-विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट
भारत को विश्व का एक श्रेष्ठ लोकतंत्र माना जाता है। इस दावे का प्रमुख आधार है प्रत्येक स्तर के चुनाव समय पर करवाना, निष्पक्षता और शांति के साथ करवाना। भारत में सभी निर्वाचनों का प्रबन्ध करने के लिए भारतीय निर्वाचन आयोग का गठन स्वतंत्रता के एकदम बाद ही कर दिया गया था। 25 जनवरी, 1950 अर्थात् भारतीय संविधान के लागू होने से एकदिन पूर्व ही भारतीय निर्वाचन आयोग के गठन का कार्य सम्पन्न हो गया। इसीलिए 25 जनवरी का दिन प्रतिवर्ष मतदाता दिवस के रूप में मनाया जाता है। निर्वाचन आयोग को भारतीय संविधान के अनुच्छेद-324 के अन्तर्गत अधिकार प्रदान किये गये हैं। इस अनुच्छेद में केवल निर्वाचन आयोग के ढांचे का उल्लेख मिलता है। निर्वाचन आयोग में एक मुख्य मुख्य निर्वाच आयुक्त तथा कुछ अन्य निर्वाचन आयुक्त हो सकते हैं। जिन्हें राष्ट्रपति के द्वारा नियुक्त किया जायेगा। राष्ट्रपति के द्वारा सभी कार्य कैबिनेट की सलाह पर ही किये जाते हैं। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली कैबिनेट समिति जिस किसी भी नाम का प्रस्ताव कर दे राष्ट्रपति को उसे निर्वाचन आयोग का सदस्य या मुख्य निर्वाचन आयुक्त नियुक्त करना होगा। परन्तु स्वतन्त्र भारत के 67 वर्षों के बाद अब तक निर्वाचन आयोग का आयुक्त या मुख्य निर्वाचन आयुक्त बनने के लिए कोई पारदर्शी योग्यता या प्रक्रिया निर्धारित नहीं की गई।
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अनूप बरनवाल नामक एक अधिवक्ता की जनहित याचिका प्रस्तुत की गई जिसमें मुख्य निर्वाचन आयुक्त तथा अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर अनेकों प्रश्न खड़े किये गये हैं। याचिका में यह प्रार्थना की गई है कि केन्द्र सरकार को यह निर्देश जारी किये जायें कि इन पदों पर नियुक्ति करने के लिए एक स्वतंत्र और निष्पक्ष चयन समिति का गठन किया जाये।
इस निर्णय की प्राथमिक सुनवाई के दौरान केन्द्र सरकार ने यह स्वीकार किया है कि बेशक अब तक निष्पक्ष व्यक्तियों को ही निर्वाचन आयोग के इन पदों पर नियुक्त किया गया है परन्तु अभी तक इन नियुक्तियों के लिए कोई विशेष प्रक्रिया निर्धारित नहीं की जा सकी। यह नियुक्ति प्रक्रिया भारत की संसद द्वारा ही निर्धारित की जानी चाहिए थी। सर्वोच्च न्यायालय ने सुनवाई के दौरान इस बात के संकेत दिये हैं कि निर्वाचन आयोग जैसी महत्त्वपूर्ण संस्था के मुख्य पदों पर नियुक्तियों के लिए अब तक किसी प्रक्रिया का निर्धारित न किया जाना वास्तव में एक त्रुटि है। सर्वोच्च न्यायालय केन्द्र सरकार के अधिवक्ता के इन तर्कों को सुनकर भी हैरान था कि इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय हस्तक्षेप क्यों नहीं कर सकता। सर्वोच्च न्यायालय ने इस विषय को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानते हुए यह संकेत दिये हैं कि सर्वोच्च न्यायालय निकट भविष्य में इस याचिका पर अवश्य ही गम्भीरतापूर्वक सुनवाई करेगा और आवश्यक हुआ तो केन्द्र सरकार को आवश्यक दिशा-निर्देश भी जारी किये जा सकते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार से प्रश्न किया कि जब केन्द्रीय जाँच ब्यूरो के प्रमुख को नियुक्त करने के लिए एक औपचारिक कानून है और विधिवत एक नियुक्ति समिति गठित होती है तो मुख्य निर्वाचन आयुक्त तथा अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति के लिए ऐसा क्यों नहीं हो सकता। भारतीय संविधान के लागू होने से अब तक निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति बिना किसी पारदर्शी प्रक्रिया के ही की जाती रही है। जबकि भारतीय संविधान में यह स्पष्ट निर्देश है कि भारत के लोकतांत्रिक जीवन को मजबूत बनाने के लिए एक स्वतंत्र और निष्पक्ष निर्वाचन आयोग का गठन आवश्यक है। एक औपचारिक कानून के अभाव में निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति किसी भी प्रकार से स्वतंत्र और निष्पक्ष नहीं मानी जा सकती।
भारत के निर्वाचन आयोग में इस समय मुख्य निर्वाचन आयुक्त के रूप में श्री अचल कुमार जोति तथा निर्वाचन आयुक्त के रूप में श्री ओम प्रकाश रावत तथा हाल ही में नियुक्त श्री सुनील अरोड़ा कार्य कर रहे हैं। वैसे सरकार चाहे तो दो से अधिक निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति भी कर सकती है। श्री जोति तथा श्री रावत का कार्यकाल क्रमशः जनवरी, 2018 तथा दिसम्बर, 2018 तक है। वर्ष 2019 के साधारण निर्वाचनों से पूर्व केन्द्र सरकार को नया मुख्य निर्वाचन आयुक्त तथा दो अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति करनी होगी। इस बीच यदि सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त जनहित याचिका पर निर्णय देते हुए केन्द्र सरकार को कुछ विशेष निर्देश जारी कर दिये तो इन नियुक्तियों के लिए केन्द्र सरकार के लिए एक नया संकट पैदा हो सकता है। अतः केन्द्र सरकार को स्वतः ही इन महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति के लिए एक विशेष कानून और प्रक्रिया को लागू कर देना चाहिए।