यदि किसी मुकदमें में अपनी संलिप्तता को कोई व्यक्ति छिपाकर रखना चाहता है तो उसे यह अधिकार अवश्य ही मिलना चाहिए कि उसकी व्यक्तिगत अधिकारों, कत्र्तव्यों और यहाँ तक कि उसकी गलती की कानूनी लड़ाई को उसकी व्यक्तिगत कार्यवाही समझकर केवल उसी प्रक्रिया तक सीमित रखा जाये। उसका प्रभाव उसके सारे भविष्य पर नहीं पड़ना चाहिए।
एक विवाद में किसी युवती को एक अन्य व्यक्ति के साथ बैवाहिक सम्बन्धों को नकारते हुए मुकदमेंबाजी प्रारम्भ करनी पड़ी। बाद में इस मुकदमें में परस्पर समझौते के कारण यह सारा विवाद समाप्त भी हो गया। परन्तु अदालत के आदेश तथा अन्य रिकाॅर्ड वैबसाईट पर उपलब्ध रहे। इसे देखकर इस युवती के पिता ने उच्च न्यायालय के समक्ष यह प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया कि वैबसाईट पर उनकी बेटी के नाम से सारा रिकाॅर्ड उपलब्ध रहने के कारण उसकी छवि अपने वर्तमान पति के सामने या व्यापक रूप से समाज के सामने धूमिल हो सकती है। अतः उसने उच्च न्यायालय से निवेदन किया कि न्यायालय के प्रशासनिक कार्यालय को यह निर्देश दिया जाये कि वैबसाईट पर उपलब्ध समूची कार्यवाही में से उसके नाम को छिपा दिया जाये।
यह प्रार्थना लगभग उसी प्रकार की थी जैसी बलात्कार की पीड़ित महिलाओं के सम्बन्ध में सभी अदालतों को एक स्थाई निर्देश की तरह जारी की जाती रही है कि बलात्कार पीड़िता का मूल नाम निर्णयों में न लिखा जाये। बल्कि असली नाम के स्थान पर किसी नकली नाम का प्रयोग किया जाये। ऐसा ही निर्देश पत्रकारों और प्रकाशकों को भी दिया जाता रहा है कि वे अपने प्रकाशनों में भी बलात्कार पीड़िता का मूल नाम प्रकाशित न करें।
इण्टरनेट के इस युग में आज किसी भी व्यक्ति के सम्बन्ध में अनेकों प्रकार की सूचनाओं को इण्टरनेट से एकत्र किया जा सकता है। कर्नाटक उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री आनन्द बायपा रेड्डी ने पश्चिमी देशों में चल रही ऐसी व्यवस्थाओं का अनुकरण करते हुए अपने निर्णय में कहा कि अपने रिकाॅर्ड को भूल जाना या मिटा देना भी प्रत्येक व्यक्ति अधिकार है। फ्रांस की न्याय व्यवस्था में तो यह एक कानूनी मान्यता प्राप्त अधिकार है। इसका मुख्य उद्देश्य यह है कि किसी व्यक्ति की पूर्वकाल की उन गल्तियों को बार-बार उजागर न किया जाये जिनके बदले में वह विधिवत सजा भुगत चुका हो। दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष भी ऐसी ही एक याचिका विचाराधीन है जिसमें याचिकाकर्ता ने अपनी माँ तथा अपनी पत्नी का नाम उच्च न्यायालय के रिकाॅर्ड से हटाने की प्रार्थना की है।
अमेरिका की एक जिला अदालत ने एक अभियुक्त द्वारा 5 वर्ष की सजा भुगतने के बाद तो यहाँ तक आदेश दिया था कि जब एक व्यक्ति किसी अपराध की सजा भुगत चुका हो तो उसे भविष्य में रोजगार से वंचित नहीं ठहराया जाना चाहिए। किसी एक अपराध की अनेकों सजाएँ नहीं मिल सकती। बेशक यह एक भिन्न प्रकार का विषय है परन्तु दोनों विषयों का सार तत्त्व यही है कि किसी भी मुकदमेंबाजी को केवल उससे सम्बन्धित तथ्यों तक ही सीमित रखा जाना चाहिए। यदि किसी मुकदमेंबाजी का भावी जीवन पर निरर्थक प्रभाव पड़ता हो तो उस प्रभाव को समाप्त करने का प्रयास अवश्य होना चाहिए। यदि किसी मुकदमें में अपनी संलिप्तता को कोई व्यक्ति छिपाकर रखना चाहता है तो उसे यह अधिकार अवश्य ही मिलना चाहिए कि उसकी व्यक्तिगत अधिकारों, कत्र्तव्यों और यहाँ तक कि उसकी गलती की कानूनी लड़ाई को उसकी व्यक्तिगत कार्यवाही समझकर केवल उसी प्रक्रिया तक सीमित रखा जाये। उसका प्रभाव उसके सारे भविष्य पर नहीं पड़ना चाहिए। हालांकि भारत में अभी यह सोच बहुत दूर की सोच लगती है।
अवयस्क अभियुक्तों की आयु का निर्धारण कैसे हो?
तमिलनाडू के गणेश नामक युवक ने एक युवती से पहचान बनाई। जब उनकी मित्रता लड़के के परिजनों को पता लगी तो सबने मिलकर लड़की को यह आश्वासन दिया कि वे उनका विवाह कर देंगे। इसके उपरान्त यह मित्रता घनी होने लगी और लड़के-लड़की के परस्पर शारीरिक सम्बन्ध बन गये। परन्तु जब विवाह में आना-कानी होने लगी तो लड़की और उसके परिजनों ने पुलिस स्टेशन में भारतीय दण्ड संहिता की धारा-376 के अन्तर्गत लड़के तथा उसके परिजनों के विरुद्ध बलातकार की रिपोर्ट लिखवा दी। इसके अतिरिक्त परिजनों के विरुद्ध छल-कपट को लेकर धारा-417 के अन्तर्गत भी रिपोर्ट लिखवाई गई। ट्रायल अदालत के समक्ष लड़के की तरफ से यह प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया गया कि वह अवयस्क है अतः उसका मुकदमा बच्चों की अदालत में भेजा जाना चाहिए। ट्रायल अदालत ने कहा कि इस प्रश्न का निर्णय मुकदमें के अन्त में होगा। परन्तु सत्र न्यायाधीश के इस निर्णय के विरुद्ध उच्च न्यायालय ने यह निर्देश दिया कि अवयस्क होने के प्रश्न पर निर्णय पहले दिया जाये उसके बाद ही ट्रायल प्रारम्भ हो।
ट्रायल अदालत ने उस लड़के को अपराध की तिथियों में अवयस्क ठहराते हुए मुकदमा बाल अदालत में भेज दिया। ट्रायल अदालत ने इस सम्बन्ध में लड़के द्वारा प्रस्तुत प्रमाण पत्र को आधार बनाया था। लड़के को अवयस्क ठहराने और मुकदमें को बाल अदालत में भेजने के निर्णय के विरुद्ध पीड़िता पक्ष ने उच्च न्यायालय का द्वार खटखटाया। उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि ट्रायल अदालत ने लड़के के आयु का उचित निर्धारण नहीं किया। ट्रायल अदालत ने लड़के की आयु के निर्धारण के लिए चिकित्सा अधिकारी से परामर्श भी नहीं किया। ट्रायल अदालत ने यह भी निर्धारण नहीं किया कि अपराध की प्रथम घटना और अन्तिम घटना कब हुई थी। परिणामतः उच्च न्यायालय ने पुनः मुकदमा सत्र न्यायाधीश के समक्ष भेजते हुए पुनर्निर्णय का निर्देश दिया। इस निर्णय के विरुद्ध अब लड़के ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष विशेष अनुमति याचिका प्रस्तुत कर दी।
सर्वाच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री पिनाकी चन्द्र घोष तथा न्यायमूर्ति श्री उदय उमेश ललित ने अपने निर्णय में कुछ पूर्व निर्णयों का संदर्भ प्रस्तुत करते हुए कहा कि अवयस्कता का निर्धारण करने के लिए अदालतों को मैट्रिक या उसके समकक्ष शिक्षण प्रमाण पत्रों का अवलोकन करना चाहिए। यदि शिक्षण प्रमाण पत्र उपलब्ध न हो तो अभियुक्त के प्रथम विद्यालय से प्रमाण एकत्र करना चाहिए। इस कार्य के लिए एकदम बाल अवस्था में खेलकूद वाले विद्यालय का प्रमाण पर्याप्त नहीं होगा। इन दोनों ही प्रमाणों के उपलब्ध न होने पर सरकारी विभाग या पंचायत द्वारा जारी जन्म प्रमाण पत्र का अवलोकन किया जाना चाहिए। ऐसी परिस्थिति में किसी पक्ष का शपथ पत्र पर्याप्त नहीं होता है। इनमें से किसी भी प्रमाण के उपलब्ध न होने पर अदालतों को जिले के चिकित्सा बोर्ड से आयु का प्रमाण पत्र लेना चाहिए। चिकित्सा बोर्ड व्यक्ति के शारीरिक निरीक्षण से अनुमानित आयु का प्रमाण देता है। यदि इन सारे कार्यों में से कुछ भी सम्भव न हो और अभियुक्त की स्पष्ट आयु का आंकलन न हो रहा हो तो अदालत इसका लाभ अभियुक्त को अवयस्क घोषित करने के लिए दे सकती है। परन्तु इस लाभ का दायरा एक वर्ष तक ही होना चाहिए।
यह प्रक्रिया केवल बाल अदालतों में चलने वाले मुकदमों के सम्बन्ध में ही अपनाई जाती है। इस प्रक्रिया से नौकरी आदि विषयों में लाभ प्राप्त करने के लिए आयु का निर्धारण नहीं करवाया जा सकता है। इन विचारों के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय द्वारा आयु के पुनर्निधारण के लिए सत्र न्यायाधीश को निर्देश देने के निर्णय को रद्द कर दिया और सत्र न्यायाधीश द्वारा अपराधी को अवयस्क ठहराते हुए मुकदमा बाल अदालत में भेजने के निर्णय को मान्य किया। इस मुकदमें में भी सर्वोच्च न्यायालय ने पीड़िता के नाम को कहीं अपने निर्णय में व्यक्त नहीं किया।
विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट