एक तरफ भारत की मूल वैदिक संस्कृति के ये भाव हैं तो दूसरी तरफ इस्लामी तीन तलाक का तमाशा। आज यदि सर्वोच्च न्यायालय तीन तलाक के औचित्य पर सवाल खड़ा करता है तो सारा मुस्लिम जगत अपनी ही महिलाओं, बेटियों और बहनों की परवाह किये बिना तीन तलाक को उचित ठहराते हुए संगठित होने का प्रयास कर रहा है। हालांकि पढ़ा-लिखा मुस्लिम समुदाय अब इस मूल सिद्धान्त को समझ रहा है की परिवार की शांति विवाह की सफलता में है न कि तलाक में।
विवाह वास्तव में एक सांस्कृतिक कार्य है। इसीलिए भिन्न-भिन्न समाजों में उनकी अपनी-अपनी संस्कृतियों के आधार पर ही विवाह पद्धतियाँ निर्धारित होती हैं। इस वक्त सारे संसार में मुख्यतः तीन प्रमुख सांस्कृतिक धाराएँ विद्यमान हैं:- भारतीय वैदिक संस्कृति, ईसाइयत तथा इस्लाम की संस्कृति।
भारतीय वैदिक संस्कृति में विवाह को दो आत्माओं का सम्बन्ध माना गया है। इसीलिए इस संस्कृति में विवाह को ऐसा अटूट सम्बन्ध माना जाता है जो कई प्रकार के भावनात्मक सम्बन्धों का समुच्चय है जिसे जीवन पर्यन्त समाप्त नहीं किया जा सकता। विवाह की शुरुआत बेशक दो आत्माओं के सम्बन्ध से होती है परन्तु सांस्कृतिक कार्यक्रम, सामूहिक खान-पान, सामूहिक भेंट प्रथा आदि के चलते यह सम्बन्ध दो परिवारों ही नहीं अपितु दो कुटुम्बों के बीच स्थापित हो जाता है। इस प्रकार एक विवाह अनेकों आत्माओं को एक-दूसरे का सम्बन्धी बना देता है। एक-दो वर्ष के बाद तो सन्तान उत्पत्ति के माध्यम से नई आत्माओं का आगमन इन व्यापक सम्बन्धों को और अधिक मजबूत बना देता है। विवाह के बाद जन्मे बच्चे को पति और पत्नी अपनी संयुक्त भावनात्मक सम्पत्ति मानते हैं। इसी प्रकार एक तरफ दादा-दादी का लम्बा चैड़ा परिवार उस बच्चे को भरपूर प्रेम और अपनत्त्व प्रदान करता है तो दूसरी तरफ नाना-नानी का कुटुम्ब उस बच्चे के स्वागत में सदैव पलके बिछाये रहता है। इन सब भावनात्मक विचारों के चलते इस सिद्धान्त को महसूस करने में देर नहीं लग सकती कि वैदिक संस्कृति में विवाह अनेकों भावनात्मक सम्बन्धों का समुच्चय है।
महर्षि मनु ने तो यहाँ तक कहा है कि जिस परिवार में महिलाओं का सम्मान होता है वहाँ दैविक प्रसन्नता बरसती है। इसके विपरीत जहाँ महिलाओं को दुःख और निरादर मिलता है वहाँ किसी को भी सुख और शांति नहीं मिल सकती।
वैदिक संस्कृति के विपरीत ईसाइयत और इस्लाम की संस्कृतियाँ विवाह को केवल मात्र एक अनुबन्ध की तरह मानती हैं जिसमें पति मालिक माना गया है और पत्नी को नौकर या गुलाम की तरह माना जाता है। आज सारे विश्व में ईसाइयत और इस्लाम की संस्कृतियों का प्रभाव छाया हुआ है। भारत भी हजारों वर्ष इस्लामी और ईसाइयत संस्कृति के शासकों के नियंत्रण में रहा है। इन संस्कृतियों का प्रभाव हमारे देश के वर्तमान कानूनों में देखने को मिलता है।
मुसलमानों का व्यक्तिगत कानून तथा विवाह समाप्ति का कानून 1939 में लागू किया गया था। 1955 में हिन्दू विवाह अधिनियम लागू किया गया। इसी प्रकार ईसाइयों के लिए भी अलग विवाह तलाक के कानून 1869 तथा 1872 में लागू किये गये थे। पारसी विवाह कानून 1936 में लागू किया गया। 1954 में एक विशेष विवाह अधिनियम भी लागू किया गया था। यह सभी कानून कहने को विवाह से सम्बन्धित कानून है, परन्तु इन सब कानूनों का फोकस केवल तलाक की भिन्न-भिन्न पद्धतियों पर है। हिन्दू विवाह अधिनियम तथा विशेष विवाह अधिनियम में आपसी सहमति के आधार पर भी तलाक का प्रावधान है। हालांकि आपसी सहमति के आधार पर भी तलाक कोई सरल प्रक्रिया नहीं है। इसकी पहली शर्त यह होती है कि पति और पत्नी एक वर्ष से अधिक समय से अलग रह रहे हों और किसी भी अवस्था में अब उनके इकट्ठे रहने की कोई सम्भावना नहीं बची। आपसी सहमति से तलाक की प्रक्रिया प्रारम्भ करने से पूर्व उन्हें दो विशेष बिन्दुओं पर समझौता करना पड़ता है। प्रथम, पति द्वारा पत्नी को अलग करने बदले एक राशि का निर्धारण तथा दूसरा, बच्चे की देखभाल की जिम्मेदारी।
आपसी सहमति न होने पर तलाक के लिए कई प्रकार के आरोप-प्रत्यारोप लगाकर अदालतों से तलाक घोषित करने की प्रार्थना की जाती है। तलाक की यह कानूनी प्रक्रिया काफी जटिल होती है। इस बीच न्यायाधीश भी बार-बार पति-पत्नी में समझौता करवाने का प्रयास करते रहते हैं। परन्तु कानूनी दांवपेचों के सहारे दो पक्षों को नचाने वाले वकील कुछ सच्चे मतभेदों के अतिरिक्त झूठे आरोप भी याचिकाओं में लिखवा देते हैं। झूठे तथ्यों को अदालत में सिद्ध करने के लिए कई अन्य झूठे गवाहों और दस्तावेज़ों को तैयार करवाया जाता है। सारी प्रक्रिया में झूठ लगातार बढ़ता जाता है जिसके परिणामस्वरूप दोनों पक्षों में कटुता भी बढ़ती चली जाती है। परन्तु फिर भी संस्कृति का प्रभाव कहीं न कहीं अपना रंग अवश्य दिखाता है।
दिल्ली में एक सिख दम्पत्ति ने लगभग 5-6 वर्ष के ऐसे ही एक संघर्ष के बाद तलाक का आदेश प्राप्त कर लिया। इन 5-6 वर्षों में जब भी अदालत की सुनवाई होती थी तो पति-पत्नी अदालत में पेश होते थे, एक-दूसरे को देखते थे और मन ही मन पूर्वकाल के प्रेम को भी अवश्य ही याद करते होंगे। तलाक का आदेश मिलने के बाद पत्नी ने अदालत से बाहर आकर पति को हाथ जोड़े और कहा कि आपके कभी दर्शन भी नहीं हो सकेंगे। पति के दिल में भी अचानक प्रेम की लहर पैदा हुई और तलाक के आदेश को दिखाते हुए बोला कि इस कागज के टुकड़े में क्या इतनी ताकत है कि वो हमें अलग कर सके। इसके साथ ही पति ने कहा कि हम चाहें तो अब भी पति-पत्नी की तरह रह सकते हैं। पत्नी की सकारात्मक प्रतिक्रिया देखकर पति ने कहा कि चल गुरुद्वारे मत्था टेककर सच्चे मन से एक बार फिर गृहस्थी शुरू करते हैं।
इस घटना का उल्लेख करने का उद्देश्य केवल यही था कि तलाक के मामलों में सभी सम्बन्धित पक्षों और यहाँ तक कि वकीलों और न्यायाधीशों को भी धीमी गति से कार्य करना चाहिए। कानून के शब्दों पर नाचने की बजाय दो परिवारों को टूटने से बचाने का प्रयास करना चाहिए।
एक तरफ भारत की मूल वैदिक संस्कृति के ये भाव हैं तो दूसरी तरफ इस्लामी तीन तलाक का तमाशा। आज यदि सर्वोच्च न्यायालय तीन तलाक के औचित्य पर सवाल खड़ा करता है तो सारा मुस्लिम जगत अपनी ही महिलाओं, बेटियों और बहनों की परवाह किये बिना तीन तलाक को उचित ठहराते हुए संगठित होने का प्रयास कर रहा है। हालांकि पढ़ा-लिखा मुस्लिम समुदाय अब इस मूल सिद्धान्त को समझ रहा है की परिवार की शांति विवाह की सफलता में है न कि तलाक में।
विवाह और तलाक के मामलों में भी सारे विश्व के आंकड़े अत्यन्त भयानक हैं। अमेरिका जैसे देश में प्रति हजार विवाहों पर लगभग 55 तलाक की घटनाएँ होती हैं। कुछ अन्य देशों में यह संख्या 70 तक भी देखी जाती है, जबकि भारत में प्रति हजार विवाहों पर लगभग 7 तलाक की घटनाएँ होती हैं। हम किसी भी संस्कृति से सम्बन्ध रखते हों, परन्तु मानवतावाद के सिद्धान्त हमारे लिए एक समान होने चाहिए। भारत में बसने वाले प्रत्येक व्यक्ति के मन में मानवता के प्रति एक विशेष संस्कृति को देखा जा सकता है।