ने कहा कि- “हमारा मानना है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया था वह सांप्रदायिक सद्भाव व समाज के एक हिस्से की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए दिया था। अगर साल के 365 दिनों में से 9 दिन की अल्प अवधि के लिए बूचड़खानों या मीट की दुकानों पर कोई प्रतिबंध लगा दिया जाता है तो वह असंवैधानिक नहीं है। इससे निजता के अधिकार का उल्लंघन नहीं होता है,ऐसे में हर इंसान को अपनी मर्जी से खाना खाने का अधिकार भी प्रभावित नहीं होता है।
कानून रिव्यू/मुंबई
बॉम्बे हाईकोर्ट ने सरकार के उस प्रस्ताव में हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया, जिसके तहत महाराष्ट्र राज्य के सभी निगम आयुक्त को निर्देश दिया गया था कि वह सुनिश्चित करे कि जैन समुदाय द्वारा मनाए जाने वाले पर्यषूण पर्व के दौरान सभी बूचड़खाने और मांस बेचने वाली दुकानें बंद रहें। मुख्य न्यायाधीश प्रदीप नंदराजोग व न्यायमूर्ति भारती डांगरे की दो सदस्यीय पीठ इस मामले में मेहुल मेपानी की तरफ से एक जनहित याचिका और बॉम्बे मटन डीलर एसोसिएशन की तरफ से दायर एक रिट पैटिशन दायर पर सुनवाई कर रही थी। इस पर्व की अवधि 4 से 10 दिन तक होती है। इसे जैन धर्म के अनुयायियों का एक महत्वपूर्ण पर्व माना जाता है। 7 सितम्बर 2004 को महाराष्ट्र राज्य ने सभी आयुक्तों को यह जीआर जारी की थी, जिसमें कहा गया था कि हर साल जिस अवधि में जैन समुदाय के लोग पर्यषूण पर्व मनाए, उस दौरान सभी बूचड़खानें और मांस बेचने वाली दुकानों को बंद रखा जाए। इसी जीआर के आधार पर वर्ष 2015 में ग्रेटर मुम्बई के नगर निगम और मिरा-भयंदर नगर निगम ने सर्कुलर जारी किया था, जिसमें उनके अधिकार क्षेत्र में आने वाले सभी बूचड़खानों और मीट बेचने वाली दुकानों को निर्देश दिया गया था कि जैन समुदाय द्वारा मनाए जाने वाले पर्यषूण पर्व की अवधि के दौरान वह इन्हें बंद रखे। इसी सर्कुलर व जीआर को जनहित याचिका व पैटिशन के जरिए चुनौती दी गई थी। कोर्ट ने पाया कि- “हमें इस विषय पर न्यायशास्त्र के साथ खुद को ज्यादा परेशान करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इस मामले में हमारे पास सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला है। जो हिंसा विरोधक संघ बनाम मिर्जापुर मोती कुरैशी जमात एंड अदर्स (2008) 5 एससीसी 33 नाम से दर्ज है।’’ इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट अहमदाबाद नगर निगम द्वारा पास किए गए एक प्रस्ताव पर विचार किया था,जिसमें वर्ष 1998 में पर्यषूण पर्व के दौरान उनके अधिकार क्षेत्र में आने वाले सभी बूचड़खानों को बंद करने का निर्देश दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले में कहा था कि- “जैसा ही पहले ही कहा जा चुका है,यह एक अल्प अवधि के लिए लगाया गया प्रतिबंध है। निश्चित तौर पर मांसाहारी इस छोटी सी अवधि में शाकाहारी बन सकते हैं। वहीं अहमदाबाद के मीट व्यापारियों को भी इससे कोई ज्यादा नुकसान नहीं होने वाला है, क्योंकि उनका काम साल में मात्र नौ दिन ही बंद रहेगा। साल के बाकी 356 दिन के लिए उनके व्यापार पर कोई प्रतिबंध नहीं है। इस तरह की विविधता वाले हमारे जैसे बहु-सांस्कृतिक देश में किसी व्यक्ति को समाज के किसी विशेष वर्ग की भावनाओं का आदर करते हुए अल्प अवधि के लिए लगाए गए प्रतिबंध के प्रति अति-संवेदनशील और अतिभावुक नहीं होना चाहिए।’’ वकील कृति वेंकटेश को क्रांति एलसी ने शिक्षित किया, जो मेहुल मेपानी की तरफ से पेश हुए थे,वहीं वकील महिमा सिन्हा को चार्ल्स जे डिसूजा ने शिक्षित किया या इन्स्ट्रक्ड किया। वकीलों ने दलील दी कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला अलग है, क्योंकि इस फैसले में सिर्फ बूचड़खानों पर बैन लगाया गया था,परंतु यहां बैन मीट बेचने वाली दुकानों तक पहुंच गया है। कोर्ट ने कहा कि- “हमारा मानना है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया था वह सांप्रदायिक सद्भाव व समाज के एक हिस्से की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए दिया था। अगर साल के 365 दिनों में से 9 दिन की अल्प अवधि के लिए बूचड़खानों या मीट की दुकानों पर कोई प्रतिबंध लगा दिया जाता है तो वह असंवैधानिक नहीं है। इससे निजता के अधिकार का उल्लंघन नहीं होता है,ऐसे में हर इंसान को अपनी मर्जी से खाना खाने का अधिकार भी प्रभावित नहीं होता है।’’ हाईकोर्ट ने दोनों कार्यवाही को टर्मिनेट या समाप्त कर दिया और उस मामले में हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया,जिसके संबंध में सुप्रीम कोर्ट पहले ही कानून तय कर चुकी है।