-विमल वधावन, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट
हमारे देश की न्याय व्यवस्था, सरकारों और बीमा कम्पनियों को दुर्घटना मुआवज़ों के सम्बन्ध में अपनी संवेदनाओं का विकास करना चाहिए। मोटर दुर्घटना का कष्ट अपने आपमें ही एक असहनीय कष्ट होता है। उस कष्ट की वेदना के साथ-साथ मुकदमेंबाजी का बोझ किसी प्रकार से भी एक सभ्य समाज का लक्षण नहीं हो सकता।
किसी भी देश के भौतिक विकास का आंकलन उसकी सड़कों और उन सड़कों पर चलने वाले वाहनों की गति को देखकर भी लगाया जा सकता है। भारत में एक तरफ सड़कों का जाल और तेज गति से चलने वाले वाहनों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। एक्सप्रेस हाइवे बन रहे हैं जिन पर सामान्य गाडि़याँ भी बहुत तेज गति से चलती दिखाई देती हैं। इस सारे विकास के साथ एक दुष्परिणाम भी जुड़ा हुआ है। मोटर दुर्घटनाओं की संख्या भी इसी विकास के साथ-साथ बढ़ रही है। विकास शब्द सुनकर जितना सुखद अनुभव होता है, किसी दुर्घटना का नाम सुनने के बाद उसी विकास से नफरत होने लगती है। सड़क दुर्घटना किसी आयु को नहीं देखती। दुर्घटना की चपेट में आने वाला व्यक्ति कुछ महीनों का बालक हो या उसके युवा माता-पिता, अविवाहित युवक हो या कोई वृद्ध पुरुष, दुघर्टना में किसी को सामान्य या गम्भीर चोटें लगें या कोई दुःखद मृत्यु, प्रत्येक दुर्घटना अपने आपमें एक पारिवारिक और सामाजिक पीड़ा उत्पन्न कर देती है। अक्सर सड़क दुर्घटनाओं के बाद उस वक्त एक और भी विपत्ति सामने आ जाती है जब किसी परिवार का ऐसा सदस्य दुर्घटना की चपेट में आया हो, जिसके सहारे सारे परिवार का भरण-पोषण हो रहा था। एक अबोध बच्चे या वृद्ध माता-पिता का दुर्घटना ग्रस्त होना भी परिवार के लिए मानसिक और आर्थिक दोनों प्रकार से ही दुःखदाई होता है।
सड़क दुर्घटना के बाद पीडि़त परिवार के सामने मुआवजे की एक कानूनी प्रक्रिया भी कुछ न कुछ सहारा बनी दिखाई देती है। हालांकि किसी व्यक्ति की क्षतिपूर्ति नहीं की जा सकती, परन्तु फिर भी दुर्घटना के बाद मुआवज़े की व्यवस्था पीडि़त परिवार को दुःखों के बावजूद भी एक आर्थिक आशा की किरण दिखा देती है। हमारे देश की न्याय प्रणाली ने इस दुर्घटना मुआवज़ा व्यवस्था को पिछले कुछ दशकों में बहुत अधिक मजबूत किया है। परन्तु फिर भी हम इस अवस्था को प्राप्त करने की दिशा में अभी तक कुछ नहीं कर पाये कि दुर्घटना होतो ही कुछ दिनों या कुछ महीनों के अन्दर पीडि़त परिवार के सामने मुआवज़े को लेकर अन्तिम निर्णय और राशि का भुगतान कर पायें। वैसे मोटर वाहन अधिनियम 1988 के प्रावधान अपने आपमें इतने दुरुस्त हैं कि किसी भी दुर्घटना के बाद मुआवज़ा प्राप्त करने के लिए पीपडि़त परिवारों को किसी प्रकार का कोई कष्ट न हो और उनके लिए मुआवज़ा निर्धारित करने की प्रक्रिया मुआवज़ा प्राधिकरण में स्वतः ही प्रारम्भ हो जाये और यथाशीघ्र उसका निर्णय होकर मुआवज़ा राशि पीडि़त परिवार को मिल जाये। मोटर वाहन अधिनियम की धारा-166(4) के अनुसार यदि प्रत्येक दुर्घटना के बाद दर्ज होने वाली एफ.आई.आर. की प्रतिलिपि दुर्घटना प्राधिकरण की अदालत के समक्ष भी प्रस्तुत कर दी जाये तो अदालत उसी सूचना को मुआवज़े का प्रार्थना पत्र समझ कर सीधा मुकदमा प्रारम्भ कर सकती है। मोटर वाहन अधिनियम की धारा-158(6) के अनुसार प्रत्येक पुलिस स्टेशन अधिकारी का यह आवश्यक दायित्व है कि वह इस कानून के नियम संख्या-150 तथा फार्म संख्या-54 के अनुसार दुर्घटना से सम्बन्धित सारा विवरण मुआवज़ा प्राधिकरण के समक्ष प्रस्तुत करे। यह फार्म लगभग उसी प्रकार की सूचना मांगता है जैसी प्रत्येक याचिकाकर्ता अपनी याचिका के माध्यम से अदालत के समक्ष मुकदमा प्रस्तुत करते हुए देता है। इतना सुन्दर प्रावधान होने के बावजूद भारत की अदालतों ने आज तक इस प्रावधान पर चलने का कष्ट ही नहीं किया। सभी राज्यों के उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय तक दुर्घटना मुआवज़ा याचिकाओं में कई प्रकार की तकनीकी उलझनों की व्याख्याएँ बार-बार करते हुए दिखाई देते हैं। यहाँ तक कि सरकारी और गैर-सरकारी बीमा कम्पनियाँ भी अक्सर निरर्थक कानूनी विवादों पर लम्बी लड़ाई लड़ती हुई देखी गई हैं।
एक तरफ मुआवजे़े को लेकर मुकदमें करने का कष्ट और दूसरी तरफ उस दुर्घटना से उत्पन्न आर्थिक और मानसिक दुःखों का बोझ लेकर पूरा पीडि़त परिवार कई वर्षों तक इस कानूनी चक्की में पिसता रहता है। बीमा कम्पनियाँ कई बार तो बड़े हास्यास्पद विवाद पैदा करती हुई देखी गई है।
7 मई, 2008 के दिन 26 वर्षीय अविवाहित स्कूल अध्यापक की बस दुर्घटना में मृत्यु हो गई। यह दुर्घटना पश्चिम बंगाल के हुगली क्षेत्र में हुई थी। इस युवक के माता-पिता कलकत्ता रहते थे। कलकत्ता और हुगली के बीच लगभग 50 किलोमीटर का अन्तर है। वैसे यह अन्तर कितना भी हो परन्तु मोटर वाहन अधिनियम की धारा-166(2) के अनुसार कोई भी याचिकाकर्ता मुआवज़ा याचिका उस प्राधिकरण के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है जिस क्षेत्र में दुर्घटना घटित हुई हो या जिस क्षेत्र में याचिकाकर्ता परिवार रहता हो या जिस क्षेत्र में प्रतिवादी रहता हो। इस दुर्घटना में शामिल बस का बीमा नेशनल इंश्योरेन्स कम्पनी के अन्तर्गत था। जिसका प्रधान कार्यालय कलकत्ता में था। इसके बावजूद नेशनल इंश्योरेंस कम्पनी ने इस विवाद को लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक लड़ाई लड़ना उचित समझा कि जब दुर्घटना हुगली में हुई और याचिकाकर्ता परिवार भी हुगली में ही रहता है तो उन्होंने मुकदमा हुगली में न करके कलकत्ता में क्यों किया। जबकि कानून का प्रावधान स्पष्ट रूप से याचिकाकर्ता को यह अधिकार देता है कि वह धारा-166(2) में वर्णित तीन स्थानों में से किसी भी स्थान की अदालत में मुकदमा प्रस्तुत करे। मोटर दुर्घटना मुआवज़ा प्राधिकरण ने याचिकाकर्ता परिवार के लिए वर्ष 2012 में लगभग 16 लाख से कुछ अधिक की धनराशि 6 प्रतिशत ब्याज सहित मुआवजे़ के रूप में निर्धारित की थी परन्तु दुर्घटना के लगभग 8 वर्ष बाद सर्वोच्च न्यायालय तक उलझने पैदा करने के बावजूद भी अन्ततः बीमा कम्पनी के तर्क को अस्वीकार किया गया और सर्वोच्च न्यायालय में बीमा कम्पनी का तर्क निरस्त किया गया। बीमा कम्पनियाँ यदि इस प्रकार के निराधार तर्कों का सहारा न लें तो शायद पीडि़त परिवार को दुर्घटना के तुरन्त बाद यह मुआवज़ा मिल जाता तो उन्हें अपने युवक पुत्र की मृत्यु का कष्ट कानूनी लड़ाई के साथ 8 वर्ष तक न झेलना पड़ता।
हमारे देश की न्याय व्यवस्था, सरकारों और बीमा कम्पनियों को दुर्घटना मुआवज़ों के सम्बन्ध में अपनी संवेदनाओं का विकास करना चाहिए। मोटर दुर्घटना का कष्ट अपने आपमें ही एक असहनीय कष्ट होता है। उस कष्ट की वेदना के साथ-साथ मुकदमेंबाजी का बोझ किसी प्रकार से भी एक सभ्य समाज का लक्षण नहीं हो सकता।