29 अक्टूबर 2018 से अयोध्या टाइटल सूट पर सुनवाई होगी शुरू
कानून रिव्यू/नई दिल्ली
————————-बडी बैंच में नही जाएगा मस्जिद में नमाज का मामला यह फैसला आ गया है। इससे अब अयोध्या टाइटल पर 29 अक्टूबर से सुनवाई होनी शुरू हो जाएगी। अयोध्या रामजन्मभूमि.बाबरी मस्जिद से जुड़े 1994 के इस्माइल फारूकी मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा फैसला दिया। सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने 2.1 के फैसले के हिसाब से कहा है कि अब ये फैसला बड़ी बेंच को नहीं जाएगा। इस केस के पक्षकारों ने केस को सात सदस्यीय बेंच में ट्रांसफर करने की मांग की थी। कोर्ट ने कहा कि इस्माइल फारूकी केस से अयोध्या जमीन विवाद का मामला प्रभावित नहीं होगा। ये केस बिल्कुल अलग है, अब इस पर फैसला होने से अयोध्या केस में सुनवाई का रास्ता साफ हो गया है। कोर्ट के फैसले के बाद अब 29 अक्टूबर 2018 से अयोध्या टाइटल सूट पर सुनवाई शुरू होगी। पीठ में तीन जज शामिल थे। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस नजीर। दरअसलए सुप्रीम कोर्ट में मुस्लिम पक्षकारों की ओर से दलील दी गई है कि इस पर जल्दी निर्णय लिया जाए। फैसले में कोर्ट बताए कि यह मामला संविधान पीठ को रेफर किया जाए या नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने 20 जुलाई को इस मुद्दे पर फैसला सुरक्षित रखा था कि संविधान पीठ के इस्माइल फारूकी ;1994 फैसले को बड़ी बेंच को भेजने की जरूरत है या नहीं। कोर्ट ने कहा कि इस्माइल फारूकी केस से अयोध्या जमीन विवाद का मामला प्रभावित नहीं होगा। दोनों जजों के फैसले से जस्टिस नजीर ने असहमति जताई। उन्होंने कहा कि वह साथी जजों की बात से सहमत नहीं हैण् यानी इस मामले पर फैसला 2.1 के हिसाब से आया हैण् जस्टिस नजीर ने कहा कि जो 2010 में इलाहाबाद कोर्ट का फैसला आया थाए वह 1994 फैसले के प्रभाव में ही आया थाण् इसका मतलब इस मामले को बड़ी पीठ में ही जाना चाहिए था। जस्टिस अशोक भूषण ने अपना फैसला पढ़ते हुए कहा कि हर फैसला अलग हालात में होता है। पिछले फैसले के संदर्भ को समझना जरूरी है। जस्टिस भूषण ने कहा कि पिछले फैसले में मस्जिद में नमाज अदा करना इस्लाम का अंतरिम हिस्सा नहीं है कहा गया था। लेकिन इससे एक अगला वाक्य भी जुड़ा है। जस्टिस भूषण ने अपना और चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की तरफ से कहा कि इस मामले को बड़ी बेंच को भेजने की जरूरत नहीं है। जो 1994 का फैसला था हमें उसे समझने की जरूरत है। जो पिछला फैसला था, वह सिर्फ जमीन अधिग्रहण के हिसाब से दिया गया था। फैसला पढ़ते हुए जस्टिस भूषण ने कहा कि सभी मस्जिद, चर्च और मंदिर एक समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। राज्यों को इन धार्मिक स्थलों का अधिग्रहण करने का अधिकार है, लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि इससे संबंधित धर्म के लोगों को अपने धर्म के मुताबिक आचरण करने से वंचित कर दिया जाए।
जस्टिस नजीर बोले. व्यापक परीक्षण के बिना लिया गया फैसला
बहुमत से अलग जस्टिस नजीर बोले. व्यापक परीक्षण के बिना यह फैसला लिया गया है। जब कि धार्मिक आस्था को ध्यान में रखकर विचार की ज़रूरत है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर तीन जजों में से एक जस्टिस अब्दुल नजीर ने अन्य जजों की राय से अपनी असहमति जताई है। जस्टिस एस अब्दुल नजीर का कहना है कि बड़ी बेंच को भेजा जाना चाहिए था मामला। जस्टिस नजीर ने अन्य जजों की राय से अपनी अलग राय रखते हुए कहा कि व्यापक परीक्षण के बिना यह फैसला लिया गया है। उन्होंने कहा कि यह फैसला बड़ी बेंच को जाता। उन्होंने कहा कि मस्जिद इस्लाम का अभिन्न अंग है इस विषय पर फैसला धार्मिक आस्था को ध्यान में रखते हुए होना चाहिए। उस पर गहन विचार की जरुरत है।
कोर्ट ने पहले दिया था, फैसला
1994 में इस्माइल फारूकी के मामले में सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने फैसला दिया था कि मस्जिद में नमाज पढ़ना इस्लाम का अभिन्न हिस्सा नहीं है, इसके साथ ही राम जन्मभूमि में यथास्थिति बरकरार रखने का निर्देश दिया गया था, ताकि हिंदू धर्म के लोग वहां पूजा कर सकें। मुस्लिम पक्षकारों का कहना था कि इस फैसले पर दोबारा परीक्षण किए जाने की जरूरत है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट का 2010 में यह आया था फैसला
30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने यह फैसला सुनाया था कि विवादित जमीन को तीन हिस्सों में बांटा जाएं। एक हिस्सा रामलला के लिए, दूसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़ा और तीसरा हिस्सा मुसलमानों को दिया जाए। 30 सितंबर 2010 को जस्टिस सुधीर अग्रवाल, जस्टिस एस यू खान और जस्टिस डी वी शर्मा की बेंच ने अयोध्या विवाद पर फैसला सुनाया था। आदेश में बेंच ने 2.77 एकड़ की विवादित भूमि के तीन बराबर हिस्सा करने को कहा था। राम मूर्ति वाले पहले हिस्से में राम लला को विराजमान कर दिया जाए। राम चबूतरा और सीता रसोई वाले दूसरे हिस्से को निर्मोही अखाड़े को दे दिया जाए और बाकी बचे हुए हिस्से को सुन्नी वक्फ बोर्ड को दे दिया जाए।