15 जून, 2015 को राष्ट्रपति के हस्ताक्षरयुक्त विशेष अध्यादेश जारी किया है जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के प्रभाव को पूरी तरह से समाप्त करते हुए नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट अधिनियम की धारा-142 के अन्तर्गत एक विशेष प्रावधान को जोड़ते हुए कहा गया है कि धारा-138 के अन्तर्गत चैक अवमानना के मुकदमों को ऐसी अदालत के समक्ष प्रस्तुत किया जा सकता है जहाँ पर लेनदार व्यक्ति ने चैक को भुगतान के लिए प्रस्तुत किया हो या जहाँ पर चैक जारीकत्र्ता के बैंक की शाखा स्थित हो।
भारत की अदालतों में चैक अवमानना के लाखों मुकदमें केवल इसलिए लम्बित हैं कि हमारी सरकार ने चैक अवमानना को एक अपराध का दर्जा तो दे दिया परन्तु उसके बदले में कोई प्रभावशाली सज़ा का प्रावधान नहीं बना। नेगोशिएबल इंस्टूªमेंट अधिनियम की धारा-138 में चैक अवमानना के अपराध के लिए एक वर्ष की जेल या चैक राशि से दोगुने जुर्माने अथवा दोनों की सज़ा हो सकती है। यह अपराध जमानती अपराध है अर्थात् चैक जारी करने वाला व्यक्ति मुकदमें के चलते जमानत पर रहता है। मुकदमे की अवधि कई वर्ष होती है। उसके बाद उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में अपील पर अपील करके समय बिताया जाता है। बड़ी राशि के मामलों में तो अपराधी लोग भारी राशि मुकदमों पर खर्च करके तकनीकी कमियों का सहारा लेकर अपने आपको मुक्त कर लेते हैं और बेचारा पीडि़त अपनी चैक राशि भी गंवा बैठता है और मुकदमों पर भी उसे अपार धनराशि खर्च करनी पड़ती है। यदि मुकदमों से राहत मिलती नजर न आये तो ऐसे अपराधी अन्ततः जान फंसती देख समझौता करके छुटकारा प्राप्त कर लेते हैं और समझौते में अधिक से अधिक चैक की राशि या थोड़ा बहुत ब्याज अदा कर देते हैं।
इसका एक सरल उपाय यह है कि चैक अवमानना के मामलों को गैर जमानती अपराध घोषित कर दिया जाये। इस प्रकार जैसे ही चैक की अवमानना हो तो जारीकर्ता अपनी गिरफ्तारी से बचने के लिए अपने लेनदार को तुरन्त चैक की राशि का भुगतान कर देगा। यदि वह ऐसा नहीं करता तो गिरफ्तारी के बाद जैसे ही उसे पुलिस अदालत में पेश करे तो न्यायाधीशों के पास भी एक ही मार्ग होगा कि वे या तो उसकी जमानत प्रार्थना पत्र को अस्वीकार करें अन्यथा उसके सामने जमानत करवाने की एक शर्त रखें कि वह चैक राशि का भुगतान करें। इस प्रकार हर कदम पर लेनदार को भुगतान प्राप्त करने में कानून की सहायता प्राप्त होती रहेगी। पाकिस्तान में चैक अवमानना को गैर जमानती अपराध घोषित किया गया है जिसके परिणामस्वरूप वहाँ इस प्रकार के मुकदमें बहुत कम संख्या में लम्बित दिखाई देते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने गत वर्ष दशरथ रूपसिंह राठौर नामक मुकदमे के निर्णय से चैक अवमानना के मुकदमों की बढ़ती संख्या का ईलाज ढूंढ़ने का प्रयास किया। सर्वोच्च न्यायालय ने इस निर्णय में यह व्यवस्था घोषित की कि चैक अवमानना का मुकदमा उस शहर की अदालत में होगा जहाँ चैक जारी करने वाले व्यक्ति का बैंक खाता हो। इससे पूर्व कानून की व्याख्या के अनुसार यही सर्वोच्च न्यायालय कई बार यह व्यवस्था दे चुका था कि चैक अवमानना के मुकदमें किसी भी स्थान पर हो सकते हैं, अर्थात् जहाँ लेनदार व्यक्ति का बैंक खाता हो या जारीकत्र्ता का बैंक खाता हो। सर्वोच्च न्यायालय के दशरथ रूपसिंह राठौर निर्णय के बाद सारे देश में लाखों मुकदमों पर ऐसा बुरा प्रभाव पड़ा कि लेनदार अर्थात् व्यक्ति स्वयं को कानून के हाथो ही ठगा हुआ महसूस करने लगे।
इस व्यवस्था को एक सरल उदाहरण से समझा जा सकता है। दिल्ली के किसी व्यापारी के पास मुम्बई, कोलकाता और चेन्नई अथवा देश के किसी भी सुदूर शहर के व्यापारी आते हैं। वे दिल्ली वाले व्यापारी से भारी मात्रा में सामान खरीदते हैं और चैक द्वारा भुगतान का आश्वासन देते हैं। यदि कभी अचानक मुम्बई, कोलकाता और चेन्नई के तीन व्यापारियों के बड़ी राशि के चैक तिरस्कृत हो जायें तो दिल्ली वाले व्यापारी के पास पहले यह कानूनी सुविधा थी कि वह दिल्ली की अदालत में तीनों व्यापारियों के विरुद्ध आपराधिक मुकदमा दर्ज करवा दे। तीनों व्यापारियों को दिल्ली आकर मुकदमें की प्रक्रिया निभानी पड़ेगी। तीनों को इस प्रक्रिया से कानूनी खर्च, आने-जाने की कठिनाई और अन्ततः जेल सज़ा या जुर्माने की सोच जब भी कभी परेशान करेगी तो वे चैक राशि का भुगतान करने के लिए राजी हो जायेंगे। सर्वोच्च न्यायालय के दशरथ रूपसिंह राठौर के निर्णय के बाद यह व्यवस्था घोषित हो गई कि चैक अवमानना का मुकदमा जारीकत्र्ता के बैंक शाखा वाले स्थान पर होगा। इस निर्णय के बाद दिल्ली की अदालत ने दिल्ली व्यापारी के तीनों मुकदमें उसे वापिस लौटाते हुए यह निर्देश दिया कि वह इन मुकदमों को मुम्बई, कोलकाता और चेन्नई जाकर वहाँ की अदालतों में प्रस्तुत करे। दिल्ली का पीडि़त व्यक्ति स्वाभाविक रूप से कोसता होगा न्याय व्यवस्था के उन सभी बुद्धिजीवियों को जिन्होंने ऐसे निर्णय देकर उसकी पीड़ा को कई गुना बढ़ा दिया। इसका परिणाम यह निकला कि अपराधी तो अपने-अपने शहर में बैठकर सरलता से कानूनी प्रक्रिया में शामिल होंगे जबकि पीडि़त लेनदार व्यक्ति सारे महीने अलग-अलग शहरों के चक्कर काटता फिरेगा। इसके बावजूद भी उसे इस बात की कोई गारण्टी नहीं कि मुकदमों में किसी तकनीकी कमी के चलते उसके मुकदमें उसे चैक राशि भी दिलवा पायेंगे या नहीं।
केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने इस कानूनी विषय पर त्वरित और संवेदनात्मक प्रतिक्रिया दिखाते हुए 15 जून, 2015 को राष्ट्रपति के हस्ताक्षरयुक्त विशेष अध्यादेश जारी किया है जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के प्रभाव को पूरी तरह से समाप्त करते हुए नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट अधिनियम की धारा-142 के अन्तर्गत एक विशेष प्रावधान को जोड़ते हुए कहा गया है कि धारा-138 के अन्तर्गत चैक अवमानना के मुकदमों को ऐसी अदालत के समक्ष प्रस्तुत किया जा सकता है जहाँ पर लेनदार व्यक्ति ने चैक को भुगतान के लिए प्रस्तुत किया हो या जहाँ पर चैक जारीकत्र्ता के बैंक की शाखा स्थित हो।
इस विशेष अध्यादेश में यह प्रावधान भी किया गया है कि जिन मुकदमों को अदालत के किसी आदेश के अन्तर्गत क्षेत्राधिकार के आधार पर स्थानान्तरित कर दिया गया था उन मुकदमों को उक्त दोनों में से किसी स्थान पर भी मुकदमों को पुनः स्थानान्तरित कराने का अधिकार होगा।
राष्ट्रपति के इस अध्यादेश ने यह सिद्ध कर दिया है कि नरेन्द्र मोदी सरकार कानून के मामलों में न्यायव्यवस्था की गलतियाँ सुधारने के लिए भी संवेदनशील है। इस अध्यादेश से ऐसे लाखों लेनदारों को राहत मिलेगी जो जारीकत्र्ता व्यक्ति की बैंक शाखा वाले शहर की अदालत में चैक अवमानना के मुकदमों को प्रस्तुत करने में कठिनाई महसूस कर रहे थे। इस अध्यादेश ने चैक अवमानना के पीडि़तों के लिए एक न्यायिक व्यवस्था उपलब्ध कराने का भी कार्य कर दिखाया है।