- कानून रिव्यू/नई दिल्ली
——————————-दल बदल विरोधी कानून में जदयू नेता शरद यादव और अली अनवर अंसारी फंस गए है। राज्यसभा के सभापति एम वेंकैया नायडू ने जदयू के बागी सांसद शरद यादव और अली अनवर अंसारी की सदस्यता समाप्त करने को स्वीकृति दे दी है और जिसे लेकर काफी बहस हो रही है।
राज्यसभा के सभापति एम वेंकैया नायडू द्वारा जदयू के बागी सांसद शरद यादव और अली अनवर अंसारी की सदस्यता समाप्त किए जाने को लेकर सियासत तेज हो गई है। शरद यादव का राज्यसभा का कार्यकाल 2022 तक था। जबकि अली अनवर का जल्द ही समाप्त होने वाला था। इनकी सदस्यता दल बदल विरोधी कानून के तहत समाप्त हुई है। शरद यादव देश के बड़े नेताओं में से एक हैं और उन्हें सर्वश्रेष्ठ सांसद का सम्मान भी मिल चुका है। कई राजनीतिक उतार.चढ़ाव में उनका योगदान भी रहा है। मगर ताजा मामले में एक ऐसा कोण है जो संसदीय मामलों में एक नई नजीर पेश करता है।
वैसे तो संसद और विधान मंडलों में दल बदल के नाते कई सदस्यों के अयोग्य ठहराने के मामले सामने आए हैं लेकिन संसदीय इतिहास में इन दोनों मामलो में बहुत तेजी से फैसला हुआ जिसे लेकर सवाल भी उठे हैं। परंतु शीघ्र फैसले के लिहाज से यह मामला मील का पत्थर माना जा सकता है। खुद सभापति एम वेंकैया नायडू ने माना है कि ऐसे मामलों में अतिशय देरी दल बदल विरोधी कानून की मूल भावना को आहत करता है। याचिका का रिकॉर्ड तीन माह में निपटारा करते हुए सभापति ने इस बात पर खास जोर दिया कि ऐसी याचिकाओं का समयबद्ध निपटारा किया जाना जरूरी है। राज्यसभा के सभापति का यह विचार भी है कि विधायी निकायों के पीठासीन अधिकारियों को तीन महीने में ऐसी याचिकाओं का निपटारा कर देना चाहिए और इसी से दल बदल जैसी बुराई पर रोक लग सकेगी।
बहरहाल राज्यसभा के सभापति का फैसला सोचने पर विवश करता है। संसद और विधान मंडलों में दल बदल के ऐसे बहुत से मामले सामने आए हैंए जिसमें सदस्यता समाप्त की गई पर तब तक सदस्य का लगभग कार्यकाल पूरा हो गया था। राज्यसभा में जदयू के नेता आरसीपी सिंह की ओर से 2 सितंबर 2017 को सभापति को याचिका देकर मांग की गई थी कि दल विरोधी गतिविधियों के कारण शरद यादव और अली अनवर को दल बदल विरोधी कानून के तहत अयोग्य घोषित कर इनकी सदस्यता समाप्त की जानी चाहिए। सभापति ने दोनों सदस्यों को अपना पक्ष रखने के लिए पर्याप्त समय दिया और सभी तथ्यों की व्यापक पड़ताल की गई।
कांग्रेस चाहती थी कि यह मामला विशेषाधिकार समिति या आचार समिति के पास भेजा जाएए लेकिन सभापति ने इसे नहीं स्वीकारा और अपने फैसले में तमाम तथ्यों पर गौर करने के साथ कुछ खास बातों को रेखांकित भी किया है। दल बदल के मामले में याचिकाओं के निपटारे में अप्रत्याशित देरी के चलते कई पीठासीन अधिकारियों की व्यापक आलोचनाएं हुई हैं। हरियाणा में कुलदीप बिश्नोई के मामले में चार साल का समय लग गया। यह मामला हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा और बाद में सुप्रीम कोर्ट ने 28 सितंबर 2012 को हरियाणा के विधान सभा अध्यक्ष को तीन माह में याचिका का निपटारा करने का निर्देश दिया। ऐसे मामले कई दूसरे राज्यों में भी देखे गए।
उत्तर प्रदेश में भी बसपा सदस्यों से संबंधित मामले को लेकर लंबी राजनीति चली। मगर इस मामले में राज्यसभा के सभापति ने माना कि भारतीय संविधान की 10वीं अनुसूची के तहत ऐसे मामलों में वाजिब समय में निपटारा अपेक्षित है। ऐसा न होने पर आलोचनाएं स्वाभाविक हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी विधायी निकायों के पीठासीन अधिकारियों के फैसलों में गैर जरूरी देरी को लेकर चिंता जतायी है। इसका कई तरह का नकारात्मक असर होता है। ऐसे मामलों को विशेषाधिकार समिति या आचार समिति को सौंपने के मामले में भी सभापति की राय कुछ अलहदा रही और उनका मानना था कि ऐसे मामलों में प्रक्रियागत जरूरतों के चलते काफी देरी होती है। राज्यसभा में 2008 में दो ऐसे मामलों का उदाहरण लें तो पता चलेगा कि किस तरह देरी हुई।
ये मामले तत्कालीन सभापति राज्य सभा ने समिति को भेजे थे जिसकी रिपोर्ट पर दोनों मामलो में सदस्य को अयोग्य घोषित किया गयाए लेकिन प्रक्रिया में खासी देरी हुई। इसमें सांसद कैप्टन जय प्रकाश नारायण निषाद के मामले में विशेषाधिकार समिति ने 13 महीने में रिपोर्ट दी और पूरे मामले के निपटारे में दो साल तीन माह का समय लग गया। वहीं बसपा के बागी सांसद बागी ईसम सिंह के मामले में भी विशेषाधिकार समिति की रिपोर्ट के आधार पर जुलाई 2008 में अयोग्य घोषित कर दिया गया। ईसम सिंह ने 2006 में बसपा से बगावत कर अलग दल बना लिया था। उनके मामले में विशेषाधिकार समिति की रिपोर्ट 11 माह बाद आई। पूरे मामले के निपटारे में एक साल तीन महीने का समय लग गया।
सभापति राज्य सभा ने शरद यादव को सदस्यता से अयोग्य घोषित करने के मामले में कहा है कि लोकतंत्र में बहुमत शासन करता है। विधायी निकायों में दल या समूह के नेतृत्व के मामलों में विवादों की स्थिति में बहुमत की राय स्वीकारी जाती है। लेकिन शरद यादव इस तथ्य का दस्तावेजी साक्ष्य देने में विफल रहे कि उन्हें जदयू संसदीय दल में बहुमत हासिल है। निर्वाचन आयोग ने भी नीतिश कुमार के नेतृत्व वाले जदयू को मान्यता दे दी है। शरद यादव के इस तर्क को भी सभापति ने नहीं स्वीकार कि बिहार में महागठबंधन को त्याग कर नीतिश कुमार ने खुद को जदयू से परे कर लिया। आदेश में कहा गया है कि 10वीं अनुसूची में राजनीतिक दलों के गठबंधन को तवज्जो नहीं दी गई है।
इस आदेश में कहा गया है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में राजनीतिक दल सबसे अहम हैं और वे सामूहिक आधार पर फैसले लेते हैं। इन फैसलों से बेशक किसी को असहमति हो सकती है लेकिन वही फैसला स्वीकार्य होता है जो आम सहमति का हो। अगर कोई अपनी ही पार्टी के फैसले की सार्वजनिक आलोचना करता है और विरोधी दलों की रैलियों को संबोधित करने जाता है तो यह दल विरोधी गतिविधियों का हिस्सा होता है। इससे वह 10वीं अनुसूची के तहत स्वेच्छा से दल छोड़ने के नाते अयोग्य हो जाता है। मगर इसके बावजूद फैसलों में देरी सवाल तो खड़े ही करती रही है। इस नाते ताजा मामले में समय सीमा को लेकर सभापति ने जो तथ्य रखे हैं वे विचारणीय हैं।