विधि आयोग एक जन-संसद की तरह काम करता। किसी विषय पर छानबीन प्रक्रिया का प्रमुख माध्यम इसी जन-संसद को बनाया जाता। प्रत्येक राज्य की राजधानी में ऐसी जन-संसदों का आयोजन करके विधि आयोग सारे देश की जनता में उस विषय को चर्चा का विषय बना सकता था। परन्तु विधि आयोग का कार्य भी अक्सर बन्द कमरों में ही सम्पन्न हो जाता है।
कानून का प्रत्येक विषय सीधा समाज को प्रभावित करता है। समाज मनुष्यों का समुच्चय है। मनुष्य का मस्तिष्क मनोवैज्ञानिक रूप से परिवर्तनशील है। प्रगति और शांति के लक्ष्य के पीछे भागता हुआ मनुष्य दिन-प्रतिदिन अपने व्यवहारों में बदलाव पैदा करता रहता है। मनुष्यों का संगठन होने के नाते परिवर्तन पूरे समाज का ही एक लक्षण बन जाता है। जब समाज परिवर्तनशील है तो स्वाभाविक रूप से समाज पर लागू होने वाले कानूनों में भी काल और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन लाने ही पड़ते हैं।
प्राचीन भारत में कानूनों के नाम पर भिन्न-भिन्न मत-पंथों और सम्प्रदायों की परम्पराओं को ही कानूनों का दर्जा प्राप्त था। विभिन्न वर्ग स्वयं ही जब एक लम्बे काल के दौरान अपनी परम्पराओं में परविर्तन करते थे तो वही परिवर्तन कानूनी रूप से मान्य किये जाते थे। मुगलकाल तथा ब्रिटिश सत्ता के काल में कानूनों का निर्माण राजनीतिक हितों को ध्यान में रखकर किया जाने लगा।
स्वतन्त्रता के बाद सरकार से यह आशा बनी कि समाज की प्रगति और शांति को ध्यान में रखकर अब कानूनों का निर्माण किया जायेगा। इस उद्देश्य से 1955 में भारत सरकार ने श्री एम. सी. सीतलवाड़ की अध्यक्षता में भारत के विधि आयोग का गठन किया। विगत 60 वर्षों से विधि आयोग के 17 अध्यक्ष बारी-बारी से नियुक्त हो चुके हैं। वर्तमान में न्यायमूर्ति श्री ए. पी. शाह इस आयोग के अध्यक्ष हैं। उनके साथ न्यायमूर्ति श्री एस. एन. कपूर तथा श्रीमती ऊषा मेहरा के अतिरिक्त अन्य भी कई कानूनविद इस आयोग के पूर्णकालिक तथा अंशकालिक सदस्य हैं। यह आयोग केन्द्र सरकार की अनुमति से किसी भी विशेषज्ञ नागरिक की सेवाएँ लेने के लिए अधिकृत हैं।
केन्द्र सरकार समय-समय पर विभिन्न विषयों पर विधि आयोग को विशेषज्ञता पूर्वक छानबीन करने तथा अपनी रिपोर्ट देने के लिए निवेदन भी करती है। इसके अतिरिक्त विधि आयोग स्वयं भी छानबीन के लिए विषयों का चयन कर सकता है। विधि आयोग द्वारा भेजी गई रिपोर्ट सर्वप्रथम केन्द्र सरकार के कानून मंत्रालय के पास पहुँचती है। कानून मंत्रालय रिपोर्ट के विषय से सम्बन्धित मंत्रालय के साथ मिलकर उस रिपोर्ट पर विचार-विमर्श करता है और उसके बाद उस रिपोर्ट को संसद में प्रस्तुत किया जाता है। विधि आयोग द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट इतनी महत्त्वपूर्ण होती हैं कि उन पर कई बार संसद में व्यापक चर्चा होती है। कई बार इन रिपोर्टों के आधार पर अदालतों में भी बहस की जाती है। यह रिपोर्टें कानून के शोध विद्यार्थियों के लिए भी अच्छी सामग्री बनती हैं।
विधि आयोग छानबीन के लिए किन विषयों का चयन करे इसके लिए यह जरूरी नहीं है कि वह सरकार द्वारा बताये गये विषयों पर ही कार्य करे। विधि आयोग को सारी जनता से ज्ञापन आमंत्रित करने चाहिए जिससे जनता अपने जीवन में जिन कानूनों की कमी समझती है या जिन कानूनों को अधूरा समझती है उन विषयों पर विचार करने के लिए विधि आयोग को प्रार्थना कर सके। विधि आयोग द्वारा छानबीन के लिए चुने गये विषयों पर सारे देश के सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक संगठनों के द्वारा गहन चिन्तन-मनन और बहस की जानी चाहिए। इस प्रकार विधि आयोग सारे देश के नागरिकों और भिन्न-भिन्न संगठनों आदि के विचारों को जानने का अवसर प्राप्त कर सकता है।
विधि आयोग की कार्यप्रणाली में अब तक एक तरफ तो व्यापक रूप से सारे देश की जनता को जोड़ा नहीं जा सका और दूसरी तरफ विधि आयोग ने अब तक जितने भी विषयों पर मेहनत करके रिपोर्टें तैयार की और केन्द्र सरकार को भेजी, उनमें से भी अनेकों विषय अब तक केवल कागज का पुलन्दा मात्र ही बनकर दम तोड़ चुके हैं।
विधि आयोग के पास लगभग एक दर्जन शोध अधिकारी हैं और इसके अतिरिक्त कार्यालय के नाम पर एक छोटा सा सचिवालय दिया गया है। विधि आयोग नियमित रूप से अपनी बैठकें करता है और उनमें शोध के लिए विषयों का चयन किया जाता है। इन विषयों का चयन करने के बाद प्रत्येक विषय विधि आयोग के किसी एक सदस्य को उसकी योग्यता और रुचि के अनुसार सौंप दिया जाता है। इस प्रकार विधि आयोग का एक विशेष सदस्य किसी एक विशेष विषय पर अनेकों प्रकार से आंकड़े संग्रहण करने तथा शोध करने का कार्य प्रारम्भ कर देता है। विधि आयोग की बैठकों में समय-समय पर प्रत्येक सदस्य अपने-अपने विषय की प्रगति को प्रस्तुत करता रहता है और विषय के साथ जुड़े कानूनी परिवर्तनों पर भी सभी सदस्यों में चर्चा की जाती है। निर्धारित विषय पर जब निर्धारित सदस्य द्वारा प्राथमिक रिपोर्ट तैयार कर ली जाती है तो उस प्रथमिक रिपोर्ट को आम जनता के बीच चर्चा तथा प्रतिक्रिया और सुझावों आदि के लिए भेज दिया जाता है। अक्सर ऐसा करते समय एक प्रश्नपत्र भी जारी किया जाता है। कई बार विधि आयोग किसी विशेष विषय पर स्वयं भी विशेषज्ञ कानूनविदों तथा सम्बन्धित संगठनों के विचार जानने का प्रयास करता है। कई विषयों पर सम्मेलन तथा कार्यशालाएँ भी आयोजित की जाती हैं। इस प्रकार विधि आयोग प्रत्येक विषय पर अधिक से अधिक आंकड़े और जानकारियाँ एकत्रित करने का प्रयास करता है। अन्त में एक रिपोर्ट तैयार करके पुनः विधि आयोग की बैठक में उस पर गहन विचार-विमर्श किया जाता है और एक पूर्ण रिपोर्ट को अन्तिम रूप प्रदान कर दिया जाता है। इस अन्तिम रिपोर्ट को केन्द्र सरकार के पास भेज दिया जाता है। विधि आयोग की सफलता इस बात में नहीं होनी चाहिए कि विधि आयोग ने गहन और लम्बे प्रयासों के बाद रिपोर्ट तैयार करके सरकार को भेज दी। सफलता तब समझी जानी चाहिए जब विधि आयोग के रिपोर्टों के आधार पर सरकार कानून बनाने के लिए प्रयास प्रारम्भ कर दे और संसद उस रिपोर्ट के आधार पर कानून का निर्माण करके लागू कर दे।
दुर्भाग्य है कि प्रथम तो भारत के विधि आयोग के कार्य को भारी पैमाने पर जनता के साथ जोड़ा ही नहीं जा सका। होना तो यह चाहिए था कि विधि आयोग एक जन-संसद की तरह काम करता। किसी विषय पर छानबीन प्रक्रिया का प्रमुख माध्यम इसी जन-संसद को बनाया जाता। प्रत्येक राज्य की राजधानी में ऐसी जन-संसदों का आयोजन करके विधि आयोग सारे देश की जनता में उस विषय को चर्चा का विषय बना सकता था। परन्तु विधि आयोग का कार्य भी अक्सर बन्द कमरों में ही सम्पन्न हो जाता है।
विधि आयोग की कार्य प्रणाली यदि वास्तव में जनता की आवाज बन सके तो फिर केन्द्र सरकार के लिए भी विधि आयोग की रिपोर्टों पर क्रियान्वयन न करने की हिम्मत न पड़ती। विधि आयोग ने विगत 60 वर्षों में 256 रिपोर्टें केन्द्र सरकार के समक्ष प्रस्तुत की हैं। परन्तु विडम्बना है कि इनमें से अधिकतर रिपोर्टों पर कानून निर्माण या कानूनों में संशोधन का कार्य आज तक नहीं किया जा सका। विधि आयोग ने अपनी अन्तिम रिपोर्ट कुष्ठरोग से ग्रसित लोगों की दशा सुधारने को लेकर नये कानूनों के निर्माण पर इसी माह प्रस्तुत की है। इससे पूर्व चार अंतिम रिपोर्टों में विधि आयोग ने 288 कानूनों को रद्द करने पर अपनी चार रिपोर्ट दी थी। नरेन्द्र मोदी सरकार ने इन रिपोर्टों के आधार पर ही कई कानूनों को रद्द करने की प्रक्रिया भी प्रारम्भ कर दी है। भविष्य में विधि आयोग को सर्वोच्च न्यायालय की तरह स्वतंत्र और संवैधानिक दर्जा देने की प्रक्रिया भी प्रारम्भ की जानी चाहिए जिससे विधि आयोग वास्तव में जन-संसद बनकर जनता की आवाज़ बन सके।