न्याय मंदिरों की तरंगे
यदि भारत की सभी अदालतें अन्तिम निर्णय देते समय सत्य पक्ष को तो हर सम्भव सहायता देने का प्रयास करें परन्तु साथ ही झूठ बोलने वाले पक्ष पर भारी जुर्माने की प्रथा को अपना लें तो हो सकता है भारत की अदालतों में झूठे पक्षकारों के मन-मस्तिष्क पर यह प्रेरित संदेश प्रभाव जमाने लगे कि भारत की अदालतों में झूठ और बेईमानी का सहारा लेना अन्ततः बहुत भारी पड़ेगा।
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-विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट
—————————————————अच्छे संस्कारों का कोई बालक जब युवा अवस्था में पहुँचते-पहुँचते लोगों के आचरण और व्यवहार को देखने और समझने लगता है तो उसके मन में सबसे पहला प्रश्न यह आता है कि लोग झूठ क्यों बोलते हैं? ऐसे ही एक नवयुवक ने मुझसे प्रश्न किया कि अदालतों में जितने भी मुकदमें चल रहे हैं उनमें एक पक्ष तो अवश्य ही झूठ बोलने वाला होगा। अगर दोनों पक्ष ही सत्य बोलने वाले होते तो विवाद ही न होता। एक सामान्य उदाहरण से इस बात को समझा जा सकता है। एक व्यक्ति ने दूसरे व्यक्ति से 50 हजार रुपये का ऋण लिया और एक वर्ष के बाद ब्याज सहित लौटाने का वचन दिया। इस लेन-देन के कुछ दस्तावेज़ भी तैयार किये गये। एक वर्ष बाद जब उसने मूल धन और ब्याज नहीं लौटाया तो ऋण देने वाले ने उस पर दीवानी अदालत में मुकदमों कर दिया। अब यदि दोनों ही पक्ष सत्य बोलने वाले हों तो अदालत की पहली पेशी में ही इस लेन-देन को स्वीकार करें। यदि ऐसा हो जाये तो मुकदमा एक तिथि से भी आगे न चले। अदालतों को ऐसे मुकदमों के निर्णय करना कितना सरल होगा। इसके विपरीत वास्तविक स्थिति यह है कि एक पीड़ित व्यक्ति अदालत में मुकदमा करता है तो देनदार उस मुकदमें में सैकड़ों, हजारों रुपये खर्च करके यह सिद्ध करने में लगा रहता है कि पीड़ित व्यक्ति का मुकदमा झूठा है, उसने झूठे दस्तावेज तैयार किये हैं आदि। जिस वकील के पास यह झूठा प्रतिवादी अपना मुकदमा लेकर जाता है, वास्तव में उसे भी पहली बैठक में ही यह ज्ञान हो जाता है कि इस व्यक्ति ने ऋण लेकर खर्च कर दिया है और अब ऋण की ब्याज सहित अदायगी नहीं कर सकता। वह वकील सत्य को जानते हुए भी उसकी वकालत करना स्वीकार कर लेता है क्योंकि इस वकालत की प्रक्रिया में उसका स्वार्थ भी जुड़ जाता है। इस प्रकार दो स्वार्थी झूठ के पुलन्दे को लेकर अदालतों का समय व्यर्थ करने में लगे रहते हैं। दोनों यह भूल जाते हैं कि अन्ततः सत्यमेव जयते ही सिद्ध होगा। इसी प्रकार कुछ लोग पीड़ित होने का स्वांग भी करने लगते हैं। वकीलों की सलाह और मदद से झूठे दस्तावेज़ तैयार किये जाते हैं। किसी अन्य पक्ष पर झूठे मुकदमें अदालतों में प्रस्तुत किये जाते हैं। यह सब षड्यन्त्र दूसरे सत्य पक्ष को अदालती प्रक्रिया में घसीटकर कुछ वर्षों तक तो उसके लिए सिरदर्द पैदा कर सकते हैं, परन्तु अन्ततः सत्यमेव जयते ही दिखाई देता है।
मुकदमा चाहे वित्तीय लेन-देन का हो, मकान मालिक और किरायेदार का हो, वैवाहिक विवाद हो या कोई भी छोटा-बड़ा अपराधिक मुकदमा, यदि देश के सभी नागरिकों में सत्य को स्वीकार करने और सदा सत्य बोलने की प्रवृत्ति का उदय हो जाये तो एक स्वाभाविक सी कल्पना मन में आती है कि एक वर्ष के अन्दर भारत की अदालतों में चल रहे सभी मुकदमें समाप्त हो जायेंगे। परन्तु कलियुग के इस दौर में सत्य को अपनाना शायद दूर की कौड़ी बन चुका है। फिर भी देश के नागरिकों को यह समझना चाहिए कि झूठ बोलने वाले बकरे की अम्मा कब तक खैर बनायेगी।
दिल्ली के राजकुमार चोपड़ा नामक मकान मालिक ने अपने किरायेदार कुलदीप अग्रवाल के विरुद्ध किरायेदारी खाली करने का मुकदमा किया। जून, 2017 में ट्रायल कोर्ट ने राजकुमार चोपड़ा के पक्ष में निर्णय देते हुए कुलदीप अग्रवाल को किरायेदारी वाला भाग खाली करने का आदेश दिया। कुलदीप अग्रवाल ने दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष अपनी अपील प्रस्तुत करते हुए यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि उसने किरायेदारी वाली सम्पत्ति मकान मालकि से 30 लाख रुपये में खरीद ली थी, जबकि इस खरीद राशि का भुगतान नगद बताया गया और इस नगदी भुगतान की कोई भी रसीद प्रस्तुत नहीं की गई। कुलदीप अग्रवाल ने एक चैक राजकुमार चोपड़ा को दिया जाना सिद्ध किया परन्तु यह चैक तिरस्कृत होकर वापिस हो गया था। सम्पत्ति के खरीदने से सम्बन्धित किसी प्रकार का कोई विक्रयनामा प्रस्तुत नहीं किया गया। यह एक सामान्य कानूनी ज्ञान है कि जब भी कोई सम्पत्ति खरीदी या बेची जाती है तो उसके भुगतान से सम्बन्धित रसीद आदि प्रमुख प्रमाण समझे जाते हैं। कोई विरला ही ऐसा नागरिक होगा जिसे यह न पता हो कि सम्पत्ति खरीदने बेचने से सम्बन्धित दस्जावेज़ों को विधिवत रजिस्ट्रार कार्यालय में पंजीकृत कराया जाता है।
दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री वाल्मीकि मेहता की अदालत में इस अपील पर सुनवाई हुई जिन्हें पहली नजर में इस मुकदमें को पूरी तरह से बेईमान और झूठा मुकदमा समझने में देर न लगी। उन्होंने अपने निर्णय में इस अपील को एक बेईमान मुकदमा घोषित करते हुए कहा कि किरायेदार का उद्देश्य किसी न किसी प्रकार से मुकदमें में समय बर्बाद करके स्वयं किरायेदारी वाले हिस्से में कब्जा बनाये रखना है। जबकि मकान मालिक और किरायेदार का सम्बन्ध भी पूरी तरह से प्रमाणित हो चुका हो। इन परिस्थितियों में श्री वाल्मीकि मेहता ने इस अपील को कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग बताते हुए अपीलार्थी कुलदीप अग्रवाल पर 2 लाख रुपये जुर्माना लगाया और अपील को रद्द कर दिया। यह 2 लाख रुपये प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा गठित ‘भारत के वीर कोष’ में जमा करने का आदेश दिया गया।
यदि भारत की सभी अदालतें अन्तिम निर्णय देते समय सत्य पक्ष को तो हर सम्भव सहायता देने का प्रयास करें परन्तु साथ ही झूठ बोलने वाले पक्ष पर भारी जुर्माने की प्रथा को अपना लें तो हो सकता है भारत की अदालतों में झूठे पक्षकारों के मन-मस्तिष्क पर यह प्रेरित संदेश प्रभाव जमाने लगे कि भारत की अदालतों में झूठ और बेईमानी का सहारा लेना अन्ततः बहुत भारी पड़ेगा। सर्वोच्च न्यायालय तथा सभी राज्यों के उच्च न्यायालयों में कार्यरत न्यायाधीशों की संख्या लगभग 700 से अधिक नहीं है। भारत के यही 700 कर्णधार भी यदि भारत में सत्य की स्थापना का संकल्प ले लें तो सर्वोच्च न्यायालय के प्रतीक स्तम्भ पर लिखा हुआ वाक्य सत्य सिद्ध होने में देर नहीं लगेगी जिसके अनुसार ‘यतो धर्मस्ततो जयः’ अर्थात् जहाँ धर्म होता है वहीं जय होती है। अदालती प्रक्रिया में सत्य ही धर्म का एकमात्र लक्षण है।