्देश जारी किये गये हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे अनेकों निर्णयों के सारांश पर विचार करने के उपरान्त यह मत व्यक्त किया कि धारा-498ए के अन्तर्गत महिला के प्रति यातना को उसी परिस्थिति में सत्य समझा जाना चाहिए जब महिला के लिए आत्महत्या जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दी जायें। जबकि वास्तव में परिवार के छोटे-छोटे विवादों और कलह-क्लेश वाली परिस्थतियों में भी धारा-498ए का सहारा लेने का प्रयास किया जाता है। निरर्थक और निराधार गिरफ्तारियों से समझौता प्रक्रिया की सम्भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं। भारत के विधि आयोग तथा राज्यसभा की एक विशेष समिति के अतिरिक्त स्वयं गृहमंत्रालय ने इन सभी परिस्थितियों पर विचार करने के बाद धारा-498ए के दुरुपयोग को स्वीकार किया है।
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि शीर्ष अदालत का कार्य बेशक कानून बनाना नहीं है अपितु केवल कानून की व्याख्या करना है। परन्तु कभी-कभी ऐसी आचार संहिता घोषित करना आवश्यक हो जाता है जिनके आधार पर किसी विशेषे कानून का प्रयोग किया जाना चाहिए। इन परिस्थितियों में सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर धारा-498ए के अन्तर्गत प्रस्तुत शिकायतों के निपटारे के लिए विशेष निर्देश जारी किये।
प्रत्येक जिले में एक या अधिक परिवार कल्याण समितियों का गठन जिला कानूनी सहायता समितियों के द्वारा किया जाये। जिस पर जिला एवं सत्र न्यायाधीश निगरानी रखे। कानूनी विशेषज्ञों, सामाजिक कार्यकर्ताओं तथा सेवानिवृत्त व्यक्तियों को लेकर भी ऐसी समितियाँ गठित की जा सकती हैं। ऐसी समितियों को विशेष न्यूनतम प्रशिक्षण उपलब्ध कराया जाना चाहिए। ऐसी समिति के सदस्यों को मेहनताना भी प्रदान किया जाये। ऐसी समितियों के सदस्य कभी भी गवाह की तरह नहीं बुलाये जायेंगे। पुलिस के समक्ष धारा-498ए के अन्तर्गत जब भी कोई शिकायत प्रस्तुत हो तो उसे ऐसी समितियों के समक्ष ही प्रथम विचार के लिए प्रस्तुत किया जाये। ऐसी समिति की रिपोर्ट एक माह के अन्तर्गत वापिस पुलिस को भेजी जाये जो केवल तथ्यों पर आधारित हो। इस रिपोर्ट की प्राप्ति से पूर्व पुलिस गिरफ्तारी आदि की कोई कार्यवाही नहीं करे।
धारा-498ए के अन्तर्गत प्रस्तुत शिकायतों की छानबीन के लिए नियुक्त पुलिस अधिकारियों को भी विशेष प्रशिक्षण दिया जाये।
ऐसे मामलों में यदि कोई समझौता हो जाता है तो आपराधिक मुकदमें की कार्यवाही बन्द करने का अधिकार जिला एवं सत्र न्यायाधीश को होगा। इस प्रकार मुकदमें बन्द करवाने के लिए राज्य के उच्च न्यायालय में याचिका प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं रहेगी।
ऐसे मामलों में जमानत के लिए भी न्यायाधीशों को सभी तथ्यों के आधार पर विचार करना चाहिए। केवल स्त्रीधन वापिस न करने के आधार पर जमानत को अस्वीकार करना उचित नहीं। जो लोग भारत से बाहर रहते हैं उनके पासपोर्ट आदि जब्त करने की कार्यवाही भी सामान्य प्रक्रिया नहीं बननी चाहिए।
जिला न्यायाधीश समान पक्षों से सम्बन्धित अनेकों मुकदमों पर सुनवाई के लिए एक ही न्यायाधीश को नियुक्त करने के लिए अधिकृत होगा। परिजनों की व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट का भी लाभ प्रदान किया जाना चाहिए। जब किसी महिला को शारीरिक रूप से हिंसा का शिकार बनाया जाता है तो उन मामलों में यह सभी निर्देश लागू नहीं होंगे।
सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय कानूनी सहायता समिति को एक वर्ष का समय देते हुए इन निर्देशों का पालन सुनिश्चित कराने के लिए कहा है। (क्रिमीनल अपील 1265/2017)