अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति ( अत्याचार निवारण ) अधिनियम की धारा-3 (2 ) (वी ) के तहत किसी अपराध को बनाए रखने के लिए यह साबित किया जाना आवश्यक है कि अपराध केवल इस आधार पर किया गया कि पीडित व्यक्ति अनुसूचित जाति या जनजाति का सदस्य था। सुप्रीम कोर्ट ने एससी.एसटी अधिनियम के तहत अभियुक्तों की सजा को इस आधार पर रद्द कर दिया कि इस बात का कोई आधार नहीं है कि आरोपी द्वारा ये अपराध केवल इसलिए किया गया था क्योंकि मृतक अनुसूचित जाति का था।
कानून रिव्यू/नई दिल्ली
—————————–अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति ( अत्याचार निवारण ) अधिनियम की धारा-3 (2 ) (वी ) के तहत किसी अपराध को बनाए रखने के लिए यह साबित किया जाना आवश्यक है कि अपराध केवल इस आधार पर किया गया कि पीडित व्यक्ति अनुसूचित जाति या जनजाति का सदस्य था। सुप्रीम कोर्ट ने एससी.एसटी अधिनियम के तहत अभियुक्तों की सजा को इस आधार पर रद्द कर दिया कि इस बात का कोई आधार नहीं है कि आरोपी द्वारा ये अपराध केवल इसलिए किया गया था क्योंकि मृतक अनुसूचित जाति का था। ट्रॉयल कोर्ट और उच्च न्यायालय ने आरोपियों को माना था दोषी इस मामले में ( खुमान सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य ) दोनो, ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट ने यह दर्ज किया था कि आरोपी ने मृतक को डांटा था कि वह खंगार जाति का है और वह किस तरह ठाकुर जाति से संबंधित व्यक्ति के मवेशियों को भगा सकता है। इसलिए दोनों ने यह निष्कर्ष निकाला कि आरोपी ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति ( अत्याचार निवारण ) अधिनियम की धारा-3 (2 )(वी ) के तहत अपराध किया है। उच्च न्यायालय ने भी हत्या के आरोपियों की सजा की पुष्टि की थी। मामले की अपील में पीठ ने दिनेश उर्फ बुद्ध बनाम राजस्थान राज्य में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लेख किया और कहा कि जैसा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा आयोजित किया गया है, अपराध ऐसा होना चाहिए जिससे अधिनियम की धारा-3 (2 ) (वी ) के तहत अपराध को आकर्षित किया जा सके। जिस व्यक्ति के खिलाफ अपराध किया गया है वो व्यक्ति अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का सदस्य होना चाहिए। वर्तमान मामले में तथ्य यह है कि मृतक खंगार जाति से संबंधित था और उसकी अनुसूचित जाति विवादित नहीं है। यह दिखाने के लिए कोई सबूत मौजूद नहीं है कि अपराध केवल इस आधार पर किया गया था कि पीडित अनुसूचित जाति का सदस्य था और इसलिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की धारा-3 (2 ) (वी ) के तहत अपीलार्थी.अभियुक्त की सजा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति ( अत्याचार निवारण ) अधिनियम के तहत बरकरार नहीं रखी जा सकती है। न्यायमूर्ति आर0 बानुमति और न्यायमूर्ति ए0 एस0 बोपन्ना की पीठ ने इसके बाद एससी.एसटी अधिनियम की धारा-3 (2 ) (वी ) के तहत अभियुक्तों को मिली सजा को रद्द कर दिया और आईपीसी की धारा 302 को भी धारा 304 भाग-2 में संशोधित कर दिया। साथ ही आरोपी को उतने कारावास की सजा भी सुनाई जो वो पहले ही गुजार चुका है।