कानून रिव्यू/नई दिल्ली
सुप्रीम कोर्ट ने आपराधिक अवमानना के दोषी वक़ील को इलाहाबाद ज़िला अदालत परिसर में प्रवेश पर 3 साल की पाबंदी लगाई है। सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि समाज में जो बातें दूसरों के लिए उचित है,वो एक वक़ील के लिए नहीं हो सकता है क्योंकि वह समाज के बौद्धिक वर्ग का हिस्सा है और एक नेक पेशे का हिस्सा होने के कारण उससे ज़्यादा उम्मीदें हैं। एक वक़ील को न्यायिक मजिस्ट्रेट जज कोई भयभीत संत नहीं हैं पर हमला करने और उसके साथ दुर्व्यवहार के आरोप में आपराधिक अवमानना का दोषी ठहराने वाले इलाहाबाद हाईकोर्ट के फ़ैसले को सही ठहराते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जज कोई डरावने संत नहीं होते बल्कि उन्हें एक भयहीन उपदेशक की भूमिका का निर्वाह करना पड़ता है। न्यायमूर्ति अरुण मिश्र और नवीन सिन्हा की पीठ ने अधिवक्ता राकेश त्रिपाठी की 6 माह की जेल की उस सज़ा को बदलकर उसे 3 साल कर दिया और कहा कि इस दौरान उसके अच्छे आचरण पर नज़र होगी और वह इलाहाबाद ज़िला जज के परिसर में अगले 3 साल के लिए प्रवेश नहीं कर पाएगा। यह अवधि उसकी बीत चुकी अवधि के अलावा होगा। यह अदालत उसकी सज़ा को सक्रिय कर सकती है अगर इस अदालत को यह लगता है कि इस वक़ील ने 3 साल के भीतर किसी शर्त का उल्लंघन किया है। कोर्ट ने कहा कि यद्यपि किसी वक़ील को निलंबित करने के आदेश की अनुमति नहीं है पर जब वह अवमानना का दोषी है तो सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट को यह अधिकार है कि उसे अदालत में आने से रोक दे। वक़ील के खिलाफ़ आरोप यह था कि उसने 21 दिसम्बर 2012 को भोजनावकाश के दौरान इलाहाबाद सीजेएम की अनुमति लिए बिना 2.3 लोगों के साथ उनके कक्ष में प्रवेश किया और उन्हें गंदी गालियां देने लगा और यहां तक कि उन पर आक्रमण करने के लिए हाथ भी उठाया और कहा कि उन्हें गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस वक़ील को आपराधिक अवमानना का दोषी पाया और 6 माह की साधारण क़ैद की सज़ा सुनाई और 2000 का जुर्माना चुकाने को कहा। उसे सज़ा के आदेश में यह भी कहा गया कि वह ज़िला जज की अदालत में 6 माह तक प्रवेश नहीं कर सकेगा। इस मामले में फ़ैसले को लिखने वाले न्यायमूर्ति मिश्रा ने कहा कि बार के किसी सदस्य को इस तरह के आचरण की अनुमति नहीं है। एक वक़ील को किसी जज को उसके न्यायिक आदेश के कारण धमकाने और उसको गाली देने का अधिकार नहीं है। अगर जज के खिलाफ़ उसे कोई शिकायत थी तो वक़ील संबंधित उच्च अधिकारी के पास जा सकता था पर बार के किसी सदस्य को यह लाइसेंस नहीं है कि वह इस तरह का अभद्र व्यवहार करे और अदालत की गरिमा को नुक़सान पहुंचाए। इस तरह के प्रयासों को शुरू में ही समाप्त कर देने की ज़रूरत है क्योंकि इस नेक पेशे में इस तरह के हमलों की जगह नहीं है। वकीलों की समाज में इज़्ज़त है, उनसे ज़्यादा उम्मीद की जाती है न्याय दिलाने में वकीलों की एक अहम भूमिका है। उसे अपने पेशे से जुड़ी नैतिकता का पालन करना होता है और ऊंचे स्तर को बनाए रखना होता है। वह कोर्ट की मद्द करता है और अपने मुवक्किल के हितों का भी ख़याल रखता है। उसे अपने विरोधियों को भी उचित सम्मान देना होता है। अदालत की गरिमा वास्तव में उस व्यवस्था की गरिमा होती है जिसका वक़ील कोर्ट के एक अधिकारी के रूप में हिस्सा होता है। जज कोई भयभीत संत नहीं होते, उन्हें भयहीन प्रचारक बना पड़ता है न्यायपालिका लोकशाही के प्रमुख स्तंभों में एक है और समाज के शांतिपूर्ण और व्यवस्थित विकास के लिए वह ज़रूरी है। जजों को भयहीन माहौल में निष्पक्ष न्याय करना होता है। उसे किसी भी तरह धमकाया नहीं जा सकता और न ही गालियां देकर उसका अपमान किया जा सकता है। उन्हें भयहीन प्रचारक की भूमिका अदा करनी होती है ताकि वे न्याय व्यवस्था की स्वतंत्रता को अक्षुण रख सकें और लोकशाही को ज़िंदा रखने के लिए यह बेहद ज़रूरी है।