4 साल की बच्ची के दुष्कर्मी को आजीवन कारावास और 2,00,000 रुपये का जुर्माना
कानून रिव्यू/उत्तर प्रदेश
उत्तर प्रदेश में औरेया की अदालत ने चार्जशीट के महज 9 दिन बाद ही सुजा कर रिकार्ड स्थापित किया गया है। पुलिस ने अपराध के 20 दिनों के भीतर आरोप पत्र प्रस्तुत किया था। यह अधिनियम, परीक्षण पूरा करने के लिए संज्ञान लेने की तिथि से एक वर्ष की एक बाहरी सीमा देता है। पिछले महीने, पॉक्सो एक्ट के मामलों के निपटान में देरी को ध्यान में रखते हुएए सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों में विशेष अदालतों की संख्या बढ़ाने के निर्देश दिए थे। मामले की पृष्ठभूमि आईपीसी की धारा 376 और पॉक्सो की धारा 5 और 6 के तहत एफआईआर एक व्यक्ति श्यामवीर,उम्र 19 वर्ष के खिलाफ 01-08-2019 दर्ज की गई थी। अभियुक्त पर आरोप था कि उसने अपने घर में 4 साल की बच्ची को फंसा लिया था और उसका उत्पीडन किया था। प्राथमिकी में खुलासा किया गया कि उसने अपनी अंगुलियों को बच्ची निजी अंगों में प्रवेश कराया था, जिसके परिणामस्वरूप बच्ची को गंभीर रक्तस्राव हुआ। पीडिता ने इस घटना की जानकारी अपनी मां को दी, आखिर पीडिता के पिता को घटना की जानकारी हुई तो पुलिस तक शिकायत दी गई। पुलिस ने कार्रवाई करते हुए आरोपी को तुरंत गिरफ्तार कर लिया और धारा 161 सीआरपीसी के तहत पीडिता का बयान दर्ज किया। पीडिता का मेडिकल परीक्षण 02-08-2019 को डा0 सीमा गुप्ता ने किया था। 20 दिनों के भीतर जांच पूरी करने के बाद, 20-08-19 को उत्तर प्रदेश राज्य बनाम श्यामवीर के मामले में विशेष पॉस्को कोर्ट के समक्ष आरोप पत्र दायर किया गया। अदालत ने दिनांक 21-08-2019 को उपर्युक्त प्रावधानों के तहत आरोप तय किए और केवल 8 दिनों में ट्रायल को तेजी से पूरा किया। जिला एवं सत्र न्यायाधीश राजेश चौधरी ने 29-08-2019 को सजा का आदेश पारित किया। आरोपी का तर्क अभियुक्त का एक बयान धारा 313 सीआरपीसी के तहत दर्ज किया गया था जिसमें उसने सभी आरोपों से इनकार किया था। आरोपी ने कहा कि उक्त प्राथमिकी, शिकायतकर्ता के निजी प्रतिशोध से प्रेरित थी। इसके अलावा उसने यह दावा किया कि पीडिता महज 4 साल की बच्ची थी और उसके बयानों पर अदालत द्वारा भरोसा नहीं किया जा सकता था। वहीं अभियुक्तों द्वारा दिए गए तर्कों को खारिज करते हुए, अदालत ने निम्नलिखित बातों पर विचार किया, जिनमें सबसे पहले, अदालत पॉक्सो की धारा 29 के तहत अभियुक्त द्वारा अपराध किए जाने के एक अनुमान के साथ आगे बढ़ी। प्रावधान में यह कहा गया है कि जब किसी व्यक्ति पर पॉक्सो की धारा 3, 5, 7 और 9 के तहत अपराध करने का आरोप लगाया जाता है, तो अदालत, अपराध साबित होने तक यह मान लेगी कि अभियुक्त ने उक्त अपराध किया था। इसके बाद, अदालत ने कहा कि अभियुक्त ने उसके और शिकायतकर्ता के बीच दुश्मनी के बारे में गवाही देने के लिए कोई गवाह पेश नही किया। चूंकि अभियोजन पक्ष के एक गवाह ने अपराध के आरोप के समय से पहले पीडिता के साथ आरोपी को देखा था, इसलिए उसके द्वारा अपराध किए जाने के प्रति संदेह बढ़ गया और अदालत ने इसे विजय रायकवार बनाम मध्य प्रदेश राज्य,2019,4 सेक्शन 210के मद्देनजर एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में माना। वहीं आरोपियों द्वारा उठाए गए दूसरे विवाद को खारिज करते हुएए अदालत ने कहा कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 118 के अनुसार, एक बच्चा एक सक्षम गवाह हो सकता है। इसको लेकर, गुल सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य 2015 के मामले पर अदालत ने भरोसा किया। इस मामले में अदालत ने यह भी पाया कि अदालत में पीडिता बाल गवाह द्वारा दिए गए बयानों की, पुलिस के सामने दिए उसके बयानों के साथ अच्छी तरह से पुष्टि की गई थी। इस संबंध में, अदालत ने कहा कि यदि बाल गवाह का बयान, यथोचित जांच के बाद, अदालत के आत्मविश्वास को प्रेरित करता है, तो सजा इस तरह के बयान पर आधारित हो सकती है। इसको लेकर, सुदीप कुमार सेन बनाम पश्चिम बंगाल राज्य 2016 के मामले पर अदालत ने भरोसा किया। अदालत ने गंगा सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य् 2013 के मद्देनजर यह भी कहा कि केवल इसलिए कि किसी अन्य व्यक्ति ने अपराध को होते हुए नहीं देखा था, अभियोजन पक्ष की क्रेडिट.योग्यता को चुनौती नहीं दी जा सकती थी। अदालत ने यह भी सुझाव दिया कि किसी अन्य व्यक्ति ने अपराध को निश्चित रूप से इसलिए नहीं देखा था क्योंकि यह अपराध अभियुक्त के घर के अंदर हुआ था। अदालत ने डा0 गुप्ता सहित सभी गवाहों के बयानों की जांच की जिन्होंने यह पुष्टि की कि चोटों की प्रकृति प्राथमिकी में लगाए गए आरोपों के समान थी।. अदालत की यह राय थी कि घटना के बारे में अपनी मां को सूचित करने का पीडिता का तुरंत बाद का आचरण, भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 8 के तहत प्रासंगिक था। इसको लेकर असम राज्य बनाम रामेन डावराह 2016 के मामले पर अदालत ने भरोसा किया। सजा के आदेश को पारित करते समय, न्यायालय ने दीपक राय, आदि बनाम बिहार राज्य, 2013 के मामले पर भरोसा किया, जिसमें यह ठहराया गया था कि सजा पारित करने के दौरान अभियुक्त की कम उम्र, सजा को कम करने वाला कारक नहीं हो सकती है। अदालत ने यह भी नोट किया कि सत्य नारायण तिवारी जॉली एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि महिलाओं के खिलाफ अपराध, साधारण अपराध नहीं हैं जो गुस्से में या संपत्ति के लिए किए जाते हैं। वे सामाजिक अपराध हैं। वे पूरे सामाजिक ताने.बाने को बाधित करते हैं। इसलिए, वे कठोर दंड को आकर्षित करते हैं। पूर्वोक्त सामग्रियों और टिप्पणियों के आधार पर, अदालत ने आरोपी को उक्त प्रावधानों के तहत दोषी ठहराया और उसे आजीवन कारावास और 2,00,000 रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई है।