जो लोग निम्न स्तरों पर अर्थात् छोटे-छोटे निर्वाचनों में अपने आपको जातिगत दलदल में खड़ा रखते हैं, उन्हें छोटे-छोटे लाभ तो मिल सकते हैं परन्तु वे कभी भी उच्च पदों पर नहीं पहुँच सकते। क्योंकि उच्च पदों पर पहुँचने के लिए हर प्रकार के मत-पंथ, जाति-सम्प्रदाय तथा हर आयु वर्ग और लिंग के नागरिकों का व्यापक समर्थन आवश्यक होता है।
भारत की राजनीति में जातिवाद का प्रभाव अपनी गहरी जड़े जमा चुका है। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अपने आपको घांछी समुदाय का बताकर दलित सिद्ध करने का प्रयास किया है। इसके बावजूद भारत के व्यापक हिन्दू समुदाय में श्री नरेन्द्र मोदी को ‘हिन्दू हृदय सम्राट’ स्वीकार किया गया है। घांछी समुदाय के लोग हिन्दुओं के साथ-साथ मुसलमानों में भी हैं। गुजरात में घांछी का अर्थ तेली की तरह माना जाता है। घांछ तेल निकालने वाली एक मशीन का नाम है जिसके कारण तेल निकालने वालों को घांछी कहा जाता है।
उत्तर भारत में ऐसे वर्ग को तेली कहा जाता है। भारत सरकार के नियमों के अनुसार तेली समुदाय अन्य पिछड़ा वर्ग से सम्बन्धित है। इस जातिवादी छवि के अतिरिक्त श्री नरेन्द्र मोदी ने अपने बाल्यकाल में चाय बेचने की अवस्था का भी बड़े गर्व से अनेकों बार उल्लेख किया परन्तु जनता ने इसके बावजूद उन्हें प्रधानमंत्री पद का विश्वास समर्पित किया। इस एक घटना से यह निश्चित रूप से सिद्ध होता है कि जातिवाद चाहे कितना ही प्रबल हो चुका हो परन्तु भारत की जनता एक विश्वसनीय और मजबूत नेतृत्व के सामने चारों दिशाओं से समर्थन प्रस्तुत कर सकती है।
श्री नरेन्द्र मोदी के अतिरिक्त श्री देवगौड़ा भी पिछड़ी जाति से सम्बन्धित थे जो प्रधानमंत्री के पद पर सुशोभित हुए। हालांकि यह कहा जा सकता है कि वे व्यापक जनता के समर्थन वाले प्रधानमंत्री नहीं थे। वे केवल जोड़-तोड़ की राजनीति का लाभ उठाकर प्रधानमंत्री बने थे।
भारत की राजनीति को जातिगत शिकंजे में फंसा हुआ सिद्ध करने के लिए यह पर्याप्त है कि अब तक के 12 प्रधानमंत्रियों में से दो को छोड़कर शेष 10 प्रधानमंत्री उच्च जातियों के हिन्दू ही रहे हैं। शेष 10 प्रधानमंत्री हैं सर्वश्री जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, गुलजारी लाल नंदा, इंदिरा गांधी, मुरारजी देसाई, चरण सिंह, राजीव गांधी, वी. पी. सिंह, चन्द्रशेखर, पी.वी. नरसिम्हा राव, इन्द्र कुमार गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी तथा मनमोहन सिंह।
श्रीमती इंदिरा गांधी अब तक की अकेली महिला प्रधानमंत्री रही हैं। इससे यदि कोई यह साबित करना चाहें कि भारत में महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव ग्रस्त वातावरण है तो शायद इस तथ्य के आधार पर ऐसा निष्कर्ष कोई भी स्वीकार नहीं कर सकेगा।
इसी प्रकार यदि अमेरिका के अब तक के 44 राष्ट्रपतियों की पृष्ठभूमियों का विश्लेषण किया जाये तो सभी राष्ट्रपति अंग्रेजी भाषी ही थे। इसका अभिप्राय यह नहीं निकल सकता कि अमेरिका में अन्य भाषाओं वाले लोगों के विरुद्ध कुंठा का भाव है। अमेरिका में सभी राष्ट्रपति प्रोटेस्टेंट इसाई रहे हैं। केवल केनेडी ही एक मात्र रोमन कैथोलिक राष्ट्रपति बने। इसका भी अभिप्राय यह नहीं निकल सकता कि अमेरिका में रोमन कैथोलिक लोग दबे कुचले हैं। हाल ही में ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद निवर्तमान राष्ट्रपति श्री बराक ओबामा ने तो यहाँ तक आशा व्यक्त कर डाली कि आने वाले समय में अमेरिका का राष्ट्रपति कोई महिला भी बन सकती हैं और एशिया मूल का कोई हिन्दू भी बन सकता है। इसका अर्थ यह नहीं निकाला जा सकता कि अब तक अमेरिका में महिलाएँ या एशिया मूल के लोगों पर कोई जातिगत भेदभाव चलता रहा है।
सार तत्त्व यह है कि उच्च पदों पर कभी भी किसी जातिवादी या वर्गवादी आधार पर किसी व्यक्ति को नियुक्त नहीं किया जा सकता। उच्च पदों पर पहुँचने के लिए केवल जनसमर्थन ही एक मात्र निर्धारक तत्त्व है। भारत में लोकतंत्र की जड़ें इतनी मजबूत हैं कि किसी भी व्यक्ति को उच्च पद तक पहुँचने के लिए अपने किसी वर्ग या जाति का सहारा लेना आवश्यक नहीं। वास्तव में इसका कोई महत्त्व भी नहीं होता है। भारत जैसे देश में यदि कोई व्यक्ति व्यापक जनसमर्थन से उच्च पद तक पहुँचने का महत्त्वाकांक्षी है तो उसके लिए एक ही मुख्य आधार होगा कि वह बिना किसी संदेह के स्वयं को एक उत्तम कोटि का राष्ट्रवादी, सबका हितैषी और राजनीतिक चरित्र में एक ईमानदार और दूरदर्शितापूर्ण व्यक्तित्व सिद्ध कर पाये। उसकी वाणी में ही नहीं अपितु उसके व्यवहार में भी भाई-चारे का भाव होना चाहिए। इन सभी लक्षणों को मिलाकर ही उसे एक ऐसा व्यक्तित्व मिल सकता है जो लोकतंत्र की सीढ़ियों पर चढ़ने में उसके लिए भरपूर सहायता दे सकता है।
भारत के नेताओं को इस लोकतांत्रिक विज्ञान को समझते हुए अपना आचरण अर्थात् व्यवहार और कार्य तुरन्त परिवर्तित कर लेने चाहिए। जो लोग निम्न स्तरों पर अर्थात् छोटे-छोटे निर्वाचनों में अपने आपको जातिगत दलदल में खड़ा रखते हैं, उन्हें छोटे-छोटे लाभ तो मिल सकते हैं परन्तु वे कभी भी उच्च पदों पर नहीं पहुँच सकते। क्योंकि उच्च पदों पर पहुँचने के लिए हर प्रकार के मत-पंथ, जाति-सम्प्रदाय तथा हर आयु वर्ग और लिंग के नागरिकों का व्यापक समर्थन आवश्यक होता है। समाज को इन वर्गों में बांटकर जो लोग छोटे-छोटे वोट बैंक की राजनीति करते हैं वे कभी भी अपने लिए व्यापक वोट बैंक का निर्माण नहीं कर सकते। वोट बैंक की राजनीति करने वाले लोग जोड़-तोड़ की राजनीति से तो प्रधानमंत्री बन सकते हैं परन्तु व्यापक जनसमर्थन वाले प्रधानमंत्री नहीं बन सकते।