वैवाहिक बन्धन कार्यक्रम’ के अन्तर्गत विवाह से पूर्व तथा नवविवाहित जोड़ों को वैवाहिक सम्बन्धों के साथ जुड़ी आध्यात्मिक सामाजिक, नैतिक और यहाँ तक कि मनोवैज्ञानिक अवधारणाओं को समझाना प्रारम्भ कर दिया है। नव दम्पत्तियों को एक दूसरे के प्रति पूर्ण प्रेम, कल्याण और त्याग की भावनाओं का विकास करना सिखाया जाता है। पति-पत्नी को सामुहिक ध्यान-साधना के उपाय भी सुझाये जाते हैं।
तलाक एक उर्दू शब्द है जिसके लिए अंग्रेजी में डिवोर्स शब्द का प्रयोग किया जाता है। वैवाहिक सम्बन्धों को समाप्त करने के लिए ही इन दोनों शब्दों का प्रयोग किया जाता है। वैदिक धर्म से जुड़े लोगों के लिए संस्कृति या हिन्दी में वैवाहिक सम्बन्धों को समाप्त करने के लिए कोई शब्द नहीं है। इसका कारण यह है कि वैदिक संस्कृति में विवाह को एक अटूट सम्बन्ध समझा जाता है। यहाँ तक कि इसे जन्म-जन्मांतरों का सम्बन्ध माना जाता है। इसलिए पति-पत्नी के सम्बन्ध विच्छेद के लिए कोई एक निर्धारित शब्द वैदिक शास्त्रों आदि में मिलता ही नहीं।
हमारे देश में इस्लामिक आक्रमणकारियों तथा ब्रिटिश राजनीतिक नियंत्रण में कई शताब्दियाँ इन विदेशी संस्कृतियों का प्रभाव पैदा करती रही हैं, जिसके परिणामस्वरूप ही हमें कानून और न्याय व्यवस्था भी इन्हीं दोनों संस्कृतियों के प्रभाव से ग्रसित ही प्राप्त हो गई। हमारे देश में भी न्याय व्यवस्था के माध्यम से तलाक जैसी प्रक्रियाएँ प्रचलन में आ गई।
एक पत्नी और एक पति प्रथा वाली संस्कृति के सिर पर तलाक/डिवोर्स जैसी कुप्रथा लाद दी गई। आज यही कुप्रथा भारत के समूचे समाज का एक अभिन्न लक्षण बन चुकी है।
भारत में स्वतंत्रता के बाद ही हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 लागू किया गया। इसमें पति-पत्नी को तलाक लेने का अधिकार दिया गया, परन्तु इस अधिकार के लिए बहुत कड़ी शर्तें रखी गई। इन शर्तों में प्रमुख हैं पति या पत्नी के द्वारा किसी पराई स्त्री या पुरुष के साथ शारीरिक सम्बन्ध, एक दूसरे के साथ क्रूरता का व्यवहार, एक दूसरे का अकारण त्याग, हिन्दू धर्म का त्याग करके किसी अन्य धर्म को अपनाना आदि। भारत के न्यायाधीश भी धीरे-धीरे पश्चिमी सभ्यताओं का अनुकरण करते हुए इन शर्तों को लगातार लचीला बनाने की दिशा में चल रहे हैं। हालांकि तलाक जैसी प्रक्रिया के कारण अक्सर कई अन्य विषय भी कानूनी विवाद का रूप ले लेते हैं जैसे बच्चे की देखभाल का अधिकार, सम्पत्ति का अधिकार आदि। परन्तु न्याय व्यवस्था का रूझान अनेकों बार तलाक प्रक्रिया को सरल बनाने की ओर बढ़ता जा रहा है।
अमेरिका जैसे देश में तलाक के मामलों की संख्या लगभग 50 प्रतिशत के निकट पहुँच चुकी है। अब अमेरिका के मनोवैज्ञानिक भी यह महसूस करने लगे हैं कि तलाक पारिवारिक अशांति के साथ-साथ बच्चों के भविष्य के लिए बहुत खतरनाक सिद्ध हो रहा है। इंग्लैण्ड में भी तलाक के आंकड़े लगातार बढ़ते जा रहे हैं। वहाँ के सामाजिक चिन्तक भी तलाक से सम्बन्धित कानूनों के लचीलेपन को इस समस्या का मुख्य कारण मानते हैं। वैसे इंग्लैण्ड में तलाक की प्रतिशत संख्या 12 के लगभग है जो अमेरिका से बहुत नीचे है। यूरोप के अन्य पश्चिमी देशों में यह संख्या 1 से 3 प्रतिशत के बीच है।
भारत की संस्कृति और सामाजिक नैतिकता को देखते हुए भारत में आज भी यह सुखद तथ्य है कि हमारे यहाँ लगभग एक हजार विवाहों में 7 या 8 की तलाक दर है, जो प्रतिशत में 0.007 के स्तर पर आती है। इतनी कम तलाक दर के बावजूद भी भारतीय समाज में आज भी तलाक को एक भारी विपत्ति और असामाजिक कार्य समझा जाता है। भारत में भी तलाक की घटनाएँ शहरी क्षेत्रों में ही अधिक देखने को मिलती है। ग्रामीण क्षेत्रों में तलाक की घटनाएँ नगण्य हैं।
भारत की संस्कृति में विवाह को एक पवित्र बन्धन माना जाता है। यह कोई इकट्ठे रहने का अनुबन्ध मात्र नहीं है। परन्तु विडम्बना है कि भारत में विवाह सम्बन्ध को भी मिट्टी में मिलाकर पश्चिमी देशों की तरह लिव-इन-रिलेशन की परम्परा सुनने को मिल रही है। जिसमें कोई स्त्री-पुरुष परस्पर इकट्ठे रहकर जब तक चाहें शारीरिक अर्थात् कामुक सम्बन्धों का भोग करें और जब चाहें बिना विवाद के अलग हो जायें। ऐसे सम्बन्धों के बाद एक-दूसरे के प्रति कोई कानूनी अधिकार नहीं रहते। परन्तु ऐसे मार्ग पर चलने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि जीवन संग्राम में जिस प्रकार एक मानसिक और आत्मिक सहयोगी का लाभ होता है वह कार्य केवल शारीरिक भोग से नहीं मिल सकता।
भारत में तलाक की न्यून घटनाओं का मुख्य कारण है कि आज भी हमारे यहाँ विवाह दो परिवारों के बीच एक बड़े सम्बन्ध स्थापित होने के समान समारोह पूर्वक आयोजित किये जाते हैं। अक्सर प्रेम विवाह भी इसी प्रकार के आयोजित विवाह की तरह आयोजित होते हैं। इसका सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि पति-पत्नी के बीच किसी एक या अन्य बातों पर मतभेद होने की अवस्था में बीच-बचाव करने वाले अनेकों परिजन, रिश्तेदार और मित्र आदि आकर खड़े हो जाते हैं और छोटे-मोटे हर प्रकार के मतभेदों को भुलाकर एक-दूसरे को समझाने का प्रयास किया जाता है। वैसे यह भी देखा गया है कि भारत के इस निम्न स्तर पर तलाक की घटनाओं में भी सर्वाधिक घटनाएँ प्रेम सम्बन्धों पर आधारित विवाहों में ही देखने को मिलती है। जब कोई लड़का और लड़की युवा अवस्था में एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं तो अक्सर उस आकर्षण का आधार केवल शारीरिक स्तर ही होता है। दूसरी तरफ परिवारों के आधार पर बनने वाले वैवाहिक सम्बन्ध वर और वधु के अनेकों पक्षों का मिलान करते हैं। दैविक संयोग को जन्मपत्रियों के माध्यम से भी मिलाने का प्रयास किया जाता है। इसके अतिरिक्त शिक्षा, व्यवहार तथा नैतिक आचरण आदि तो अवश्य ही मिलाये जाते हैं। इसलिए भारत में तलाक की संख्या अभी इतनी नहीं बढ़ पाई। परन्तु भारत के सामाजिक चिन्तकों को तो तलाक की वर्तमान दर भी चिन्ताजनक लगती है।
अमेरिका में कई मनोवैज्ञानिक चिकित्सकों ने अपने अस्पतालों आदि में अब वैवाहिक शिक्षा कार्यक्रम आयोजित करने प्रारम्भ कर दिये हैं। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत वे नव-दम्पत्तियों को वैवाहिक सम्बन्धों की सुदृढ़ता के उपाय तथा लाभ वैज्ञानिक रूप से समझाते हैं। इन चिकित्सकों का मानना है कि तलाक की प्रक्रिया से गुजरने वाले लोग अक्सर मानसिक रोगों की शिकायत को लेकर उनके पास आते थे जिनकी चिकित्सा अच्छी से अच्छी औषधियों के बावजूद भी अत्यन्त कठिन हो जाती थी। परन्तु जबसे इस वैवाहिक शिक्षा कार्यक्रम पर प्रयोग प्रारम्भ किये गये हैं तब से चिकित्सा के परिणाम भी अच्छे नजर आने लगे हैं। रोगों की चिकित्सा के साथ-साथ ऐसे रोगियों का वैवाहिक जीवन भी बच जाता है।
भारत में भी ‘मूव’ ट्रस्ट नामक संगठन ने ‘वैवाहिक बन्धन कार्यक्रम’ के अन्तर्गत विवाह से पूर्व तथा नवविवाहित जोड़ों को वैवाहिक सम्बन्धों के साथ जुड़ी आध्यात्मिक सामाजिक, नैतिक और यहाँ तक कि मनोवैज्ञानिक अवधारणाओं को समझाना प्रारम्भ कर दिया है। नव दम्पत्तियों को एक दूसरे के प्रति पूर्ण प्रेम, कल्याण और त्याग की भावनाओं का विकास करना सिखाया जाता है। पति-पत्नी को सामुहिक ध्यान-साधना के उपाय भी सुझाये जाते हैं। इस अभियान के अत्यन्त सफल परिणाम देखने को मिल रहे हैं।
विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट