जो लोग पारिवारिक सम्बन्धों की रक्षा की बात करते हैं उन्हें इसके लिए सारे समाज में एक ऐसा वातावरण बनाने का प्रयास करना चाहिए जिसमें एक दूसरे का सम्मान करके पारिवारिक सम्बन्धों की रक्षा की जा सके। पत्नियों के प्रति हिंसात्मक वृत्तियों के प्रयोग को अनुमति देने वाला समाज कैसे पारिवारिक सम्बन्धों की रक्षा कर सकता है?
वैवाहिक बलात्कार का अर्थ है पत्नी की इच्छा के बिना पति के द्वारा जबरदस्ती कामवासना की तृप्ति करना। इस जबरदस्ती में अक्सर पत्नी के विरुद्ध शारीरिक ताकत और हिंसा का प्रयोग भी शामिल हो ही जाता है। भारत के आपराधिक कानून में वैवाहिक बलात्कार की कोई अवधारणा नहीं मिलती। इसका मुख्य कारण है भारत में वैवाहिक सम्बन्धों को अटूट मानकर ही सामाजिक और सांस्कृतिक परम्पराएँ निर्धारित की गई हैं। अक्सर लड़कियों को डोली में बिठाते हुए यह कह दिया जाता है कि पति के घर से अब तेरी अर्थी ही उठेगी। एक मायने में लड़कियों के मन में यह बिठा दिया जाता है कि उन्हें हर प्रकार की यातना सहकर भी रहना पति के घर में ही है।
आज भारत का समाज 50 या 100 वर्ष पूर्व वाला पारम्परिक समाज नहीं रहा। आज छोटी-छोटी बातों पर भी वैवाहिक सम्बन्ध टूट रहे हैं। पत्नी की कमाई नहीं है या उसकी कमाई पति से कम है या दहेज में वांछित धन, वस्तुएँ आदि नहीं मिली, ऐसे स्वार्थी और नीचता जैसी बातों को लेकर लड़कियों पर हर प्रकार के अत्याचार कई परिवारों में किये जाते हैं। दहेज विरोधी कानून के बावजूद यह अत्याचार नहीं रूक रहे थे तो विधि आयोग की सिफारिश पर वर्ष 1983 में भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत धारा-498ए जोड़कर पत्नियों के विरुद्ध होने वाले अत्याचारों को दण्डनीय अपराध बनाया गया। इसके बावजूद भी जब ऐसे अपराधों में कमी नहीं आई तो वर्ष 2005 में घरेलू हिंसा कानून लागू किया गया।
इन कानूनों के विरुद्ध समाज ने यह तर्क प्रस्तुत करना शुरू कर दिया कि ऐसे प्रावधान पारिवारिक सम्बन्धों को तोड़ने का कार्य करेंगे। स्वाभाविक है कि जब पीडि़त पत्नी अत्याचारों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही प्रारम्भ करेगी तो पारिवारिक सम्बन्ध टूटने की सम्भावना नीश्चित सी हो जाती है। बहुत कम मामले ऐसे होते हैं जब पुलिस या अदालतों के द्वारा पति पक्ष को समझाने पर उनमें अच्छी भावना पैदा हो जाये और पत्नी के विरुद्ध अत्याचारी प्रवृत्ति समाप्त हो जाये। दूसरी तरफ इन कानूनों में जब मुकदमें बनने शुरू हुए तो कई बार इन प्रावधानों का दुरुपयोग भी सामने आया। परिणामतः सर्वोच्च न्यायालय को भी कई निर्णयों के माध्यम से पुलिस तथा अदालतों को कई प्रकार के निर्देश जारी करने पड़े जिनसे इन प्रावधानों के दुरुपयोग को रोका जा सके।
इसके बावजूद इन दुरुपयोग की घटनाओं के आधार पर कई बार इन प्रावधानों को हटाने की माँग भी उठी। परन्तु सर्वोच्च न्यायालय ने हमेशा यह कहा कि किसी प्रावधान के दुरुपयोग के आधार पर उस प्रावधान को हटाया नहीं जा सकता। दुरुपयोग की घटनाओं के आधार पर यह नहीं स्वीकार किया जा सकता कि वह प्रावधान असंवैधानिक है। क्योंकि वास्तविकता यह है कि इन प्रावधानों के कारण महिलाओं को अत्याचारों से मुक्ति का एक मार्ग अवश्य ही मिला है। बेशक इस मुक्ति के लिए उन्हें पारिवारिक सम्बन्धों को भी तोड़ना पड़ा। अत्याचारों की परिस्थितियाँ कभी-कभी इतनी असहनीय हो जाती हैं कि केवल औपचारिक सामाजिकता की रक्षा के लिए उन अत्याचारों को सहते जाना भी मानवीय प्रतीत नहीं होता।
केवल इस दृष्टि से आज यदि वैवाहिक बलात्कार के लिए आपराधिक प्रावधानों की कोई माँग करता है तो उसे असामाजिक या पारिवारिक सम्बन्धों को तोड़ने वाला कहकर कोई यह सिद्ध नहीं कर सकता कि उसे पारिवारिक सम्बन्धों की बहुत अधिक चिन्ता है। कोई भी पत्नी किसी एक, दो या यदा-कदा होने वाली घटनाओं को वैवाहिक बलात्कार नहीं कहेगी। पत्नी वैवाहिक बलात्कार के विरुद्ध तभी आवाज उठायेगी जब लगातार उसकी इच्छा के विरुद्ध कामुक सम्बन्धों को लेकर पति का शारीरिक बल प्रयोग इतना अधिक बढ़ जायेगा कि वह हिंसा और अत्याचार का रूप ले ले। कामुक सम्बन्धों को लेकर पतियों की भी दो प्रकार की वृत्तियों को समझना पड़ेगा। एक शराबी पति जो आये दिन शराब के नशे में धुत होकर पत्नी के शरीर से खेलने लगता है और पत्नी के मना करने पर मारपीट भी करने लगता है। ऐसी पत्नी कब तक इस कामुक हमले के साथ-साथ मारपीट को भी सहती रहे। क्या ऐसे औपचारिक वैवाहिक सम्बन्ध की रक्षा के लिए भयंकर अत्याचार को सहते रहना सभ्य समाज को उचित लगता है? यदि समाज में इतनी सभ्यता है कि पारिवारिक सम्बन्धों की रक्षा का चिन्तन करें तो पत्नी के द्वारा वैवाहिक बलात्कार के आरोप से पहले यह समाज उस शराबी और कामुक पति को समझाने का प्रयास क्यों नहीं करता? दूसरे वो पति जो शराब का सेवन तो नहीं करते परन्तु कामवासना से भरे रहते हैं। ऐसे पतियों के द्वारा जब पत्नी से कामुकता की माँग होती है तो उसके साथ मारपीट की सम्भावना कम होती है। अक्सर ऐसे पतियों की माँग पत्नियाँ पूरी भी करती चली जाती हैं। परन्तु प्रत्येक पति को यह समझना चाहिए और यदि आवश्यक हो तो काम सम्बन्धों का प्राचीन भारतीय साहित्य भी पढ़ना चाहिए कि पत्नी से कामुक सम्बन्ध बनाने से पूर्व पत्नी की भरपूर प्रेम की माँग को पूरा किया जाना चाहिए। इस प्रेम में पत्नी के प्रति पूरी सहानुभूति और सम्मान भी झलक उठता है। शायद ऐसे कामुक पतियों को तो कामशिक्षा के ग्रन्थ ही अच्छी प्रेरणा दे सकते हैं। इसलिए यह दूसरे प्रकार के पतियों को कानूनी इलाज नहीं अपितु सद्ज्ञान की आवश्यकता है।
कोई भी पत्नी वैवाहिक बलात्कार के विरुद्ध तभी आवाज उठाने के लिए मजबूर होगी जब कामवासना के साथ-साथ मारपीट की घटनाएँ भी उसकी रोजमर्रा की जिन्दगी बन जाती है।
वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने के विषय पर विधि आयोग ने 1972 में जारी अपनी एक रिपोर्ट में भी चर्चा की थी। इसके बाद 2013 में बनी जे. एस. वर्मा कमेटी ने भी इस विषय पर अपनी रिपोर्ट दी। इस रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा वर्ष 2007 की एक सिफारिश को आधार बनाया गया जिसमें महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव और अपराध समाप्त करने के लिए वैवाहिक बलात्कार को भी अपराध घोषित करने की बात कही गई थी। भारतीय दण्ड संहिता की धारा-375 में बलात्कार को परिभाषित करते हुए वैवाहिक काम क्रिया को बलात्कार शब्द का अपवाद माना गया है। इसका अभिप्राय है कि भारतीय कानून में वैवाहिक बलात्कार नाम की कोई अवधारणा नहीं है। न्यायमूर्ति श्री वर्मा ने इस अपवाद को हटाने की सिफारिश की थी जिससे वैवाहिक काम क्रिया को भी अपराध माना जा सके यदि वह काम क्रिया पत्नी के इच्छा के विरुद्ध हो।
इंग्लैण्ड में भी जबरदस्ती वैवाहिक काम क्रिया को बलात्कार माना जाता है। वर्ष 1991 में ही इंग्लैण्ड के कानूनों में यह परिवर्तन किया गया है। इस परिवर्तन की प्रक्रिया में यह तर्क दिया गया कि पत्नी के द्वारा हर परिस्थिति में पति की कामवासना को पूरा करना उसका दायित्व नहीं है। इंग्लैण्ड का समाज एक प्रगतिशील समाज है। यहाँ महिलाएँ पति की बराबर की हिस्सेदार हैं। इसलिए काम क्रिया में भी दोनों का परस्पर सहमत होना आवश्यक है।
भारत का समाज भी आज के युग में प्रगतिशील समाज बनता जा रहा है। महिलाओं के मान-सम्मान और उनकी बराबरी की सुरक्षा देना भारत के संविधान और कानूनों का दायित्व भी है। जो लोग पारिवारिक सम्बन्धों की रक्षा की बात करते हैं उन्हें इसके लिए सारे समाज में एक ऐसा वातावरण बनाने का प्रयास करना चाहिए जिसमें एक दूसरे का सम्मान करके पारिवारिक सम्बन्धों की रक्षा की जा सके। पत्नियों के प्रति हिंसात्मक वृत्तियों के प्रयोग को अनुमति देने वाला समाज कैसे पारिवारिक सम्बन्धों की रक्षा कर सकता है?
कानूनी प्रावधानों से भी अधिक महत्त्व तो सामाजिक प्रेरणाओं का होता है। इसलिए सामाजिक संस्थाओं और विशेष रूप से शैक्षणिक संस्थाओं जैसे स्कूलों और काॅलेजों में पारिवारिक सुख-शांति, ईमानदार और शांतिप्रिय जीवन के सिद्धान्तों पर खुली चर्चा होनी चाहिए। सामाजिक प्रेरणाएँ सरकारी कानूनों से भी अधिक स्थाई प्रभाव डालती हैं।
-विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट