-विमल वधावन , एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट
कर्मचारियों को भी अपनी सेवा शर्तों के साथ-साथ यह ध्यान रखना चाहिए कि जो प्रबन्धक उनके मानसिक विकास जैसे प्रशिक्षण आदि के लिए कुछ अतिरिक्त व्यय करता है तो उन्हें उसका तिरस्कार करते हुए सेवा का त्याग नहीं करना चाहिए। ऐसी परिस्थितियों के अतिरिक्त यदि कोई प्रबन्धक किसी कर्मचारी को बंधुआ मजदूर बनाने का प्रयास करता है तो कानून ऐसे प्रयासों को भी मान्यता नहीं देता।
व्यापारिक संसार में प्रतियोगिता लगातार बढ़ती जा रही है। यह प्रतियोगिता केवल वस्तुओं और सेवाओं के विक्रय तक ही सीमित नहीं रही अपितु अब इस प्रतियोगिता का असर नौकरी पर रखे जाते समय कर्मचारियों के जीवन पर भी दिखाई देने लगा है। प्रतियोगिता के इस युग में प्रत्येक प्रबन्धक अच्छी से अच्छी योग्यता वाले कर्मचारियों को रखकर अपने बाजार में अपनी छवि को ऊँचा उठाना चाहता है। कभी-कभी प्रबन्धक अपने कर्मचारियों को कुछ विशेष प्रकार का प्रशिक्षण आदि भी प्रदान करते हैं। कुछ प्रबन्धक अपने विशेष कर्मचारियों के साथ अपने व्यापार की गुप्त नीतियाँ भी साझा करते हैं। इन परिस्थितियों में यदि कोई कर्मचारी अपनी योग्यता में वृद्धि करने के तुरन्त बाद या व्यापार की गुप्त नीतियों को समझने के बाद अचानक उस संस्थान को छोड़कर अन्य किसी संस्थान में जाने का प्रयास करता है तो स्वाभाविक रूप से पूर्व संस्थान के कार्यों को कर्मचारियों के ऐसे प्रयास से आघात पहुँचता है। ऐसी कुछ परिस्थितियों से बचने के लिए प्रबन्धक अपने ऐसे कर्मचारियों के साथ एक निश्चित अवधि का बाॅण्ड रूपी अनुबन्ध हस्ताक्षर करते हैं तो इसमें कोई गैर-कानूनी अवधारणा नजर नहीं आती।
यदि हर प्रकार की नौकरी के समय प्रबन्धकों के द्वारा कर्मचारियों को एक निश्चित अवधि तक के लिए बांधने के उद्देश्य से बाॅण्ड प्रक्रिया का प्रयोग प्रारम्भ कर दिया जाये तो निश्चय ही यह एक प्रकार की बंधुआ मजदूरी मानी जाती है और भारतीय कानून तथा अदालतें ऐसी बाॅण्ड प्रक्रिया को बैध नहीं मानती।
सेवा बाॅण्ड सेवा अनुबन्ध का ही एक भाग होते हैं। भारतीय अनुबन्ध कानून की धारा-27 के अनुसार कोई भी ऐसा अनुबन्ध जो किसी अन्य व्यक्ति पर व्यापार या पेशे के लिए प्रतिबन्ध लगाता हो उसे अवैध समझा जाता है। भारतीय कानून में यदि किसी अनुबन्ध के द्वारा अन्य व्यक्ति के कार्यों पर प्रतिबन्ध लगता है तो उसे तभी कानूनी मान्यता मिलती है जब वह प्रतिबन्ध उस व्यक्ति की स्वतन्त्र स्वीकृति से दिया गया हो और स्वीकृति के पीछे धोखा, दबाव या कोई अनैतिक प्रभाव कार्य न कर रहा हो।
इन कानूनी अवधारणाओं के चलते यदि कोई प्रबन्धक बिना किसी विशेष कारण के किसी कर्मचारी के साथ निश्चित अवधि का अनुबन्ध करता है तो पूरी सम्भावना यह होगी कि अदालतें ऐसे अनुबन्ध को वैध नहीं ठहरायेंगी। अदालतों के समक्ष ऐसे किसी प्रतिबन्ध को सही सिद्ध करना प्रबन्धकों का दायित्व होता है। अदालतें प्रतिबन्ध को केवल उन्हीं परिस्थितियों में उचित मानती हैं जब प्रतिबन्ध आवश्यक और तर्क संगत हो। इस प्रकार ऐसे किसी प्रतिबन्ध की आवश्यकता प्रत्येक मुकदमें के तथ्यों और परिस्थितियों से ही सिद्ध हो सकती है। दूसरी तरफ कानून की यह मान्यता भी स्थापित है कि कोई भी कर्मचारी अपनी सेवा से किसी भी समय त्याग पत्र दे सकता है, बेशक उस सेवा के लिए उसने आगे तक की अवधि का बाॅण्ड ही क्यों न भरा हो। परन्तु प्रबन्धक का भी यह अधिकार है कि यदि इस सेवा अवधि के दौरान त्याग पत्र देने वाले कर्मचारी के शिक्षण-प्रशिक्षण पर यदि कुछ राशि खर्च की गई हो या उसके साथ कुछ गुप्त व्यापारिक नीतियाँ साझा की गई हो तो वह अदालत से उस अनुबन्ध के पालन का आग्रह करने की प्रार्थना करे जिसमें कर्मचारी के द्वारा एक निश्चित अवधि से पूर्व त्याग पत्र पर प्रतिबन्ध लागू था। सामान्यतः अदालतें इन परिस्थितियों में किसी व्यक्ति को पुनः सेवा के लिए आग्रह करने का आदेश तो नहीं देती परन्तु प्रबन्धक को हुई हानि के मुआवजे़ के रूप में ऐसे कर्मचारी के विरुद्ध एक निर्धारित राशि का भुगतान करने के आदेश दिये जा सकते हैं। यह राशि बाॅण्ड राशि के बराबर ही हो, ऐसा भी निश्चित नहीं है। मुआवज़ राशि का निर्धारण प्रबन्धक की हानि के दृष्टिगत किया जाता है।
एक मुकदमें में तीन वर्ष की अवधि तक कार्य करने का बाॅण्ड था। यदि कर्मचारी इस अवधि से सेवा का त्याग करता तो उसे 2 लाख रुपये का भुगतान प्रबन्धक को देने की शर्त थी। प्रबन्धक ने लगभग 60 हजार रुपये उस कर्मचारी के प्रशिक्षण पर खर्च किये। कर्मचारी ने 2 वर्ष बाद सेवा का त्याग कर दिया। अदालत का निर्णय था कि कर्मचारी को दिये गये प्रशिक्षण का दो तिहाई लाभ प्रबन्धक उठा चुका है केवल एक तिहाई सेवा अवधि शेष थी अतः उसके बदले में प्रबन्धक द्वारा प्रशिक्षण पर खर्च की गई राशि का एक तिहाई अर्थात् 20 हजार रुपये का कर्मचारी द्वारा प्रबन्धक को भुगतान किया जाये।
मैसूर राज्य के द्वारा अमेरिका में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए एक छात्र को पूरा खर्च इस शर्त पर उपलब्ध कराया गया कि वह शिक्षा प्राप्त करने के बाद तुरन्त सरकारी सेवा के लिए 5 वर्ष की अवधि लगायेगा। अमेरिका से शिक्षा प्राप्त करने के बाद 6 माह में उस छात्र को सरकार के समक्ष अपना आवेदन प्रस्तुत करना था। इस छात्र ने अमेरिका में उच्च शिक्षा प्राप्त की और उसके बाद 6 माह तक उसने सरकार से सम्पर्क भी नहीं किया। सर्वोच्च न्यायालय ने उस छात्र को अपनी शिक्षा पर खर्च की गई सारी राशि सरकार को लौटाने का आदेश दिया।
कर्मचारियों को भारतीय अनुबन्ध कानून की धारा-74 का भी स्मरण रखना चाहिए जिसमें यह स्पष्ट कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति अनुबन्ध में किसी जुर्माना राशि के लिए स्वीकृति प्रदान करता है तो उसे उस जुर्माना राशि के भुगतान के लिए बाध्य किया जा सकता है। इस प्रकार कानून की सभी मान्यताओं को देखते हुए कर्मचारियों को भी अपनी सेवा शर्तों के साथ-साथ यह ध्यान रखना चाहिए कि जो प्रबन्धक उनके मानसिक विकास जैसे प्रशिक्षण आदि के लिए कुछ अतिरिक्त व्यय करता है तो उन्हें उसका तिरस्कार करते हुए सेवा का त्याग नहीं करना चाहिए। ऐसी परिस्थितियों के अतिरिक्त यदि कोई प्रबन्धक किसी कर्मचारी को बंधुआ मजदूर बनाने का प्रयास करता है तो कानून ऐसे प्रयासों को भी मान्यता नहीं देता। सामान्यतः यह देखा जा रहा है कि प्रबन्धक केवल प्रतियोगिता युग के वातावरण का लाभ उठाते हुए बेवश नवयुवकों को सेवा बाॅण्ड के चक्रव्यूह में फंसाकर उन्हें बंधुआ मजदूरी की तरह कार्य करने के लिए मजबूर कर रहे हैं।