-विमल वधावन , एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट
कभी-कभी परिस्थितियों का पूर्ण प्रमाण भी अपराधी के द्वारा किये गये अपराध की पुष्टि करता है। परिस्थितियों के प्रमाण के बावजूद यदि अपराधी अपने बेकसूर होने का दावा करे तो इसकी जिम्मेदारी स्वयं उसे निभानी पड़ेगी कि वह सिद्ध करे कि इन परिस्थितियों के बावजूद अपराध उसने नहीं किया तो किसने किया है।
अपराधिक न्यायिक प्रक्रिया में अक्सर अदालतें किसी व्यक्ति को दोषी सिद्ध करने के लिए प्रत्यक्ष और मजबूत प्रमाणों की अपेक्षा करती हैं। न्याय प्रक्रिया का यह सामान्य सिद्धान्त है कि किसी व्यक्ति को केवल संदेह के आधार पर दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत सामान्यतः अदालतें संदेह का लाभ अपराध के दोषी को ही दे देती है और उसे आरोपमुक्त घोषित कर दिया जाता है। इस सिद्धान्त के अपवाद भी बहुत मजबूत है। अपराधियों को यह नहीं समझना चाहिए कि उनके अपराध से सम्बन्धित एक-एक क्षण का प्रत्यक्ष प्रमाण ही उन्हें दोषी ठहरा पायेगा। कई अपराधी और उनके वकील इस मिथ्या विचारधारा में रहते हैं कि यदि प्रमाणों की श्रृंखला में कोई कड़ी सिद्ध न हो पाये तो उसके आधार पर वे संदेह का लाभ लेकर आरोपमुक्त होने में सफलता प्राप्त कर सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने कई निर्णयों में यह स्पष्ट व्याख्या दी है कि कई बार परिस्थितियाँ संदेह का भी स्पष्ट प्रमाण प्रस्तुत कर देती हैं। ऐसी निश्चित परिस्थितियों के आधार पर यदि किसी व्यक्ति पर संदेह किया जा रहा हो तो अपने आपको बेकसूर सिद्ध करने की जिम्मेदारी स्वयं अपराधी की ही होती है।
उत्तराखण्ड के देहरादून क्षेत्र में एक महिला ने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई कि चमन, राकेश तथा सुखबीर के साथ दो अन्य व्यक्ति उसके पुत्र विनोद को पूछते हुए 15 दिन में दो बार आये। इन आगन्तुकों का आरोप था कि विनोद ने चमन के पुत्र की कुछ दिन पूर्व हत्या की है। दोनों बार विनोद घर पर नहीं था। दूसरी बार भी जब उन्हें विनोद नहीं मिला तो वे इस महिला के पति जगराम को अपने साथ कार में बिठाकर ले गये। इस दृश्य को इस महिला के अतिरिक्त उसकी दो बेटियों ने भी देखा। इन तीनों ने उस समय काफी शोर भी मचाया परन्तु चमन आदि 5 व्यक्तियों के जोर-जबरदस्ती के सामने आस-पड़ोस के किसी व्यक्ति ने हस्तक्षेप नहीं किया। इस घटना के तीन दिन बाद जगराम का शव पड़ोस के एक जंगल में बरामद किया गया। सत्र न्यायालय ने इन पांचों अपराधियों को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई जिसे उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय ने भी यथावत रखा। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष इन अपराधियों की अपील प्रस्तुत हुई, जहाँ संदेह का लाभ प्राप्त करने के लिए तरह-तरह के तर्क प्रस्तुत किये गये। मुख्य तर्क यह था कि इस बात का कोई प्रमाण पुलिस द्वारा प्रस्तुत नहीं किया गया कि चमन तथा उसके साथियों ने ही जगराम की हत्या की है। इसके अतिरिक्त भी प्रमाणों को लेकर कई प्रकार की कमियाँ प्रस्तुत की गई।
सर्वोच्च न्यायालय ने समस्त प्रमाणों को देखने तथा तर्कों को सुनने के उपरान्त दिये अपने निर्णय में कहा कि इस बात में कोई संदेह नहीं है कि अपराधी गुट ने 15 दिन में दो बार मृतक के घर पर विनोद की तलाश का प्रयास किया। इस बात में भी कोई संदेह नहीं है कि उन्हें विनोद पर अपराधी चमन के पुत्र की हत्या का संदेह था। इस बात में भी कोई संदेह नहीं है कि घर की तीन महिलाओं द्वारा शोर मचाने के बावजूद जबरदस्ती जगराम को अपने साथ जीप में डालकर ले गये। इस बात में भी कोई संदेह नहीं है कि तीन-चार दिन के बाद नजदीक के एक जंगल से जगराम की लाश प्राप्त हुई। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जब अपराधी किसी व्यक्ति का अपहरण करके अपने साथ ले गये तो उस घटना के बाद अपहृत व्यक्ति का क्या हुआ इसका उत्तर केवल अपराधी ही दे सकते हैं। यह परिस्थितियाँ संदेह को प्रमाण का दर्जा देती है। इस घटना में अपराधियों की मानसिकता और उनके प्रयास भी इस संदेह को पुष्ट करते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में 1990 के एक निर्णय का संदर्भ भी प्रस्तुत किया जिसमें गुरबचन सिंह की बेटी रविन्द्र कौर का विवाह सतपाल के साथ हुआ था। विवाह के लगभग 20 वर्ष बाद रविन्द्र कौर ने आत्महत्या कर ली। इस बीच रविन्द्र कौर लगातार अपने मायके परिवार को अपने ससुराल में पति, सास और ससुर के की जा रही प्रताड़नाओं के बारे में बताती रही है। इस प्रकार प्रताड़ना से सम्बन्धित सारी परिस्थितियों को जब प्रमाण रूप में प्रस्तुत किया जाता है तो अदालतों को यह विचार बनाने में संकोच नहीं करना चाहिए कि इन्हीं परिस्थितियों के कारण किसी व्यक्ति को आत्महत्या के लिए उकसाया जाता है तो उस आत्महत्या का दोष उन्हीं लोगों पर आयेगा जो प्रताड़ना के दोषी पाये गये हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के ऐसे निर्णयों से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि आपराधिक न्याय प्रक्रिया में हर अपराध की घटना को पूर्ण रूप से सिद्ध करने पर अक्सर जोर दिया जाता है, उसके विपरीत कभी-कभी परिस्थितियों का पूर्ण प्रमाण भी अपराधी के द्वारा किये गये अपराध की पुष्टि करता है। परिस्थितियों के प्रमाण के बावजूद यदि अपराधी अपने बेकसूर होने का दावा करे तो इसकी जिम्मेदारी स्वयं उसे निभानी पड़ेगी कि वह सिद्ध करे कि इन परिस्थितियों के बावजूद अपराध उसने नहीं किया तो किसने किया है।
घरेलू हिंसा से सम्बन्धित लगभग सभी घटनाओं में पति का ही यह दायित्व होता है कि यदि उसकी पत्नी परिवार में किसी भी कारण से प्रताडि़त हो रही है तो वह उसकी प्रताड़ना के कारणों को समाप्त करने का प्रयास करे। यदि वह ऐसा नहीं करता तो स्वयं उस प्रताड़ना में शामिल न होते हुए भी उसका यह अपराध माना जायेगा कि उसने प्रताड़ना में सहयोग किया है।