कानून रिव्यू/नई दिल्ली
मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों, बौद्धों और पारसियों को अल्पसंख्यक का दर्जा देने वाली केंद्र की 26 साल पुरानी अधिसूचना को चुनौती देने वाली याचिका सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दी है। सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया है कि समूहों को अल्पसंख्यक का दर्जा देने के लिए धर्म को भारतीय परिदृश्य में देखा जाना चाहिए। अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कोर्ट को बताया कि आठ राज्यों में हिंदू अल्पसंख्यक थे, लेकिन उन्होंने कहा कि केंद्र याचिका का समर्थन नहीं कर रहा है। चीफ जस्टिस एस0 ए0 बोबडे की अगुवाई वाली पीठ ने भाजपा नेता एवं अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय द्वारा दायर याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया। इस याचिका में किसी समुदाय की राज्यवार आबादी के आधार पर अल्पसंख्यक का दर्जा देने के संबंध में दिशा.निर्देश देने का अनुरोध किया गया था। पीठ ने कहा कि धर्म को पूरे देश के परिदृश्य में जोड़ कर देखा जाना चाहिए। सीजेआई ने कहा कि धर्म राजनीतिक सीमाओं को नहीं मानता है। मुस्लिम हिंदू कानून का पालन करते हैं, लक्षद्वीप जैसी जगहों पर भी। इस पीठ में न्यायमूर्ति बी0आर0 गवई और न्यायमूर्ति सूर्यकांत भी शामिल थे। इसमें कहा गया था उत्तर.पूर्व में हिंदू दो से आठ फीसदी तक हैं, लेकिन वहां के 80 से 90 फीसदी इसाई देश में अल्पसंख्यक बनकर लाभ उठा रहे हैं। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट इससे पहले दो फैसलों में कह चुका है कि धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक का निर्धारण राज्य आधारित होना चाहिए। उसका निर्धारण देश की जनसंख्या के आधार पर नहीं होना चाहिए। याचिकाकर्ता ने यह भी कहा कि देश के आठ राज्यों में हिंदू अल्पसंख्यक हैं। वे लक्षदीप में 2.5 फीसदी, मिजोरम में 2.75 फीसदी, नगालैंड में 8.75 फीसदी, मेघालय में 11 फीसदी, जम्मू.कश्मीर में 28 फीसदी, अरुणाचल प्रदेश में 29 फीसदी, मणिपुर में 31 फीसदी और पंजाब में 38.40 फीसदी हैं। लेकिन उनके अल्पसंख्यक अधिकार वहां बहुसंख्यक लोग अनधिकृत तरीके से ले रहे हैं, क्योंकि केंद्र ने उन्हें राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग कानून की धारा के तहत अल्पसंख्यक घोषित नहीं किया है। इस कारण ये लोग संविधान के अनुच्छेद 25 और 30 के तहत मिले अधिकारों से वंचित हैं। याचिका में आग्रह किया गया है कि मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, सिख और पारसियों को ही अल्पसंख्यक घोषित करने वाली केंद्र की 1993 की अधिसूचना निरस्त की जाए क्योंकि यह अतार्किक है।