न्याय मंदिरों की तरंगे
-विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट
———————————————————भारतीय दण्ड संहिता की धारा-124ए के अन्तर्गत यह प्रावधान है कि जो व्यक्ति भाषण या लेखों के द्वारा या अन्य किसी माध्यम से सरकार के प्रति घृणा, अवमानना या अप्रीति पैदा करने का प्रयास करता है तो ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध राजद्रोह के मुकदमें में तीन वर्ष या आजीवन कारावास या जुर्माने से दण्डित किया जा सकता है। इस प्रावधान के स्पष्टीकरण में यह कहा गया है कि सरकार के विरुद्ध शत्रुता की भावनाएँ भड़काना भी अप्रीति मानी जाती है। जबकि घृणा, अवमानना या अप्रीति पैदा करने का प्रयास किये बिना सरकार के कार्यों के विरुद्ध टीका-टिप्पणियाँ करना राजद्रोह नहीं माना जा सकता। अदालतों ने अनेकों मुकदमों में इस प्रावधान की व्याख्या करते हुए यह स्पष्ट किया है कि जब तक किसी व्यक्ति के लेखों या भाषणों से सरकार के विरुद्ध हिंसा की घटनाएँ पैदा करने का प्रयास सिद्ध न हो तब तक राजद्रोह का आरोप नहीं लगाया जा सकता। यदि किसी लोकतंत्र को सच्चा लोकतंत्र सिद्ध करना हो तो नागरिकों को विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही मूल आधार बना सकता है। आज का भारत एक लोकतांत्रिक देश है जिसमें विचारों की अभिव्यक्ति के लिए अनेकों सफल लड़ाईयाँ लड़ी गई हैं और सर्वोच्च न्यायालय ने सदैव इस मूल अधिकार की रक्षा का कार्य किया है। अदालतों के निर्णयों ने अनेकों बार राजद्रोह के मुकदमों को निरस्त किया है। राजद्रोह को विषय को बारीकी से समझने के लिए भारतीय दण्ड संहिता के इस प्रावधान के इतिहास पर एक नजर डालनी अत्यन्त आवश्यक है। भारत में 17वीं शताब्दी से प्रारम्भ हुआ ब्रिटिश शासन 1947 तक चलता रहा है। ब्रिटिश सत्ता ने भारत को एक गुलाम देश की तरह संचालित किया है। गुलामी के विरुद्ध चिन्तकों और क्रांतिकारियों के विद्रोह आयेदिन नये-नये रूप में खड़े होते रहे और यह तब तक चलता रहा जब तक यह सभी छोटे-छोटे विद्रोह एक महाक्रांति के रूप में पूर्ण स्वतंत्रता का दबाव पैदा करने में सफल न हो सके। यह सफलता 1947 में स्वतंत्रता के रूप में प्राप्त हो गई। परन्तु लगभग तीन शताब्दियों में उन सभी चिन्तकों और क्रांतिकारियों को दबाने और कुचलने के लिए ब्रिटिश सरकार ने क्या-क्या अत्याचार किये, इस पर सैकड़ों पुस्तकें मिल सकती हैं। ब्रिटिश सत्ता के अपने देश इंग्लैण्ड में राजद्रोह को बहुत ही हल्के तरीके से परिभाषित किया गया था। वहाँ इसे एक छोटे से अपराध के रूप में माना जाता था और यह अपराध जमानत के योग्य था। राजद्रोह के मुकदमें बहुत कम दर्ज होते थे। मुकदमें दर्ज होने के बाद भी न्यायाधीश और ज्यूरी सभी उस देश के निवासी ही होते थे। राजद्रोह के मुकदमें दोषी ठहराये जाने के लिए ज्यूरी के सभी सदस्यों का एकमत विचार आवश्यक था। परन्तु दूसरी तरफ जब भारत में वर्ष 1860 में भारतीय दण्ड संहिता के निर्माण और उसमें राजद्रोह के अपराध को शामिल करने की बात आई तो इसे धारा-113 के रूप में जोड़ा गया परन्तु यह प्रावधान इंग्लैण्ड के प्रावधान से सख्त था। इस पर भी मैकाले की अध्यक्षता में गठित समिति ने इसे और अधिक सख्त बनाने की रिपोर्ट दी तो 10 वर्ष बाद 1870 में धारा-113 को हटाकर धारा-124ए के रूप में निर्धारित किया गया। रिकॉर्ड के अनुसार वर्ष 1891 में राजद्रोह का सबसे पहला मुकदमा जोगेन्द्र चन्द्र बोस के विरुद्ध दर्ज हुआ। परन्तु बाद में आरोपी को जमानत पर छोड़ दिया गया और कुछ समय बाद राजद्रोह का मुकदमा भी वापिस ले लिया गया। इसके बाद वर्ष 1897 में बाल गंगाधर तिलक पर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज हुआ। तिलक जी महाराष्ट्र की ‘केसरी’ अखबार के प्रकाशक और सम्पादक थे। उन्होंने शिवाजी के कथनों को संकलित करते हुए एक लेख लिखा जिसमें गुलाम भारत की अवस्थाओं के विरुद्ध आह्वान किया गया था। उस समय महाराष्ट्र में पहले एक वर्ष सूखे की स्थिति रही और दूसरे वर्ष प्लेग की महामारी से लोग पीड़ित रहे। इस बीच सरकार ने विधानसभा के निर्वाचन भी सम्पन्न करवाये परन्तु तिलक के विचारों की बढ़ती ख्याति को देखकर सरकार ने उनपर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज करके सत्र न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत कर दिया। 9 सदस्यों की ज्यूरी गठित हुई जबकि इंग्लैण्ड में 12 सदस्यों की ज्यूरी गठित होती थी। इस ज्यूरी में 5 यूरोपियन ईसाई, एक यूरोपियन ज्यू, एक पारसी और दो हिन्दू सदस्य थे। हिन्दू और पारसी भारतीय नागरिक थे जबकि शेष 6 यूरोपियन नागरिक थे। ज्यूरी ने 6-3 के अनुपात में ही निर्णय दिया। 6 यूरोपियन सदस्यों ने तिलक को दोषी ठहराया और 3 भारतीय सदस्यों ने उन्हें निर्दोष घोषित किया। जबकि नियमानुसार ज्यूरी का गठन आरोपी की नागरिकता और भाषा के अनुरूप होना चाहिए था। अर्थात् ज्यूरी में आधे से अधिक सदस्यों का भारतीय होना आवश्यक था। 6 यूरोपियन सदस्य तो मराठी भी नहीं जानते थे। तिलक जी को इस मुकदमें में 18 माह के कारावास की सज़ा सुनाई गई। परन्तु उन्हें एक वर्ष बाद 1898 में ही रिहा कर दिया गया। 1898 में पुनः धारा-124ए में संशोधन करके उसके प्रावधानों को और सख्त किया गया। वर्ष 1907 में सूरत अधिवेशन के बाद कांग्रेस गरम दल और नरम दल नामक दो भागों में बंट गई। बाल गंगाधर गरम दल के सदस्य थे। अप्रैल 1908 में खुदीराम बोस तथा उनके साथियों ने मुजफ्फरपुर में ब्रिटिश अधिकारियों पर हमला किया। इसी सिलसिले में 24 जून, 1908 को तिलक को फिर से उनके कुछ लेखों को लेकर राजद्रोह के मुकदमें में गिरफ्तार किया गया। इस मामले में तिलक को जमानत भी नहीं मिली और मुकदमा भी पहले की तरह 9 सदस्यों की ज्यूरी के साथ प्रारम्भ हुआ जिसमें 7 यूरोपियन और 2 भारतीय सदस्य थे। यूरोपियन सदस्यों के साथ-साथ न्यायाधीश भी मराठी भाषा नहीं जानते थे। इस मुकदमें में भी तिलक को दोषी ठहराया गया और अब की बार 6 वर्ष वर्मा जेल के कारावास की सज़ा सुनाई गई। इस निर्णय के बाद तिलक ने अपने वक्तव्य में सभी परिस्थितियों को दिव्य शक्तियों के प्रति समर्पित कर दिया। उन्होंने कहा – ‘‘ज्यूरी के निर्णय के बावजूद मेरा यह कथन है कि मैं निर्दोष हूँ। कुछ उच्च दिव्य शक्तियाँ सृष्टि का संचालन करती हैं और उनकी भी यही व्यवस्था होगी कि जिस उद्देश्य का मैं प्रतिनिधित्व कर रहा हूँ हो सकता है कि मेरे स्वतंत्र रहने के स्थान पर इस जेल यातना को सहने से वह उद्देश्य और अधिक सफल हो।’’ तिलक का यह कथन आज भी बम्बई उच्च न्यायालय के भवन में एक अदालत कक्ष के बाहर अंकित है। ब्रिटिश सत्ता की मानसिकता भारतवासियों के प्रति गुलामी की थी। जबकि स्वतंत्रता के बाद हमारे देश में लोकतंत्र की स्थापना की गई है। 1975 और 1977 के बीच आपातकाल की अवधि में भी सत्तासीन दल के विरोध करने वालों पर तरह-तरह की यातनाएँ और अत्याचार किये गये परन्तु भारत की न्याय व्यवस्था और भारतवासियों में लोकतंत्र के जज़्बे ने लोकतंत्र को दबने नहीं दिया। हर छोटे-बड़े राजनीतिक विरोध को सरकार के विरोध के नाम पर राजद्रोह नहीं माना जा सकता है। विडम्बना है कि भारत के राजनेता जब तक विपक्ष में होते हैं तब तक ही उन्हें लोकतंत्र, वैचारिक स्वतंत्रता और न्याय व्यवस्था की सर्वोच्चता जैसी बातें अच्छी लगती हैं परन्तु सत्ता में आते ही इन सबको कुचलने के प्रयास प्रारम्भ हो जाते हैं। सरकारों को सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि भारतवासियों के मन में बसे लोकतंत्र को अब कुचला नहीं जा सकता।