कोई भी व्यक्ति जब बिना नियंत्रण के कहीं कोई प्रचार सामग्री लगाता है जो सार्वजनिक दृष्टि में आती है उस पर स्थानीय सरकार का नियंत्रण अत्यन्त आवश्यक है। हर व्यक्ति के अपने-अपने विचार हैं। अतः किसी एक व्यक्ति को अपने विचार दूसरों पर लादने का खुला अधिकार नहीं दिया जा सकता।
आम आदमी पार्टी के दो सदस्यों ने अपने नाम से तथा अपनी पार्टी के नाम से दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष निर्वाचन आयोग के दिनांक 17 अक्टूबर, 2013 के उस परिपत्र को एक रिट् याचिका के माध्यम से चुनौती दी जिसमें दिल्ली के मुख्य निर्वाचन अधिकारी को यह निर्देश दिया गया था कि दिल्ली में किसी आवासीय भवन पर भी बैनर या पोस्टर लगाना प्रतिबन्धित है।
आम आदमी पार्टी ने याचिका में इस परिपत्र को विचार व्यक्त करने की स्वतन्त्रता का हनन करने वाला बताया। याचिका में कहा गया कि दिल्ली डीफेसमेंट आॅफ प्रापर्टी कानून-2007 में निजी भवनों पर या किसी भवन के मालिक की सहमति से पोस्टर या बैनर लगाना प्रतिबन्धित नहीं है। याचिकाकर्ताओं ने दिल्ली सरकार, दिल्ली पुलिस तथा निर्वाचन आयोग द्वारा ऐसे कोई भी पोस्टर या बैनर हटवाने की कार्यवाही पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग की। इस याचिका में ‘पोस्टर हटाओ अभियान’ नामक एक गैर सरकारी संस्था ने भी अपने प्रार्थना पत्र के द्वारा सुनवाई की माँग की। इस संस्था का मानना है कि दिल्ली की जनता को अनाधिकृत रूप से लगने वाले व्यापारिक तथा राजनीतिक पोस्टरों के विरुद्ध जागृत करना आवश्यक है जिससे दिल्ली को एक स्वच्छ तथा पोस्टरमुक्त शहर बनाया जा सके।
याचिकाकर्ताओं का कहना था कि उनकी आम आदमी पार्टी एक नई राजनीतिक संस्था है जिसके पास पुराने राजनीतिक दलों की तरह धन नहीं है। इसलिए उन्हें प्रचार के नये तरीकों की खोज करनी पड़ती है जिससे वे अपनी विचारों को जनता तक पहुँचा सकें। वे अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों के घरों पर पोस्टर और बैनर इत्यादि लगाकर अपनी गतिविधियों का प्रचार करते हैं। निर्वाचन आयोग के परिपत्र के कारण उनके बैनर और पोस्टर हटाये जा रहे हैं।
दिल्ली में डीफेसमेंट प्रापर्टी एक्ट 2009 में लागू किया गया था। इससे पूर्व पश्चिम बंगाल का प्रीवेंशन आॅफ डीफेसमेंट प्रापर्टी एक्ट दिल्ली में लागू होता था। इस कानून के अनुसार किसी भवन की सुन्दरता को नुकसान पहुँचाना या उसे अलग रूप से दिखाना प्रापर्टी का डीफेसमेंट माना जाता है। प्रापर्टी से अभिप्राय है कोई भी भवन झोपड़ी, दीवार, वृक्ष, खम्भा, बाड़ सहित कोई भी ढाँचा। इस कानून का उल्लंघन करने पर 6 महीने की जेल या एक हजार रुपये जुर्माने या दोनों का प्रावधान था।
याचिकाकर्ताओं का कहना था कि यह कानून किसी निजी भवन पर लागू नहीं माना जा सकता। इस कानून का उद्देश्य यह होना चाहिए कि कोई व्यक्ति किसी अन्य के भवन आदि की सुन्दरता को न बिगाड़े। इस कानून में केवल दीवारों पर लिखाई को प्रतिबन्धित माना गया है न कि पोस्टरों और बैनरों के लगाने को। यहाँ तक कि राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के लिए जारी माॅडल कोड आॅफ कन्डक्ट में भी ऐसे पोस्टर लगाने पर प्रतिबन्ध नहीं है। याचिकाकर्ताओं का कहना था कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद-19 में विचार व्यक्त करने की स्वतन्त्रता का मूल अधिकार दिया गया है जिसे केवल भारत की सम्प्रभुता या सुरक्षा के खतरे, विदेशों से मित्रता के खतरे या सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता आदि के खतरे की परिस्थितियों में ही नियंत्रित किया जा सकता है।
कनाडा के सर्वोच्च न्यायालय ने 1993 में घोषित अपने एक निर्णय में कहा था कि प्रत्येक पोस्टर समाज के नागरिकों को कुछ न कुछ विचार देने का प्रयास करता है, चाहे यह व्यापारिक विज्ञापन हों या राजनीतिक पोस्टर। इस कार्य में सार्वजनिक भवनों या दीवारों का निजी भवनों आदि के साथ भिन्नता सिद्ध नहीं की जानी चाहिए क्योंकि पोस्टर या प्रचार सामग्री कहीं भी प्रदर्शित की जाये उसका उद्देश्य एक समान ही होता है। ऐसे प्रचार पर पूर्ण प्रतिबन्ध से कई दुर्घटनाएँ टाली जा सकती हैं परन्तु पूर्ण प्रतिबन्ध राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा व्यापारिक प्रचार में भी बाधा पैदा करेगा।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एम. सी. मेहता नामक मुकदमें में दिये 1997 के आदेश में कहा था कि सार्वजनिक विज्ञापन नीति को लागू करना आवश्यक है। इस मामले में राजनीतिक दल भी समान कानूनों से बंधे रहेंगे। अपनी सम्पत्ति पर प्रचार सामग्री लगाना भी समान नीति के अन्तर्गत ही आयेगा।
इन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर दिल्ली सरकार तथा दिल्ली पुलिस ने भी दिल्ली के डीफेसमेंट आॅफ प्रापर्टी एक्ट के प्रावधानों को उचित ठहराते हुए कहा कि किसी भी शहर को पोस्टरों, बैनरों और प्रचार सामग्री के विज्ञापनों का जंगल बनने की अनुमति नहीं दी जा सकती। इससे वाहनों के ड्राईवरों को परेशानी होती है। पैदल चलने वाले लोगों के लिए भी इस प्रकार का प्रचार असुविधाजनक होता है। भवन बेशक किसी का निजी हो परन्तु उसके बाहर की दीवार पर यदि कोई प्रचार सामग्री लगाई जाती है तो ऐसा करना सार्वजनिक दृश्य के रूप में ही माना जाता है। दिल्ली सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के नोवा एड्स नामक 2008 के निर्णय का संदर्भ प्रस्तुत करते हुए कहा कि प्रचार की सूचना व्यापारिक हो, राजनीतिक या सामाजिक उन्हें सार्वजनिक दृश्य की तरह प्रचारित करने पर नियंत्रित अवश्य ही किया जाना चाहिए, क्योंकि बिना नियंत्रण के यह समस्या यातायात की समस्या बन जायेगी। इसलिए ऐसी गतिविधियों पर पूर्ण प्रतिबन्ध बेशक न लगे परन्तु उन्हें नियंत्रित अवश्य ही किया जाना चाहिए। राज्य को ऐसे नियंत्रण का पूरा अधिकार है। निजी भवनों पर लगी प्रचार सामग्री भी सार्वजनिक दृश्य बन जाती है इसलिए उस पर भी नियंत्रण आवश्यक है।
दिल्ली सरकार ने मूल अधिकारों पर सर्वोच्च न्यायालय के कई निर्णयों के आधार पर यह तर्क प्रस्तुत किया कि बोलने की स्वतन्त्रता का अभिप्राय यह भी है कि अन्य व्यक्तियों को किसी भी आवाज या ध्वनि आदि के सुनने या न सुनने की भी स्वतन्त्रता है। सर्वोच्च न्यायालय ने लाउडस्पीकरों के प्रयोग पर नियंत्रण करने का आदेश करते हुए यह व्याख्या दी थी।
याचिकाकर्ताओं का कहना था कि दिल्ली के डीफेसमेंट कानून की धारा-3 में पूर्ण प्रतिबन्ध का प्रावधान असंवैधानिक है।
दिल्ली उच्च न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश तथा श्री राजीव सहाय एण्डले की खण्डपीठ ने इस याचिका पर दिये अपने निर्णय में कहा कि हर प्रकार की प्रचार गतिविधियों पर स्थानीय सरकार के द्वारा नियंत्रण की आवश्यकता है। यह नियंत्रण सार्वजनिक और निजी दोनों प्रकार की सम्पत्तियों के माध्यम से होने वाले प्रचार कार्यों पर होना चाहिए। ऐसा नियंत्रण सार्वजनिक व्यवस्था, सुन्दरता तथा नैतिकता के दायरे में ही होता है। इसलिए ऐसे नियंत्रण को संविधान के अनुच्छेद-19 में प्राप्त बोलने की स्वतन्त्रता का उल्लंघन नहीं माना जा सकता। न्यायालय ने कहा कि बम्बई उच्च न्यायालय के एक निर्णय में तो ऐसे विज्ञापनों को भारतीय दण्ड संहिता की धारा-268 के अन्तर्गत असुविधाजनक अर्थात् उपद्रवी कार्य माना जा सकता है।
अदालत ने कहा कि दिल्ली जैसे शहर की वास्तविकता से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता, जहाँ लोग छोटी-छोटी बातों पर जानलेवा हिंसक हो जाते हैं। ये छोटी-छोटी बातें गाड़ी खड़ी करने से लेकर यातायात दुर्घटनाओं तथा राह चलते छोटी-छोटी बात पर झगड़े से सम्बन्धित हैं। कोई भी व्यक्ति जब बिना नियंत्रण के कहीं कोई प्रचार सामग्री लगाता है जो सार्वजनिक दृष्टि में आती है उस पर स्थानीय सरकार का नियंत्रण अत्यन्त आवश्यक है। हर व्यक्ति के अपने-अपने विचार हैं। अतः किसी एक व्यक्ति को अपने विचार दूसरों पर लादने का खुला अधिकार नहीं दिया जा सकता। दिल्ली नगर निगम तथा नई दिल्ली नगर पालिका के कई प्रावधान इस सम्बन्ध में सरकारी नियंत्रण को उचित ठहराते हैं। इन प्रावधानों के अन्तर्गत स्थानीय सरकारें विज्ञापनों पर टैक्स वसूल कर सकती हैं। विज्ञापन किसी प्रकार का भी हो, उस पर टैक्स वसूल करने का अधिकार सरकार से छीना नहीं जा सकता। दिल्ली में लागू कानून पंजाब निगम कानूनों से लिये गये हैं, जिन पर पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के कई आदेश भी आ चुके हैं।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने आम आदमी पार्टी की इस याचिका को रद्द करते हुए स्थानीय सरकारों को निर्देश दिया कि वे हर प्रकार के विज्ञापन को नियंत्रित करने के लिए यथाशीघ्र अपनी नीतियों का निर्माण करें।
-विमल वधावन, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट