मानसिक रोगी अपने प्रति हर प्रकार के कल्याणकारी विचार को भी समझ नहीं पाता। इसलिए ऐसे रोगियों को पूरे प्रेम और सहानुभूति की आवश्यकता है। यह सिद्धान्त केवल सरकारी अस्पतालों या चिकित्सा केन्द्रों के लिए ही नहीं है अपितु घर-घर में इस सिद्धान्त को समझकर एक-दूसरे के साथ व्यवहार की आवश्यकता है। मानसिक रोगों की उत्पत्ति ही प्रेम और सहानुभूति के अभाव से होती है।
मानसिक रोगों को लेकर अब सारे विश्व में वैज्ञानिक अवधारणा भी लगातार बदल चुकी है। 1970 के दशक में तैयार हिन्दी फिल्म ‘खामोशी’ में भी मानसिक स्वास्थ्य को लेकर यह एक सूत्रीय संदेश देने का प्रयास किया गया कि मानसिक रोगियों के लिए औषधियों से अधिक प्रेम, सहानुभूति और अपनेपन का एहसास एक अच्छा इलाज सिद्ध हो सकता है। भारत में मानसिक रोगों की बढ़ती अवस्था को देखते हुए वर्ष 1987 में केन्द्र सरकार ने मानसिक स्वास्थ्य कानून लागू किया। इस कानून का उद्देश्य यह था कि मानसिक रोगों को स्थाई रोग नहीं समझा जाना चाहिए। विशेष रूप से जब किसी मानसिक रोग का पता प्रारम्भिक अवस्था में ही लग जाता है और यथाशीघ्र उसका उपचार प्रारम्भ कर दिया जाये तो रोग के समाप्त होने की पूरी सम्भावना होती है। इस नये कानून के माध्यम से मानसिक रोगियों को उपलब्ध कराई जाने वाली चिकित्सा सहायता में एक नई प्रेरणा का संचार करने का प्रयास किया गया। इस कानून के द्वारा मानसिक रोगों की चिकित्सा के लिए नये अस्पतालों तथा चिकित्सा गृहों की स्थापना पर बल दिया गया। मानसिक रोगी सदैव चिकित्सा के प्रयास से दूर भागता है। उसके मन-मस्तिष्क में चिकित्सा को लेकर भी एक डर पैदा हो जाता है। एक सामान्य रोगी तो अपनी चिकित्सा के लिए स्वयं भी उत्साहित होता है और चिकित्सा प्रयासों को स्वीकार करता है, उनमें हर प्रकार का सहयोग करता है। इसके विपरीत मानसिक रोगी का व्यवहार चिकित्सा के सम्बन्ध में भी सामान्य व्यक्ति के विपरीत हो जाता है। ऐसे में मानसिक रोगी का इलाज प्रारम्भ करना और लगातार लम्बे समय तक उस इलाज के द्वारा उसके रोग को समाप्त करना एक अत्यन्त कठिन कार्य बन जाता है।
इस नये कानून के माध्यम से यह कल्पना की गई थी कि मानसिक रोगियों की चिकित्सा के लिए विशेष कल्याणकारी व्यवस्थाएँ लागू करके एक तरफ रोगियों का अच्छा इलाज सम्भव होगा तो दूसरी तरफ एक रोगी के साथ जुड़े अन्य अनेकों नागरिकों का भी कल्याण होगा। सामान्य रोगियों से भिन्न मानसिक रोगी वास्तव में अपने परिजनों या समाज के अन्य लोगों के लिए भी एक सिरदर्द बन जाता है। कभी-कभी मानसिक रोगी हिंसक भी बन जाते हैं। इसलिए एक मानसिक रोगी के उचित उपचार का अर्थ यह माना जाता है कि कई अन्य लोगों को सुरक्षा प्रदान की जा रही है।
इस नये कानून के द्वारा यह भी कल्पना की गई कि जब मानसिक रोगियों के उपचार की व्यवस्था उचित होगी तो इन अस्पतालों या चिकित्सा केन्द्रों को पागलखाने की संज्ञा देकर किसी रोगी को असीमित समय के लिए भर्ती की आवश्यकता नहीं होगी। इस कानून में यह प्रावधान जोड़े गये जिससे नये मानसिक अस्पतालों में उपचार आदि के सम्बन्ध में उचित प्रबन्ध और खर्च की जिम्मेदारी भी अच्छी तरह से निर्धारित की जाये। मानसिक रोगियों को इन अस्पतालों में रखने के बाद उन्हें सद्भावनापूर्वक पूरा संरक्षण इस प्रकार दिया जाये जैसे कोई बच्चा अपने माता-पिता के संरक्षण में रहता है। इस कानून में पूरे भारत तथा सभी राज्यों के स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं के अलग-अलग अधिकरण गठित करने का प्रावधान भी निर्धारित किया गया।
परन्तु सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री तीरथ सिंह ठाकुर तथा श्री ए.एम. खानविलकर की खण्डपीठ ने इस कानून की ओर उचित ध्यान न देने पर बड़ा आश्चर्य व्यक्त किया। मानसिक स्वास्थ्य कानून 1987 के अतिरिक्त अपंग लोगों के अधिकारों का संरक्षण और उन्हें समान अवसर उपलब्ध कराने की दृष्टि से वर्ष 1995 में एक अलग कानून भी बनाया गया था।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस निर्णय में केन्द्र तथा राज्य सरकारों का ध्यान कानूनी प्रावधानों की ओर आकृष्ट करते हुए कहा है कि सरकारों का कार्य चिकित्सा के साथ-साथ मानसिक रोगियों को शिक्षा और रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना भी है। इसके अतिरिक्त सरकारों को मानसिक रोगों के बारे में शोध कार्य भी लगातार करते रहना चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश से यह स्पष्ट हो रहा है कि उक्त दोनों कानूनों में मानसिक रोगियों को चिकित्सा के साथ-साथ अन्य कई प्रकार से सहायता आदि देने के अनेकों प्रावधान हैं। परन्तु सरकारी स्तर पर इन प्रावधानों का पूरा पालन नहीं किया जा रहा। सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्देश रीना बनर्जी की उस अपील पर आया है जो उसने दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध प्रस्तुत की थी। याचिकाकर्ता ने दिल्ली सरकार के अन्तर्गत चलने वाले एक मानसिक चिकित्सा संस्थान ‘आशा किरण’ में विद्यमान अनेकों अव्यवस्थाओं की ओर न्यायालय का ध्यान आकर्षित करते हुए कई प्रार्थनाएँ की थी जिनमें इस संस्थान में होने वाली मृत्यु की घटनाओं तथा अन्य आरोपों की जाँच सी.बी.आई. को सौंपने की प्रार्थना भी शामिल थी। याचिकाकर्ता ने यह आरोप लगाया था कि इस सरकारी संस्थान में पर्याप्त चिकित्सा सुविधाएँ नहीं हैं, पर्याप्त डाॅक्टर तथा अन्य स्टाॅफ भी उपलब्ध नहीं है। रोगियों की अधिक संख्या होने के कारण उनके खाने-पीने, वस्त्रों और बिस्तर आदि के कुप्रबन्ध से लेकर विशेष रूप में महिला रोगियों के प्रति सहानुभूति के पूर्ण अभाव की शिकायत की गई। याचिका में प्रबन्धकर्ताओं के द्वारा रोगियों के साथ अमानवीय व्यवहार के प्रति भी न्यायालय का ध्यान आकृष्ट किया गया था।
सर्वोच्च न्यायालय ने इन सभी शिकायतों के दृष्टान्तों को लेकर यह आशंका जताई कि सम्भवतः ऐसी अव्यवस्थाएँ देश के सभी राज्यों में चलने वाले मानसिक अस्पतालों और चिकित्सा केन्द्रों में सम्भव हो सकती हैं। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने स्वतः ही अन्य राज्यों की सरकारों को भी नोटिस जारी करके अपने-अपने चिकित्सा केन्द्रों के प्रबन्धन और व्यवस्थाओं पर शपथ पत्र प्रस्तुत करने के लिए कहा। इन परिस्थितियों में सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र तथा राज्य सरकारों को यह निर्देश दिया है कि आगामी 6 माह में मानसिक रोगों की चिकित्सा को लेकर बनी सभी समितियाँ अपने-अपने क्षेत्रों में अस्पतालों और चिकित्सा केन्द्रों तथा अन्य कानूनी प्रावधानों के अनुपालन में होने वाली कमियों को रेखांकित करें तथा उन कमियों को दूर करने का प्रयास किया जाये। सर्वोच्च न्यायालय ने 6 माह के बाद सभी राज्यों को अपनी-अपनी रिपोर्ट अगले दो माह के भीतर न्यायालय में प्रस्तुत करने का निर्देश भी दिया है। देश के सामाजिक कार्यकर्ताओं तथा संगठनों को भी ऐसी अव्यवस्थाओं पर अपनी निगाह रखनी चाहिए। यदि ऐसे किसी मानसिक रोगों के अस्पताल या चिकित्सा केन्द्र में कोई अव्यवस्था देखने को मिले तो सर्वोच्च न्यायालय को शपथ पत्र द्वारा सूचित करना चाहिए। यह सत्य है कि मानसिक रोगियों का उपचार प्रत्येक समाज की महान नैतिक जिम्मेदारी है। मानसिक रोगी अपने प्रति हर प्रकार के कल्याणकारी विचार को भी समझ नहीं पाता। इसलिए ऐसे रोगियों को पूरे प्रेम और सहानुभूति की आवश्यकता है। यह सिद्धान्त केवल सरकारी अस्पतालों या चिकित्सा केन्द्रों के लिए ही नहीं है अपितु घर-घर में इस सिद्धान्त को समझकर एक-दूसरे के साथ व्यवहार की आवश्यकता है। मानसिक रोगों की उत्पत्ति ही प्रेम और सहानुभूति के अभाव से होती है।
विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट