नवयुवा सामाजिक राजनीति का प्रशिक्षण लेकर अधिक से अधिक में राजनीतिक दायित्वों को भी संभालने के लिए सक्षम हो पायेंगे। इस महान कार्य को करने के लिए अब तक स्थापित राजनीतिक दल कभी भी कोई प्रयास नहीं करेंगे। इसके लिए एक तरफ महात्मा गाँधी, सरदार पटेल, सुभाषचन्द्र बोस जैसे किसी दार्शनिक व्यक्तित्व का अवतरण आवश्यक है तो दूसरी तरफ स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द, योगीराज श्री अरविन्दो घोष जैसे आध्यात्मिक और सामाजिक विचारकों का दिशा निर्देश आवश्यक है।
भारतीय राज्यों के निर्वाचनों द्वारा राज्य सरकारों को चुनना हो या लोकसभा निर्वाचनों के द्वारा नई केन्द्र सरकार का गठन करना हो, हर बार मतदाता जागरूकता का शोर मचाकर मतदाताओं से वोट ले लिये जाते हैं। दिखावे के लिए मतदाताओं की भागीदारी का आधार तैयार करके एक दिखावटी लोकतंत्र भी खड़ा हो जाता है। परन्तु प्रत्येक निर्वाचन के बाद एक मूल प्रश्न सदैव अनुत्तरित रह जाता है – देश में सामाजिक और परोपकारी कार्यों से सुसज्जित राजनीतिक व्यवस्था कब दिखाई देगी? देश के युवाओं को कब एक सच्चे उत्साहपूर्ण वातावरण में पढ़ाई करने, अपने भविष्य का निर्माण करने से लेकर देश के सच्चे कर्णधार बनने का अनुभव कब प्राप्त होगा?
मतदान करने के बाद आप देश के किसी भी मतदाता के समक्ष एक प्रश्न रखो कि क्या नई सरकार आपके जीवन को सही आधार और सही दिशा देने के लायक होगी? एक बार का सरकार का गठन हो जाने के बाद मतदाताओं का उत्सव समाप्त हो जाता है और उत्साह ठंडा हो जाता है। सरकार गठन हो जाने के बाद देश का युवा बहुत बड़ी संख्या में फिर से दिग्भ्रमित और असहाय बेरोजगार की तरह अपनी शिक्षा और आजीविका के संघर्ष में अकेला ही टक्करे मारता हुआ नजर आयेगा। इस संघर्ष में हारे हुए लोग या तो नशों का शिकार होने लगेंगे या अपराधों का दामन थाम लेंगे। परन्तु राजनीति की बागडोर उन्हीं गिने-चुने राजनीतिक दलों में रहेगी जो राजनीतिक व्यवस्थाओं पर अपना एकाधिकार स्थापित कर चुकी हैं। किस शुभ समय पर भारत के युवाओं की सक्रिय भागीदारी देश के प्रत्येक क्षेत्र में सुनिश्चित होगी यह अब तक दिवा स्वप्न सा बना हुआ है।
1984 में श्रीमती इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद 41 वर्षीय राजीव गाँधी के रूप में देश को एक युवा प्रधानमंत्री प्राप्त हुआ था। इस युवा प्रधानमंत्री के पदभार संभालते ही संयुक्त राष्ट्रसंघ ने 1985 को अन्तर्राष्ट्रीय युवा वर्ष घोषित किया। श्री राजीव गाँधी ने उसी वर्ष एक नये युवा मंत्रालय का गठन किया। इससे पूर्व शिक्षा मंत्रालय के अन्तर्गत एक युवा विभाग कार्यरत था। स्वयं श्री राजीव गाँधी ने केन्द्र सरकार के सभी मंत्रालयों को पत्र लिखकर युवाओं के उचित दिशा निर्देशन तथा कल्याण के लिए सुझाव मांगे। शिक्षा मंत्रालय के युवा विभाग में उस समय डाॅ. भगबान प्रकाश नामक सलाहकार को इस पत्र की प्रक्रिया में कोई ठोस सुझाव प्रस्तुत करने के लिए कहा गया। डाॅ. भगबान प्रकाश ने अन्य कई सुझावों के बीच एक मुख्य सुझाव यह दिया कि समाज में युवाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए और विशेष रूप से उन्हें राजनीतिक जिम्मेदारी के प्रति सचेत करने के लिए मतदान की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर देनी चाहिए। डाॅ. भगबान प्रकाश के इस सुझाव से भी अधिक रुचिकर वे आधार थे जिनके बल पर मतदान आयु घटाने का सुझाव तैयार किया गया था।
18 वर्ष की आयु में युवा लोग अपने जीवन की वयस्क अवस्था में प्रवेश कर जाते हैं। विद्यालय की शिक्षा के बाद वे विश्वविद्यालय स्तर पर औपचारिक शिक्षा के साथ-साथ अनेकों सेवा और विशेषज्ञ क्षेत्रों का अनुभव प्राप्त करने लगते हैं। 18 वर्ष की आयु के बाद देश के युवा नौकरी के लिए आवेदन कर सकते हैं। जब एक व्यक्ति सरकारी नौकरी प्राप्त करने के लिए अधिकृत है तो वह सरकार के निर्वाचन में भागीदारी क्यों नहीं दिखा सकता? देश का युवा 18 वर्ष की आयु में सेना में भर्ती होकर देश की सुरक्षा का दायित्व संभाल सकता है तो लोकतंत्र की रक्षा के लिए उस पर विश्वास क्यों नहीं किया जा सकता? 18 वर्ष की आयु में व्यक्ति का ड्राइविंग लाइसेंस बन सकता है तो उसे मतदान से वंचित रखना कहां तक उचित है। देश की लगभग आधी जनसंख्या 18 वर्ष की आयु में विवाह करने के लिए अधिकृत है। 18 वर्ष की आयु में युवा बच्चियाँ माँ बनकर देश के भावी नागरिकों को उत्पन्न कर सकती हैं तो 5 वर्ष के लिए सरकारों के चयन में मतदान क्यों नहीं कर सकती? इस प्रकार के तार्किक और दूरगामी प्रभाव वाले विचारों के बल पर ही श्री राजीव गाँधी ने तत्काल इसे स्वीकार करते हुए भारतीय संविधान तथा जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन का मार्ग प्रशस्त किया और मतदान की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई।
1985 से लेकर आज 2017 तक के 32 वर्षों में यह परिवर्तन तो अवश्य देखने को मिला है कि राजनीति में युवाओं की भागीदारी बढ़ गई है। मतदान की प्रतिशत मात्रा भी कहीं-कहीं 80 का स्तर छूने लगी है। जहाँ युवाओं में जागृति और शिक्षा का अभाव है वहाँ अब भी मतदान 40 से 50 प्रतिशत के बीच ही रह जाता है।
मतदान की आयु 18 वर्ष से और अधिक घटाकर 16 वर्ष तक लाने का विचार भी कई बार उठता नजर आया है। 16 वर्ष आयु के पीछे अब भी तर्क उसी प्रकार के ही दिये जा रहे हैं कि युवाओं में अब परिपक्वता का स्तर 16 वर्ष की आयु में दिखाई देने लगा है। सामान्यतः समाज में अब शारीरिक और मानसिक रूप से युवाओं की परिपक्वता पिछले युगों की अपेक्षा अधिक नजर आने लगी है। शिक्षा में सुधार और इण्टरनेट जैसे तकनीकी साधनों के बल पर 16 वर्ष की आयु में बच्चों की जागरूकता पहले की अपेक्षा सुदृढ़ नजर आने लगी है। आज सारे विश्व में लगभग 500 से अधिक टी.वी. चैनल भी 16 वर्ष की अवस्था वाले बच्चों को सारी दुनिया की जानकारियों उपलब्ध कराने का कार्य कर रहे हैं। मतदान के लिए 16 वर्ष की आयु करने के विरुद्ध कुछ अन्य तर्क भी सामने आते हैं। यह अवस्था अधिक संवेदनशील होती है, परिवार और समाज की परम्पराओं के प्रभाव में होती है। इस अवस्था में व्यक्ति के दिग्भ्रमित होने की भी संभावना अधिक होती है। परन्तु कुल परिस्थितियों का आंकलन करने के बाद मतदान की आयु 18 के स्थान पर 16 वर्ष करने का सुझाव बलशाली दिखाई देता है। यदि यह आयु घटाई जाती है तो निःसंदेह मतदान प्रतिशत में और अधिक वृद्धि होगी।
बेशक मतदान में युवाओं की भागीदारी बढ़ जायेगी परन्तु युवाओं को सुसंस्कृति, सेवा और परोपकार के साथ राजनीति में सक्रिय भागीदारी का अवसर किस प्रकार मिलेगा? यह प्रश्न तब तक अनुत्तरित रहेगा जब तक हमारे देश में समाज सेवा और कल्याण कार्यों से जोड़कर राजनीति के एक नये पथ का निर्माण नहीं होगा। इसी पथ पर चलते हुए देश के नवयुवा वर्ग को एक तरफ मतदान का अधिकार देना लाभकारी होगा तो दूसरी तरफ ऐसे ही नवयुवा सामाजिक राजनीति का प्रशिक्षण लेकर अधिक से अधिक में राजनीतिक दायित्वों को भी संभालने के लिए सक्षम हो पायेंगे। इस महान कार्य को करने के लिए अब तक स्थापित राजनीतिक दल कभी भी कोई प्रयास नहीं करेंगे। इसके लिए एक तरफ महात्मा गाँधी, सरदार पटेल, सुभाषचन्द्र बोस जैसे किसी दार्शनिक व्यक्तित्व का अवतरण आवश्यक है तो दूसरी तरफ स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द, योगीराज श्री अरविन्दो घोष जैसे आध्यात्मिक और सामाजिक विचारकों का दिशा निर्देश आवश्यक है।