सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने धारा 377 को किया रद्द
सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले के बाद एलजीबीटी समुदाय को मिली एक नई ताकत
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यौन प्राथमिकता बाइलोजिकल और प्राकृतिक है। अंतरंगता और निजता किसी की निजी च्वाइस है। इसमें राज्य को दख़ल नहीं देना चाहिए। किसी भी तरह का भेदभाव मौलिक अधिकारों का हनन है। धारा 377 संविधान के समानता के अधिकार आर्टिकल 14 का हनन करती है।
कानून रिव्यू/ नई दिल्ली
——————————सुप्रीम कोर्ट ने समलैगिंकता गुरुवार 6 सितंबर 2018 को एक बड़ा फैसला सुनाते हुए कहा कि समलैंगिकता अपराध नहीं है। चीफ़ जस्टिस की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की बेंच ने एकमत से ये फ़ैसला सुनाया है। करीब 55 मिनट में सुनाए इस फ़ैसले में धारा 377 को रद्द कर दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 को अतार्किक और मनमानी बताते हुए कहा कि एलजीबीटी समुदाय को भी समान अधिकार है।. धारा 377 के ज़रिए एलजीबीटी की यौन प्राथमिकताओं को निशाना बनाया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यौन प्राथमिकता बाइलोजिकल और प्राकृतिक है। अंतरंगता और निजता किसी की निजी च्वाइस है। इसमें राज्य को दख़ल नहीं देना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि किसी भी तरह का भेदभाव मौलिक अधिकारों का हनन है। धारा 377 संविधान के समानता के अधिकार आर्टिकल 14 का हनन करती है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद करण जौहर ने ट्वीट किया है और कहा है कि ऐतिहासिक फ़ैसला है। आज फक्र हो रहा है! समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर करना और धारा 377 को ख़त्म करना इंसानियत और बराबरी के हक़ की बड़ी जीत है. और जिससे देश को उसका ऑक्सीजन वापस मिला है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि समलैंगिकता कोई मानसिक विकार नहीं है। एलजीबीटी समुदाय को कलंक न मानें। इसके लिए सरकार को प्रचार करना चाहिए। अफ़सरों को संवेदनशील बनाना होगा। जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि भारत के यौन अल्पसंख्यक नागरिकों को छुपना पड़ा। एलजीबीटी समुदाय को भी दूसरों की तरह समान अधिकार है। यौन प्राथमिकताओं के अधिकार से इनकार करना निजता के अधिकार को देने से इनकार करना है। जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि इस अधिकार को अंतरराष्ट्रीय क़ानून के तहत पहचान मिली है। भारत भी इसकी सिग्नेट्री है कि किसी नागरिक की निजता में घुसपैठ का राज्य को हक नहीं है.
जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने कहा इतिहास को एलजीबीटी समुदाय से उनकी यातना के लिए माफ़ी मांगनी चाहिए। एलजीबीटी समुदाय को बहुसंख्यकों द्वारा समलैंगिकता को पहचान न देने पर डर के साए में रहने को विवश किया गया। हालांकि असहमति या जबरन बनाए गए संबंध इस धारा के तहत अपराध बने रहेंगे। साथ ही बच्चों और पशुओं के साथ यौनाचार भी अपराध की श्रेणी में रहेगा।
संविधान पीठ में मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंटन नरीमन, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा कर पीठ ने यह फैसला सुनाया है। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई के दौरान कहा था कि वो जांच करेंगे कि क्या जीने के मौलिक अधिकार में ’यौन आजादी का अधिकार’ शामिल है, विशेष रूप से 9 न्यायाधीश बेंच के फैसले के बाद कि ’निजता का अधिकार’ एक मौलिक अधिकार है। इससे पहले 17 जुलाई को चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान ने धारा-377 की वैधता को चुनौती वाली याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रखते हुए यह साफ किया था कि इस कानून को पूरी तरह से निरस्त नहीं किया जाएगा। कोर्ट ने कहा था कि यह दो समलैंगिक वयस्कों द्वारा सहमति से बनाए गए यौन संबंध तक ही सीमित रहेगा। पीठ ने कहा कि अगर धारा-377 को पूरी तरह निरस्त कर दिया जाएगा तो आरजकता की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। हम सिर्फ दो समलैंगिक वयस्कों द्वारा सहमति से बनाए गए यौन संबंध पर विचार कर रहे हैं, यहां सहमति ही अहम बिन्दु हैं। पहले याचिकाओं पर अपना जवाब देने के लिए कुछ और समय का अनुरोध करने वाली केन्द्र सरकार ने बाद में इस दंडात्मक प्रावधान की वैधता का मुद्दा अदालत के विवेक पर छोड़ दिया था।
क्या कहा था केंद्र सरकार ने
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केन्द्र ने कहा था कि नाबालिगों और जानवरों के संबंध में दंडात्मक प्रावधान के अन्य पहलुओं को कानून में रहने दिया जाना चाहिए. धारा 377 ‘अप्राकृतिक अपराधों’ से संबंधित है जो किसी महिला, पुरुष या जानवरों के साथ अप्राकृतिक रूप से यौन संबंध बनाने वाले को आजीवन कारावास या दस साल तक के कारावास की सजा और जुर्माने का प्रावधान है। सुप्रीम कोर्ट में नवतेज सिंह जौहर, सुनील मेहरा, अमन नाथ, रितू डालमिया और आयशा कपूर आदि ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर कहा कि सुप्रीम कोर्ट को समलैंगिकों के संबंध बनाने पर धारा 377 के कार्रवाई के अपने फैसले पर विचार करने की जरूरत है। उनका कहना था कि इसकी वजह से वो डर में जी रहे हैं और ये उनके मौलिक अधिकारों का खुला हनन है। धारा 377 का पहली बार मुद्दा गैर सरकारी संगठन ‘नाज फाउंडेशन’ ने उठाया था। इस संगठन ने 2001 में दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी और अदालत ने समान लिंग के दो वयस्कों के बीच यौन संबंधों को अपराध घोषित करने वाले प्रावधान को ‘‘गैरकानूनी’’ बताया था। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 11 दिसंबर 2013 को सुरेश कुमार कौशल बनाम नाज फाउंडेशन मामले में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए समलैंगिकता को अपराध माना था। 2 जुलाई 2009 को दिल्ली हाईकोर्ट ने धारा 377 को अंसवैधानिक करार दिया था इस मामले में पुनर्विचार याचिका खारिज कर दी थी। फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले के बाद एलजीबीटी समुदाय काफ़ी ख़ुश है। उनका कहना है कि लंबी लड़ाई के बाद उनकी जीत हुई है, ये फ़ैसला ऐतिहासिक है। इस फैसले के बाद एलजीबीटी समुदाय के लोग सड़कों पर जश्न मनाने उतर गए हैं।.