यदि देश के शिक्षकों को इस प्रकार लम्बी अवधि की मुकदमेंबाजी में उलझाये रखा जायेगा तो वे किस प्रकार बच्चों के निर्माण में एकाग्रतापूर्वक कार्य कर पायेगी। नैतिक और श्रेष्ठ नागरिकों के निर्माण की बात तो दूर ऐसे उलझन भरे शिक्षकों से तो अच्छी औपचारिक शिक्षा की कल्पना भी निरर्थक होगी।
एक समाज किस प्रकार नागरिकों के निर्माण हेतु एक सुन्दर पथ का निर्माण कर सकता है यदि उस समाज में अध्यापकों को सहजता के साथ उनके कानूनी अधिकार न दिये जायें? अध्यापक यदि अपनी शक्ति इन अधिकारों को प्राप्त करने के लिए नीचे से ऊपर तक की अदालतों में मुकदमें प्रस्तुत करने में ही गंवा देंगे तो किस प्रकार उनसे आशा की जा सकती है कि वे बच्चों में नैतिकता का निर्माण करने के लिए औपचारिक शिक्षा प्रदान करने के कत्र्तव्यों से ऊपर उठकर कार्य करें। पंजाब के पटियाला जिले में संस्कृत महाविद्यालय के एक शिक्षक को पंजाब सरकार ने एक अन्य विद्यालय में स्थानांतरित कर दिया। इस अध्यापक को यह मुकदमा करना पड़ा कि यह संस्कृत महाविद्यालय एक काॅलेज के समान है। अतः उसका स्थानांतरण नहीं किया जा सकता है। अदालत ने इस शिक्षक के तर्कों को स्वीकार करके यह आदेश दिया कि उसका स्थानांतरण रद्द करने के साथ-साथ उसे वेतन भी काॅलेज के प्राध्यापक के समान दिया जाये। इस एक निर्णय के बावजूद भी पंजाब सरकार ने इसका अन्य शिक्षकों के लिए क्रियान्वयन नहीं किया। परिणामतः कई मुकदमें पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत हो गये। इन सब मुकदमों में मूल प्रश्न यह था कि पटियाला में संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना 1860 में संस्कृत शिक्षा के लिए की गई थी। बाद में इसमें इंग्लिस तथा गणित भी जोड़ दिया गया। पटियाला के महाराजा ने 1870 में इसे एक शिक्षा विभाग के रूप में स्थापित कर दिया और इसका सम्बन्ध कलकत्ता विश्वविद्यालय के साथ जोड़ दिया गया। 1884 में इस महाविद्यालय के भवन की नींव का पत्थर भारत के वायसराय ने रखा था। धीरे-धीरे इस विद्यालय में और भी कई पाठ्यक्रम जुड़ते चले गये। पंजाबी भाषा में भी ज्ञानी, विद्वान् तथा बुद्धिमान नामक पाठ्यक्रम प्रारम्भ कर दिये गये। इस प्रकार 1912 में इस महाविद्यालय के दो भाग बन गये – संस्कृत विद्यालय तथा गुरुमुखी विद्यालय। 1963 में इन दोनों विद्यालयों का एकीकरण करके इस संस्था का नाम आधुनिक भारतीय भाषा संस्थान, पटियाला कर दिया गया। 1969 से पूर्व यह संस्थान चण्डीगढ़ स्थित पंजाब विश्वविद्यालय से सम्बन्धित रहा और बाद में पटियाला के पंजाबी विश्वविद्यालय के साथ जुड़ गया। इस विश्वविद्यालय के द्वारा ही शिक्षकों की योग्यता आदि सहित अन्य शर्तों का निर्धारण किया गया। यहाँ तक कि शिक्षकों के वेतनमान भी विश्वविद्यालय के द्वारा निर्धारित किये जाते रहे। स्वयं पंजाब सरकार ने भी इसे एक काॅलेज के रूप में मान्यता दी।
इन सब तथ्यों के बावजूद पंजाब सरकार ने इस संस्थान के शिक्षकों का स्थानान्तरण आदेश जारी करके एक निरर्थक विवाद को जन्म दे डाला। पंजाब सरकार ने इसे एक सामान्य विद्यालय की तरह समझा। पटियाला की स्थानीय अदालत द्वारा शिक्षकों के पक्ष में निर्णय के बावजूद भी पंजाब सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय तक इस विवाद को घसीटा जबकि प्रत्येक स्तर पर स्थानीय अदालत के निर्णय को मान्य किया गया। परन्तु पंजाब सरकार इसे एक सामान्य विद्यालय समझकर अन्य विद्यालयों से शिक्षकों का स्थानान्तरण इस विद्यालय में करती रही और इस विद्यालय के शिक्षकों का स्थानान्तरण अन्य विद्यालयों में जारी रखा गया।
पंजाब उच्च न्यायालय के एक निर्णय में यह कहा गया कि जो शिक्षक इस संस्कृत महाविद्यालय में सीधे नियुक्त हुए हैं और जिनकी योग्यता विश्वविद्यालय की मान्यताओं के अनुसार पाई गई हैं या जो शिक्षक विश्वविद्यालय के अन्य काॅलेजों से इस महाविद्यालय में लाये गये हैं, उन्हें काॅलेज प्राध्यापकों के समान ही वेतन मिलना चाहिए। इस प्रकार उनके वेतन का पुनर्निर्धारण उनकी नियुक्ति के समय से प्रभावी होगा। इसके अतिरिक्त यदि कोई शिक्षक अन्य विद्यालयों से इस विद्यालय में स्थानांतरित किये गये थे परन्तु बाद में उन्हें पुनः सामान्य विद्यालयों में वापिस स्थानांतरित कर दिया गया तो ऐसे शिक्षकों के वेतन का पुनर्निर्धारण नहीं होगा क्योंकि वे सामान्य विद्यालय स्तर के शिक्षक थे। परन्तु यदि कोई शिक्षक सामान्य विद्यालय से इस महाविद्यालय में आने के बावजूद स्थाई रूप से अपनी योग्यता के आधार पर इस महाविद्यालय में नियुक्त कर दिया गया हो तो उसकी नियुक्ति तिथि से उसके वेतन का निर्धारण काॅलेज प्राध्यापक के स्तर का होगा।
अब पंजाब सरकार ने उच्च न्यायालय के इस आदेश के विरुद्ध ही सर्वोच्च न्यायालय का द्वार खटखटाया। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कई शिक्षकों का उल्लेख किया जैसे गुरुदास सिंह नामक शिक्षक के पास शास्त्री, आचार्य तथा संस्कृत में स्नातकोत्तर की डिग्री थी, उसे कपूरथला के काॅलेज से इस महाविद्यालय में स्थानांतरित किया गया था। पिछले 26 वर्ष से वह यहाँ शिक्षण का कार्य कर रहा है। इसी प्रकार सितार मोहम्मद पंजाबी में स्नातकोत्तर तथा ज्ञानी की डिग्रियों से विभूषित था। उसने 27 वर्ष इस महाविद्यालय में सेवाएं दी। सुभाषचन्द्र प्रभाकर शास्त्री तथा संस्कृत में स्नातकोत्तर था जो 25 वर्ष से इस महाविद्यालय में शिक्षण कार्य कर रहा था। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे शिक्षकों को इस महाविद्यालय के स्थाई शिक्षक स्वीकार किया जो बेशक सामान्य विद्यायलों से स्थानांतरित किये गये थे परन्तु अपनी बढ़ी हुई योग्यता के बल पर काफी लम्बी अवधि से इस महाविद्यालय में शिक्षण कार्य करते रहे।
सरकारों को शिक्षकों के सम्बन्ध में इस प्रकार की निरर्थक और लम्बी मुकदमेंबाजी के मार्ग पर नहीं चलना चाहिए। शिक्षकों के सम्बन्ध में नीतियों का निर्माण इस भावना के साथ किया जाना चाहिए कि शिक्षक समाज निर्माण के मुख्य माध्यम हैं। यदि देश के शिक्षकों को इस प्रकार लम्बी अवधि की मुकदमेंबाजी में उलझाये रखा जायेगा तो वे किस प्रकार बच्चों के निर्माण में एकाग्रतापूर्वक कार्य कर पायेगी। नैतिक और श्रेष्ठ नागरिकों के निर्माण की बात तो दूर ऐसे उलझन भरे शिक्षकों से तो अच्छी औपचारिक शिक्षा की कल्पना भी निरर्थक होगी।
-विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट