अयोध्या विवाद में आया फैसला सवालों के घेरे में
मौहम्मद इल्यास-’’दनकौरी’’/नई दिल्ली
अयोध्या विवाद में गत 9 नवंबर-2019 सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए विवादित जमीन रामलला विराजमाल को देते हुए राम मंदिर निमार्ण का मार्ग प्रशस्त कर दिया। जब कि मस्जिद निमार्ण के लिए अलग से 5 एकड जमीन दिए जाने का आदेश देते हुए इस विवाद को हल किया। इस फैसले का कुछ लोगों ने स्वागत किया तो वहीं दूसरे लोगों ने ऐतराज भी जाहिर किया। इस तरह स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे बडे और लंबे विवाद का यह फैसला पूरी तरह से सवालों के घेरे में आ गया और अब तक बराबर नुक्ताचीनी की जा रही है। मीडिया ही नही बल्कि सोशयल मीडिया तक भी इस फैसले पर बराबर सवाल उठाए जा रहे हैं। आइए सबसे पहले इस विवाद की जड पर गौर करते हैं कि आखिर कब से और कैसे शुरू हुआ अयोध्या विवाद और अदालतों में कैसे होती गई फाइलें मोटी? मुगल बादशाह बाबर के एक सिपहसालार थे मीर बाकी, उन्होंने 1528 में बाबरी मस्जिद का निर्माण कराया। इसके बाद से ही आरोप लगाए जाने लगा कि यहां मंदिर को तोड़ कर मस्जिद बनाई गई है। इसे लेकर हिंदू पक्ष का दावा है कि यह जगह भगवान राम की जन्मभूमि है और यहां पहले एक मंदिर था। मुगल शासन के दौरान ये बात ऐसे ही रही। उस दौरान की घटनाओं का कोई प्रमाण नहीं मिलता है। मंदिर मस्जिद विवाद के चलते अयोध्या में पहली बार 1853 में सांप्रदायिक दंगे हुए। इसके बाद 1859 में अंग्रेजी प्रशासन ने विवादित जगह के आसपास बाड़ लगा दी। हिंदू.मुस्लिम दोनों के लिए पूजा की जगह निर्धारित कर दी। जिसमें मुस्लिमों को मस्जिद के अंदर और हिंदुओं को बाहर चबूतरे पर पूजा करने की अनुमति मिली। इसके बाद से ये मामला यूं ही चलता रहा। अदालत की दहलीज पर पहली बार अयोध्या का मामला 1885 में पहुंचा। बाबरी मस्जिद.रामजन्मभूमि विवाद में निर्मोही अखाड़ा के महंत रघुबर दास ने 1885 में फैजाबाद की जिला अदालत में पहली बार याचिका दायर की थी। उन्होंने फैजाबाद कोर्ट से बाबरी मस्जिद के पास ही राम मंदिर निर्माण की इजाजत मांगी। हालांकि अदालत ने महंत की अपील ठुकरा दी। इसके बाद से मामला गहराता गया। अयोध्या विवाद की असल शुरुआत 23 दिसंबर 1949 को, जब भगवान राम की मूर्तियां मस्जिद में पाई गईं, हुईं। साल 1950 में फैजाबाद सिविल कोर्ट में दो अर्जी दाखिल की गई। इसमें एक में राम लला की पूजा की इजाजत और दूसरे में विवादित ढांचे में भगवान राम की मूर्ति रखे रहने की इजाजत मांगी गई। इसके बाद 1959 में निर्मोही अखाड़ा ने तीसरी अर्जी दाखिल की, जिसमें निर्मोही अखाड़ा चाहता है कि उसे राम जन्मभूमि का प्रबंधन और पूजन का अधिकार मिले। इसके बाद साल 1961 में यूपी सुन्नी वक्फ बोर्ड ने अर्जी दाखिल कर विवादित जगह के पजेशन और मूर्तियां हटाने की मांग की। इसके बाद से यह मामला कोर्ट में उलझा हुआ था। वर्ष 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद यह विवाद सुप्रीम कोर्ट में चल रहा था। अब बात करते हैं सुप्रीम कोर्ट के फैसले की तो कोर्ट ने अपने फैसले में कई पहलूओं से पर्दा हटाया। जिनमें एक बाबरी मस्जिद किसी मंदिर को तोड कर नही बनाई गई थी, कोर्ट ने इस भ्रांति को पूरी तरह से साफ कर दिया। इससे फैलाए गए इस झूठ का पूरी तरह से पर्दाफाश हो गया कि मुगल बादशाह बाबर के आदेश पर सिपाहसालर मीर बकी ने मंदिर तोड कर मस्जिद की बिल्कुल तामीर नही की थी। कुछ लोगों की ओर से तो सीधे ही यह भी भ्रम फैलाया गया कि अयोध्या में भगवान श्री राम के मंदिर को तोड कर बाबरी मजिस्द का निमार्ण किया गया,ये बेसिर पैर साबित हो गया। दूसरा बाबरी मस्जिद के अंदर सन 1949 को मूर्तियां रखी गईं थीं और तीसरा सन 6 दिसंबर-1992 को जब बाबरी मस्जिद को ढहाया गया तो वह कृत्य गैर कानूनी था यानी कानून व्यवस्था का घोर उल्लंघन था। बाबरी मस्जिद को ढहाने के मामले में कई नेताओं के खिलाफ चल रहे केस इस बात का जीता जागता उदाहरण हैं। इन सबके बाजवूद विवादित जमीन रामलला विराजमान को दे दी गई। इससे इस फैसले मे इसांफ का अहसास एक पक्ष को नही दे रहा है। ऐसा इसलिए कहा जा सकता है कि मुस्लिम पक्ष के पक्षकारों ने फैसले को मानने तक से इंकार कर दिया और साथ ही रिव्यू पिटीशन दायर किए जाने की बात भी कही है। देश के सबसे पेचीदा इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 का सहारा भी लिया। इस अनुच्छेद 142 का प्रयोग करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने विवादित जमीन रामलला विराजमान को दी और वहीं 5 एकड जमीन अलग से मस्जिद बनाने के लिए मुस्लिमों को देने के आदेश दिए। बाबरी मस्जिद तोड़े जाने की घटना का जिक्र करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हम अनुच्छेद 142 की मद्द ले रहे हैं, ताकि जो भी गलत हुआ उसे सुधारा जा सके। कोर्ट ने कहा कि मस्जिद के ढांचे को जिस तरह हटाया गया था वह एक धर्मनिरपेक्ष देश में कानूनी तौर पर उचित नहीं था। अब अगर कोर्ट मुस्लिम पक्ष के मस्जिद के अधिकार को अनदेखा करता है तो न्याय नहीं हो सकेगा। संविधान हर आस्था को बराबरी का अधिकार देने की बात करता है। निर्मोही अखाड़ा मामले में भी कोर्ट ने अनुच्छेद 142 का प्रयोग किया। कोर्ट ने फैसले में कहा कि अब निर्मोही अखाड़ा उस बोर्ड का हिस्सा होगा जिसे मंदिर निर्माण की योजना तैयार करनी है। इसलिए हम निर्देश देते हैं कि मंदिर निर्माण योजना तैयार करने में निर्मोही अखाड़ा को प्रबंधन में उचित भूमिका निभाने का मौका दिया जाए। संविधान का अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट को विशेष अधिकार देता है। इसमें कहा गया है कि किसी लंबित मामले में पूर्ण न्याय करने के लिए सुप्रीम कोर्ट अपने अधिकार क्षेत्र में ऐसे आदेश दे सकता है, जो पूरे देश में इस तरह लागू होगा जैसे संसद द्वारा पारित किसी कानून के अंतर्गत होता है। कोर्ट का आदेश लागू रहेगा जब तक कि इसके निमित्त राष्ट्रपति द्वारा दिए गए आदेश के तहत कोई प्रावधान नहीं बन जाता।
बाबरी मस्जिद राम मंदिर फैसले की कुछ खास बातेंः-
पैराग्राफ 633 कोर्ट की ऐसी टिप्पणी से सहज ही एक सवाल उठता है फिर कोर्ट ने विवादित जमीन पर मंदिर के निर्माण का आदेश कैसे दे दिया, जहां 1528 से 6 दिसंबर 1992 को ढहाए जाने तक मस्जिद मौजूद थी। इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने से पहले मौजूदा आदेश के कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर ध्यान देना जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट का आदेश उन निष्कर्षों पर आधारित नहीं है, जिनमें दावा किया गया था कि मस्जिद का निर्माण मंदिर गिराकर किया गया था। कोर्ट ने कहा कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने अपनी जांच में निर्णायक रूप से ये नहीं कहा है कि मस्जिद को बनाने के लिए मंदिर को ढहाया गया था। एएसआई की रिपोर्ट में संकेत किया गया था कि मस्जिद का निर्माण किसी हिंदू मूल के ढांचे के ऊपर किया गया है, जो कि 12वीं सदी का है। हालांकि एएसआई की रिपोर्ट ये नहीं स्पष्ट करती कि मस्जिद के नीचे का ढांचा मंदिर है और क्या इसे किसी इंसानी कार्रवाई में गिराया गया है। कोर्ट ने कहा है कि मस्जिद निर्माण और उस ढांचे के गिरने के बीच 400 सालों का लंबा अंतराल हैए इससे ये संभव है कि वो ढांचा प्राकृतिक आपदा से नष्ट हो गया हो। सुप्रीम कोर्ट ने फैसले के पृष्ठ 907 पर कहा है कि. विवादित भूमि का मालिकाना पुरातात्विक निष्कर्षों के आधार पर नहीं, बल्कि दीवानी मामलों के मानकों और कानूनी सिद्धांतों के आधार किया जाना चाहिए। कोर्ट ने आगे कहा कि यदि ये मान भी लिया जाए कि मस्जिद के नीचे मंदिर का ढांचा थाए तब भी हिंदू पुजारियों का विवादित भूमि पर दावा मजबूत नहीं होता। ऐसे नतीजे का आधारए वो कानूनी सिद्धांत है, जिसमें कहा कि गया है कि न्यायालय पिछले शासकों के कार्यों के आधार पर किए गए दावों पर फैसला नहीं दे सकती, जब तक ऐसे दावों को बाद के संप्रभु शासक स्पष्ट रूप से मान्यता न देते हों। पैराग्राफ 649 में कहा गया है किः हिंदुस्तानी भूखंडों पर मुग़लों की विजय दो संप्रभु शासकों के बीच का एक अति.राष्ट्रीय कार्य था और बाद में नए संप्रभु शासक द्वारा पूर्ववर्ती अधिकारों को मान्यता नहीं दी गई। जिसके बाद किसी भी विवादित संपत्ति पर दावे मात्र इस आधार पर लागू नहीं किया जा सकता कि शासन में बदलाव हो चुका है। ये न्यायालय ऐसे किसी दावे को स्वीकार नहीं कर सकती या लागू नहीं करवा सकतीए जिसका आधार मात्र ये हो कि विवादित भूमि के नीचे 12 वीं सदी में एक मंदिर था। कोर्ट का ये मत प्रमोद चंद्रा बनाम स्टेट ऑफ ओडसि 1961 के मामले में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच के उस फैसले के आधार पर दिया गया है, जिसमें कहा गया था कि कोर्ट केवल आधिकार और दायित्वों के उन मामलों में ही फैसला देगी, जिन्हें नए शासकों ने साक्ष्य द्वारा स्थापित आचरण के माध्यम से स्पष्ट रूप से या निहित रूप से स्वीकार किया हो। कोर्ट ने कहा कि अंग्रेजों ने 1856 में विवादित संपत्ति को जब्त करने बाद दोनों की समुदायों को अपनी धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक पूजा की इजाजत दी थी। इस प्रकार अंग्रेजों ने दोनों की समुदायों के दावों को स्वीकार किया था। चूंकि संविधान ब्रिटिश शासन और भारतीय गणराज्य को निरंतरता प्रदान करता है अनुच्छेद 372 और 296 इसलिए ब्रिटिश शासन के दौरान मौजूद निजी दावों को स्वतंत्रता के बाद भी लागू किया जा सकता है। फैसले में कहा गया हैः भारतीय संविधान ब्रिटिश शासन और भारतीय गणराज्य के बीच वैधानिक निरंतरता संभव बनाता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय गणराज्य का आचरण ब्रिटिश शासन काल में मौजूद निजी संपत्ति के दावों को बनाए रखने के लिए था। इसलिए वर्तमान उद्देश्यों के लिए व्यक्त और निहित दोनों मान्यताएं हैं कि स्वतंत्र भारतीय संप्रभु राज्य ने ब्रिटिश संप्रभु राज्य के तहत मौजूद संपत्ति के दावों को निजी दावों के रूप में मान्यता दी है और ये मान्यता तब तक मौजूद है कि जब तक कि स्पष्ट रूप से इसके विरोध में सबूत नहीं दिया गया हो। इसलिए मौजूदा विवाद मेंए जो कि औपनिवेशकि दौर में हुआ था, सभी पक्षों के अधिकारों को अदालत द्वार आज भी लागू कराया जा सकता है। पैरा 651 दूसरे शब्दों में कोर्ट ने कहा है कि वो इतिहास की यात्रा कर सकती है हालांकि मात्र ब्रिटिशों द्वारा मान्यता प्राप्त अधिकारों और दावा की खतिर ही वो ऐसा कर सकते हैं क्योंकि मौजूदा संविधान केवल ब्रिटिश शासन को मौजूदा शासन तंत्र से जोड़ता है, न कि ब्रिटिश शासन से पहले की राज व्यवस्थाओं को। कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि 1856 में अवध के ब्रिटिश राज में शामिल होने के बाद सभी पक्षों के कार्य वर्तमान मुकदमें में उन पक्षों के कानूनी अधिकारों का निरंतर आधार का निर्माण करते हैं और यही वो कृत्य है, जिनका वर्तमान विवाद को तय करने के लिए न्यायालय का मूल्यांकन करना चाहिए। पैरा 652 यहां पर एक और आशंका खड़ी होती हैः यह देखते हुए कि 1856 के बाद सभी पक्षों के कृत्यों ने दावों का आधार बनाया,अदालत ने इस आधार पर कि सुन्नी वक्फ बोर्ड 1528 और 1856 की संपत्ति पर निर्बाध कब्जा साबित नहीं कर सका। हिंदू पुजारियों के कब्जे के दावे का पक्ष कैसे ले लिया? अदालत को 1528 और 1856 के बीच कब्जे के सवाल पर जाना पड़ा क्योंकि सुन्नी वक्फ बोर्ड द्वारा मुकदमा इस दावे पर आधारित था कि बाबरी मस्जिद मुसलमानों के लिए 1528 में नमाज की जगह के रूप में चिन्हित थी। कोर्ट ने कहा कि वक्फ बोर्ड 1528 से निरंतर उपयोग के अपने स्वयं के दावे को स्थापित नहीं कर पाया और कोर्ट ने पाया कि हिंदू पक्ष ने विवादित स्थल के ऐतिहासिक कब्जे और उपयोग का दावा बेहतर तरीके से स्थापित किया। हालांकि इस बिंदु पर न्यायालय द्वारा साक्ष्यों के मूल्यांकन पर सवाल भी उठे हैं। कोर्ट ने ऐतिहासिक कब्जे के मुद्दे पर हिंदू पुजारयिं और सुन्नी बोर्ड पर भिन्न तरीके का प्रूफ ऑफ बर्डेन डाला। इस आलेख मकसद सक्ष्यों के मूल्यांकन पर ध्यान देना नहीं बल्कि ये ध्यान दिलाना है कि हिंदू पक्ष को इस आधार पर राहत नहीं दी गई कि मस्जिद के नीचे मंदिर था। कोर्ट ने नहीं माना है कि मस्जिद के नीचे मंदिर था। सुप्रीम कोर्ट का फैसला विवादित भूमि पर कब्जे के प्रतियोगी दावों पर आधारित है, हालांकि यहां दावों के पक्ष में पेश सबूतों की मूल्यांकन प्रक्रिया पर सवाल है। कोर्ट ने समय की ये पश्चगामी यात्रा केवल कब्जे के दावों के परीक्षण के लिए की है, ना कि किसी ऐतिहासिक गलती को सुधारने के लिए। इसलिए ये फैसला इस बात की नजीर नहीं बनता कि कोर्ट पुराने शासकों द्वारा कथित रूप से गिराए गए ऐतिहासिक ढांचों के मामलों में कोई सुधार कर सकता है। कानून पूजा स्थल में बदलाव की इजाजत नहीं देता इस मामले ये बताना जरूरी है कि संसद द्वारा बनाया गया एक कानून सांप्रदायिक सद्भाव को बनाए रखने के लिए किसी भी पूजा स्थल में बदलाव की इजाजत नहीं देता। यह पूजा स्थल विशेष प्रावधान अधिनियम 1991 है, जिसे संसद द्वारा पूजा स्थलों के जबरन परिवर्तन पर रोक लगाने के उद्देश्य से पारित किया गया था। अधिनियम की धारा 3 किसी भी धार्मिक संप्रदाय पूजा स्थल में बदलकर किसी अन्य धार्मिक संप्रदाय की पूजा स्थल बनाने पर रोक लगाती है। इस धारा के मुताबिक किसी भी पूजा स्थल को 15 अगस्त 1947 की स्थिति में बरकरार रखना होगा। इस प्रावधान का उल्लंघन एक दंडनीय अपराध है, जिसके तहत तीन साल की अवधि के लिए कारावास और जुर्माना हो सकता है। ये कानून राम जन्मभूमि आंदोलन की पृष्ठभूमि में बनाया गया था। हालांकि इस अधिनियम अयोध्या विवाद पर लागू नहीं किया गया। अधिनियम की धारा 5 में इसके प्रावधानों को राम जन्म भूमि.बाबरी मस्जिद स्थल और इससे संबंधित किसी भी वाद, अपील या कार्यवाही के मामले में लागू करने को लेकर छूट दी गई है। अधिनियम का उद्देश्य 15 अगस्त 1947 को मौजूद किसी भी पूजा स्थल की धार्मिक पहचान की रक्षा करना है। इस संबंध में धारा 4 (1 ) में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि पूजा स्थल का धार्मिक चरित्र, जैसा 15 अगस्त 1947 को था, वैसे ही बरकरार रखा जाएगा। धारा 4 (2) विशेष रूप से इस बात पर विचार करती है कि पूजा स्थल कानून के शुरू होने के दिन मौजूद सभी मुकदमें, अपील और कानूनी कार्यवाही जिन्हें 15 अगस्त 1947 को मौजूद धार्मिक स्थल के चरित्र को बदलने में मामले दायर किया गया था और जो किसी भी अदालत ट्रिब्यूनल या प्राधिकरण के समक्ष लंबित हैं उन्हें समाप्त किया जाता है और पूजा स्थल कानून पारित हो जाने के बाद इस तरह के मामलों में कोई मुकदमाए अपील या कार्यवाही नहीं की जाएगी। इस मामले में एक मात्र अपवाद सेक्शन (2) है जहां इस आधार पर कि धार्मिक स्थल का चरित्र 15 अगस्त1947 के पहले बदला जा चुका, मुकदमे, अपील या कार्यवाही को स्थापित किया जाता है। अयोध्या का फैसला इस अधिनियम का समर्थन करते हुए कहता है कि यह संविधान की एक बुनियादी विशेषता धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखने के लिए लागू किया गया था। फैसले में कहा गया है कि राज्य ने कानून बनाकर एक संवैधानिक प्रतिबद्धता को लागू किया है और सभी धर्मों की समानता और धर्मनिरपेक्षता को बरकरार रखने के अपने संवैधानिक दायित्वों का संचालन किया है जो संविधान की मूल विशेषताओं का एक हिस्सा है। भारतीय संविधान के तहत धर्मनिरपेक्षता के प्रति हमारी प्रतिबद्धता को लागू करने के लिए पूजा स्थल अधिनियम एक गैर.अपमानजनक दायित्व है, तात्पर्य ये कि कम से कम सैद्धांतिक रूप से इसे खत्म नहीं किया जा सकता। इसलिए यह कानून भारतीय राजनीति की धर्मनिरपेक्ष विशेषताओं की रक्षा के लिए बनाया गया एक विधायी औजार है, जो संविधान की मूल विशेषताओं में से एक है। कोर्ट ने कहा कि अधिनियम इस बात पर जोर देता है कि इतिहास और उसकी गलतियों का इस्तेमाल वर्तमान और भविष्य पर अत्याचार करने के उपकरणों के रूप में नहीं किया जाएगा। पूजा स्थल अधिनियम आंतरिक रूप से एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के दायित्वों से संबंधित है। यह सभी धर्मों की समानता के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। इन सबसे ऊपर पूजा स्थल अधिनियम उस पवित्र कर्तव्य का पुष्टिकरण है, जिसके तहत राज्य पर सभी धर्मों की समानता को संरक्षित और सुरक्षति करने का दायित्व है और जो एक आवश्यक संवैधानिक मूल्य है एक ऐसा आदर्श जिसे संविधान की मूल विशेषता होने का दर्जा प्राप्त है। पूजा स्थल अधिनियम को पारित करने का एक उद्देश्य है। ये कानून हमारे इतिहास और राष्ट्र के भविष्य के लिए बात करता है। जैसा कि हम अपने इतिहास को जानते हैं और राष्ट्र की आवश्यकता के रूप में जैसे कि इसका समाना करने की जरूरत है, स्वतंत्रता हमारे अतीत के घावों को भरने का निर्णायक क्षण थी। ऐतिहासिक गलतियों को लोग कानून अपने हाथ में लेकर ठीक नहीं कर सकते। सार्वजनिक पूजा के स्थानों के चरित्र को संरक्षित करने में, संसद ने बिना किसी दुविधा के आदेश दिया है कि इतिहास और इसके गलत इस्तेमाल को वर्तमान और भविष्य पर अत्याचार करने के लिए उपकरणों के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने इस अधिनियम के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जस्टिस डीवी शर्मा द्वारा की गई टिप्पणियों को खारिज कर दिया था। जस्टिस शर्मा ने कहा था कि अधिनियम उन मामलों को अलग नहीं करता है, जहां अधिनियम के लागू होने से पहले उन मामलों की घोषणा हो चुकी थी और जो अधिनियम के लागू होने से पहले घोषित किए गए थे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कि जस्टिस शर्मा द्वारा दी गई टिप्पणियां धारा 4(1 ) के तहत वैधानिक योजना और संवैधानिक मूल्य के खिलाफ हैं। शीर्ष अदालत के शब्दों में जस्टिस डीवी शर्मा द्वारा पूजा स्थल अधिनियम कानून पर की गई टिप्पणियां कानून की योजना के विपरीत हैं क्योंकि वे संवैधानिक मूल्यों के ढांचे के अनुरूप हैं। पैराग्राफ 84 उक्त अधिनियम का सख्त और त्वरित से कार्यान्वयन। उन आंदोलनों की हवा निकाल सकता है जो कथित ऐतिहासिक गलतियों के आधार बनाकर मौजूदा ढांचों पर स्वामित्व का दावा करते हैं और सांप्रदायिक अशांति पैदा करते हैं।